आंदोलनकारियों के दबाव में केंद्र सरकार ने तीनों कृषि कानून वापस लेने का फैसला किया है। इस फैसले की घोषणा करते समय खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दावा किया कि इन कानूनों का करोड़ों किसानों को लाभ होता लेकिन वे कुछ लोगों को इसके फायदे समझा नहीं पाए इसलिए इन कानूनों को वापस लिया जा रहा है। प्रधानमंत्री मोदी समेत पूरी भाजपा और उनके समर्थकों का साफ मानना है कि ये कानून आठ करोड़ छोटे किसानों के जीवन और देश के कृषि क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव ला सकते थे इसके बावजूद बकौल भाजपा चंद ‘आंदोलनजीवियों, खालिस्तानियों, और अराजक तत्वों’ को संतुष्ट करने के लिए करोड़ों गरीब किसानों और देश के कृषि क्षेत्र के हितों को कुर्बान कर दिया गया। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल ये खड़ा होता है कि इन कृषि कानूनों को वापस लेने से देश, किसान, समाज, सरकार, मोदी, भाजपा, या विपक्ष को क्या हासिल होगा।
अब एक बार फिर किसान मंडी समिति, आढ़तियों और बिचैलियों के हाथों शोषण का शिकार होने को मजबूर होगा। कृषि क्षेत्र में निवेश का मन बना रहे लोग अब दूसरे क्षेत्रों की तरफ रुख कर सकते हैं। इस तरह इन कानूनों की वापसी की किसानों और देश की कृषि अर्थव्यवस्था को भारी कीमत चुकानी होगी।
पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों से ठीक पहले कृषि कानूनों को वापस लेने के फैसले को कुछ लोग प्रधानमंत्री मोदी का चुनावी मास्टरस्ट्रोक बता रहे हैं।
लेकिन खुद प्रधानमंत्री मोदी दावा कर रहे हैं कि इन कानूनों से आठ करोड़ किसान लाभांवित होते और वे इनसे खुश भी थे केवल कुछ किसानों को वे समझा पाने में नाकाम रहे इसलिए कानून वापस ले रहे हैं।
ऐसे में सवाल उठता है कि आठ करोड़ लोगों को नुकसान पहुंचाने वाला फैसला भला किसी भी राजनैतिक दल को किस प्रकार लाभकारी हो सकता है।
रही बात प्रधानमंत्री मोदी की छवि को तो इस फैसले ने एक बार फिर उनकी छवि को धक्का पहुंचाया है। इससे पहले दलित उत्पीड़न के मामले में जांच के बाद ही गिरफ्तारी करने के उच्चतम न्यायालय के फैसले को भी मोदी सरकार ने संसद में कानून बनाकर न सिर्फ पलट दिया था बल्कि उसके प्रावधानों को और सख्त कर दिया था।
नतीजन मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनावों में भाजपा समर्थक सवर्ण जातियों ने सपाक्स पार्टी बनाकर अपने प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतार दिए। नतीजन शिवराज सिंह चैहान की भाजपा सरकार को सत्ता से बेदखल होना पड़ा।
इसी तरह आठ करोड़ किसानों के हक को छीनने वाले मोदी सरकार के फैसले की कीमत उत्तर प्रदेश की योगी सरकार को चुकानी पड़ सकती है।
कुछ राजनैतिक विश्लेषकों का तो यहां तक मानना है कि पहले तेजी से लोकप्रिय होते शिवराज सिंह चौहान को साधने के लिए मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव से ठीक पहले उच्चतम न्यायालय के फैसले के खिलाफ सवर्ण विरोधी कानून बनाया गया और अब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के बढ़ते कद को नियंत्रित करने के लिए मोदी सरकार ने इस तरह का फैसला किया है।
राजनैतिक शह मात के खेल में बड़ा दांव खेलते हुए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने लाखों लोगों के धर्मांतरण के आरोपी ग्लोबल पीस सेंटर के अध्यक्ष मौलाना कलीम सिद्दीकी को गिरफ्तार करवा लिया। कलीम सिद्दीकी की गिरफ्तारी से भाजपा और संघ के एक वर्ग में बेचैनी बढ़ गई है।
मोदी और योगी के बीच तल्ख संबंधों को देखने वालों का मानना है कि कृषि कानूनों की वापसी भाजपा कार्यकर्ताओं और समर्थकों को निराश कर सकती है। निरंकुश अफसरशाही की मनमानी से नाराज भाजपा कार्यकर्ता चुनाव के दौरान घर में बैठ सकते हैं, जिसका सीधा असर चुनावी नतीजों पर पड़ सकता है।
कृषि कानूनों की वापसी का सबसे बड़ा सवाल ये है कि इससे विपक्षी दलों और भाजपा विरोधियों को क्या हासिल हुआ। कुछ लोगों का कहना है कि प्रधानमंत्री मोदी ने विधानसभा चुनावों ये ठीक पहले विपक्ष के हाथ से एक बड़ा मुद्दा छीन लिया है।
लेकिन हकीकत विपक्ष और सरकार दोनों को अच्छी तरह से पता है कि प्रधानमंत्री मोदी के इस फैसले से सरकार विरोधी ताकतों को नई ऊर्जा मिलेगी। वे अपने समर्थकों को आसानी से समझाने में कामयाब हो सकेंगे कि लंबे आंदोलन के दम पर सरकार से कोई भी फैसला करवाया या पलटवाया जा सकता है।
कृषि कानूनों की वापसी की घोषणा के बावजूद किसानों का आन्दोलन खत्म नहीं हुआ है बल्कि वे अधिक उत्साह के साथ 26नवम्बर के प्रदर्शन की तैयारी में जुटे हुए हैं।
मोदी सरकार के फैसले से सबसे ज्यादा आहत देश का शांतिप्रिय बहुसंख्यक वर्ग है जो सरकार के हर सही गलत फैसले को स्वीकार कर लेता है। यदि उसे लगता है कि सरकार की नीतियां उसके खिलाफ हैं तो पांच साल के इंतजार के बाद अपने वोट की ताकत से सरकार बदल देता है।
लेकिन शाहीन बाग हो या तथाकथित किसान आंदोलन इन दोनों आंदोलनों ने एक बात साफ कर दी है कि चाहे शासन हो, प्रशासन हो या न्यायपालिका उनके लिए खामोश बैठे लोगों के अधिकारों की तनिक भी परवाह नहीं है भले ही वे बहुसंख्यक क्यों न हों। चूंकि अराजक तत्वों ने किसानों का चोला पहना हुआ था,
इसलिए इस आंदोलन को गांधीवादी अहिंसक आंदोलन की संज्ञा दी जा सकती है और इसलिए उन पर सख्ती नहीं की जा सकती। लेकिन व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका को समझना होगा कि अगर खामोशी से कानून का पालन करने वाले बहुसंख्यक वर्ग को लगने लगा कि अपने अधिकारों की रक्षा के लिए अराजकता ही एक मात्र उपाय है तो देश और समाज का इसकी बड़ी कीमत चुकानी होगी।