बात कुछ साल पहले की है। शायद 2009 या 2010 की जब एक समाचार सुना कि भिण्ड जिले के गांव में एक दंपति अपनी नवजात कन्या को लेकर गायब हो गया है। प्रसव सरकारी अस्पताल में हुआ था, इसलिए खबर तेजी से फैली। बाद में मालूम हुआ कि उस बेटी को मार दिया गया है।प्रकरण में प्राथमिकी दर्ज हुई और मृतक नवजात कन्या के पिता, दादा और चाचा को गिरफ्तार कर लिया गया। मृतक कन्या का पिता पूर्व सरपंच था और उसका स्थानीय राजनैतिक रसूखदारों से अच्छा खासा संपर्क था। गिरफ्तार होने पर उसकी प्रतिक्रिया थी कि-‘का हम अब अपनी मोड़ी को भी ना मार सकत?’ गोया कि अपनी बेटी को मारना उनका जन्मसिद्ध अधिकार है। अपने घर की बेटियां और अन्य स्त्रियों का जीवन, उनकी गतिविधियों पर नियन्त्रण रखना उनका अधिकार है। स्त्रियां वस्तु के समान हैं, उन पर अधिकार पुरुषों की मर्दानगी की निशानी है।
आमतौर पर हमें बचपन से सिखाया जाता है कि लड़कियां घर की इज्जत हैं। कभी यह सुनने को नहीं मिलता कि लड़कों से भी घर का मान-सम्मान है। ‘घर की इज्जत’ होने का बोझ लड़कियों के ऊपर इतना मानसिक दबाब बनाता है कि वे अपना स्वाभाविक जीवन जी नहीं पातीं।
हर वक्त एक अनजाना सा भय उन पर हावी रहता है कि उनके कहीं, किसी कृत्य से ‘घर की इज्जत’ को आंच न आ जाये। वे घर से दूर स्कूल में पढ़ने नहीं जा पातीं, क्योंकि वे असुरक्षित हैं। ग्रामीण परिवेश में यह ज्यादा होता है।
बालिका अशिक्षा और बाल-विवाह जैसी कुरीतियों के पीछे भी यही दबाव है। देखा जाये तो लड़कियों पर होने वाले अत्याचार शोषण के मामले में पूरे भारतीय उप-महाद्वीप की सोच लगभग एक जैसी ही है। समाज पितृसत्तात्मक है और पुरूष आपराधिक स्तर तक मर्दानगी से भरे हुए।
दो घटनाएं और हैं। कुछ समय पहले पाकिस्तान की एक मॉडल कंदील बलोच की हत्या उसी के भाई द्वारा इसलिए कर दी गई क्योंकि कन्दील की व्यावसायिक आवश्यकताओं के चलते उसे समाज में स्वीकार्य वेशभूषा से इतर कम कपड़ पहनने होते थे या अंग प्रदर्शन करना होता था।
कंदील का स्वतंत्र व्यवहार उसके भाई के लिए असम्मान की बात थी। यानी वही ‘घर की इज्जत’ खराब होने वाली बात। कंदील बलोच की हत्या सीधे-सीधे ‘आनर-किलिंग’ का मामला था। लगभग उसी समय ग्वालियर के एक बालिका गृह में रह रही एक बालिका को उसी के पिता व चाचा के द्वारा धारदार हथियार से मार दिया गया,
क्योंकि वह अपने पिता की इच्छा के विरूद्ध उस लडके के साथ घर से चली गयी थी जिससे कि कभी उन्होंने ही उसका विवाह तय किया था और जो सजातीय ही था। हमारे देश की ‘खाप पंचायतें’ भी यही करती हैं।
सामान्यत: भाषा को वैचारिक आदान-प्रदान का माध्यम कहा जाता है। भाषा अभिव्यक्ति का सर्वाधिक विश्वसनीय माध्यम है। यही नहीं, वह हमारे निर्माण, विकास, हमारी अस्मिता, सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान का भी साधन है। हमारी भाषा और मुहावरों पर भी पुरुषों का अधिकार है।
एक जुमला है ‘जोरू का गुलाम।’ मुझे लगता है कि ये जुमला समाज के पितृसत्तात्मक ढांचे को सुरक्षित बनाए रखने के लिए गढ़ा गया होगा। जब किसी पुरुष ने अपनी पत्नी के साथ अच्छा व्यवहार किया होगा या उसकी सहमति से कोई निर्णय लिया होगा तो दूसरे पुरुषों ने घबराहट के साथ उसे इस उपाधि से नवाजा होगा कि कहीं ऐसे पुरुषों का समूह बढ़ ना जाए जो अपनी पत्नी की सहमति के बिना निर्णय नहीं ले सकते।
‘जोरू का गुलाम’ कहकर उनका इतना मजाक उड़ाया गया होगा कि कोई दूसरा तथाकथित मर्द ऐसा व्यवहार करने की हिम्मत न जुटा सके। खास बात तो यह है कि उसकी ये साजिश सफल है। आज ज्यादातर पत्नियां अपने मर्द पतियों के हाथों पिट रही हैं और ‘जोरू का गुलाम’ हाशिये पर है।
जिन दो ऐतिहासिक महिलाओं के साहस और शौर्य के उदाहरण हमारे देश में दिये जाते हैं उनमें से पहली है, झॉसी की रानी लक्ष्मी बाई। दूसरी हैं देश की पहली महिला प्रधानमंत्री रहीं श्रीमती इंदिरा गांधी।
इन दोनों स्त्रियों ने स्त्रियों के लिए बनाई गई परम्पराओं, लीक से हटकर अदम्य साहस दिखाया और अपना नाम इतिहास में स्वर्णाक्षरों में दर्ज कराया है, लेकिन हम उन्हें किस नजरिये से देखते हैं? झॉसी की रानी लक्ष्मी बाई पर सुभद्रा कुमारी चौहान ने एक प्रसिद्ध कविता लिखी है ‘खूब लड़ी मदार्नी वह तो झाँसी वाली रानी थी।’
उधर श्रीमती इंदिरा गांधी के बारे में कहा जाता था कि उनके मंत्रीमंडल में केवल एक ही मर्द है और वह है स्वयं इंदिरा गांधी। गोया कि साहस, हिम्मत केवल मर्दों का ही गुण है। अगर स्त्रियों में यह गुण है तो वह मर्दानी है।
यह कहने के पीछे छिपी मान्यता यह है कि मर्द मजबूत, हिम्मती, साहसी और नियंत्रण रखने वाले होते हैं, जबकि औरतें दब्बू और डरपोक। एक तरफ भारत में नारी को देवी का दर्जा दिया जाता है, उसे शक्ति-स्वरूपा माना जाता है, किन्तु वास्तव में हमारा समाज स्त्री के साहस व शौर्य को स्वीकारने के बजाय उसे असंगत या पुरुषोचित मदार्ने व्यवहार से जोड़ता है।
इससे इतर अगर किसी पुरूष में स्त्रीत्व के गुण हैं तो उसे जनाना कहकर खारिज कर दिया जाता है। शायद इसी के चलते हमारी पहले के पीढियों में पिता अपने बच्चों को प्यार से कभी गोद में भी नहीं लेते थे।
ऊपर की सभी बातों का सार यही है कि मर्दानगी की सोच स्त्री-पुरूष बराबरी के खिलाफ है। मर्दानगी की सोच ही महिला निरक्षरता, घर के अंदर बाहर हिंसा, यौन-हिंसा, ‘आनर किलिंग,’ छेड़खानी, बलात्कार, कन्या भ्रूण-हत्या जैसी समस्याओं की मूल जड़ है। यह गंभीरता से सोचने का वक्त है कि स्त्रियों के खिलाफ यह आपराधिक मर्दानगी कब खत्म होगी।
रंग-भेद की समस्या के बारे में किसी ने कहा है कि ये समस्या कालों की नहीं, बल्कि गोरों की है। वैसे ही स्त्री-पुरूष के बीच जो गैर-बराबरी है वह स्त्रियों की समस्या नहीं है, बल्कि उनके साथ रहने वाले पुरूषों की समस्या है। भेदभाव स्त्रियों की ओर से नहीं, पुरुषों की ओर से होता है।
जब भी हमें स्त्री सशक्तिकरण, स्त्रियों के शोषण और उन पर होने वाले अत्याचारों, घरेलू हिंसा जैसे मुद्दों पर बात करनी होती है तो ये चर्चा भी हम स्त्री समूहों के साथ करते हैं। जबकि इन मुद्दों पर पुरूषों के साथ चर्चा की जाने की जरूरत है, तभी उनकी सोच में बदलाव आएगा। इस बदलाव के बाद ही हम किसी समाधान की ओर कदम बढ़ा सकेंगे।