Monday, July 1, 2024
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अधिक सहूलियत, कम मतदान

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PANKAJ CHATURVEDIभारत की 18 वीं लोकसभा के निर्वाचन की प्रक्रिया सम्पन्न होने के साथ ही एक सवाल फिर खड़ा हुआ कि आखिर बड़े शहरों में रहने वाले, खासकर संपन्न इलाकों के लोग वोट क्यों नहीं डालते, जबकि उनके क्षेत्रों में जन सुविधा-सुंदरता और शिकायतों पर सुनवाई सरकारें प्राथमिकता से करती हैं। दिल्ली हो या राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के दो इलाकों- फरीदाबाद और गुरुग्राम या फिर देश के दूसरे बड़े शहर, मतदान का आंकडा सामने आया तो स्पष्ट हो गया, जिस इलाके में अधिक शिक्षित और संपन्न लोग रहते हैं, वहां सबसे कम मतदान हुआ। लोकसभा के तहत जिन विधानसभा क्षेत्रों में विकास, सफाई, नागरिक सुविधा के लिए सबसे अधिक धन खर्च होता है, उन्हें मतदान के कर्तव्य की सबसे कम चिंता है। हो सकता है कि धनाढ्य वर्ग यह सोचता हो कि वे सबसे अधिक टैक्स देते हैं, इसलिए उनके इलाके में सरकारी धन से अधिक रखरखाव होना ही चाहिए। समझना होगा कि कोई उद्योगपति या व्यापारी अधिक कमाता है तो इसी देशों के संसाधनों से ही और यह तभी संभव है, क्योंकि देश में लोकतंत्र है और लोकतंत्र तभी है, जब अधिक से अधिक लोग अपने पसंद की सरकार चुनने के अनुष्ठान में अपने आहुति दें, एक मत के रूप में। गौर करने वाली बात है जो शहर जितना बड़ा है, जहां विकास और जन सुविधा के नाम पर सरकार बजट का अधिक हिस्सा खर्च होता है, जहां प्रति व्यक्ति आय आदि औसत से बेहतर है, जहां सडक-बिजली-पानी- परिवहन अन्य स्थानों से बेहतर होते हैं। वहीँ के लोग वोट डालने निकले नहीं। चेन्नई सेंट्रल सीट में सर्वाधिक शिक्षित और बड़े घराने रहते हैं, वहां मतदान हुआ महज 53. 91 प्रतिशत। बैंगलुरु सेंट्रल और साउथ भी पढ़े-लिखे, नौकरीपेशा और संपन्न लोगों का क्षेत्र है और वहां केवल क्रमश: 52.81 और 53. 15 फीसदी लोग ही मतदान को निकले। यही हाल मुंबई साउथ का रहा, जहां देश के बड़े उद्योगपति, फिल्मी सितारे रहते हैं, यहां मतदान 47.7 प्रतिशत ही था, जबकि शहर का सबसे साफ-सुथरा जगमगाता संसदीय क्षेत्र यही है। हैदराबाद में 45.07, बहादुरपेट में 47.4 प्रतिशत, नमपल्ली में 45.3 प्रतिशत और जुबली हिल्स में 45.65 प्रतिशत मतदान रहा।

राजधानी दिल्ली में लोकसभा की सात सीटें हैं, जिसमें नई दिल्ली सर्वाधिक प्रतिष्ठित कहलाती है,क्योंकि यहां राष्ट्रपति से ले कर बहुत से सांसद, अधिकांश उच्च नौकरशाही, बड़े व्यापारी आदि निवास करते हैं। हर बार की तरह इस बार भी इस सीट पर सबसे कम महज 51.98 फीसदी मतदान हुआ। इसमें भी सबसे कम मात्र 48.84 प्रतिशत वोट सबसे धनाढ्य कहे जाने वाले ग्रेटर कैलाश विधानसभा में गिरे।

दिल्ली में सबसे अधिक मतदान हुआ उत्तर-पूर्वी दिल्ली में जिसका बड़ा हिस्सा विस्थापित और कच्ची कालोनियों से बना है, यहां 62. 87 फीसदी वोट पड़ा। दिल्ली में एकमात्र पहली श्रेणी में उत्तीर्ण लोकसभा सीट यही है। मतदान वाले दिन, जब आसमान से आग बरस रही थी, तब सिग्नेचर ब्रिज की तरफ जाने वाली सड़क से जाफराबाद से आगे करावल नगर मार्ग तक हर जगह सड़क पर, जहां भारी यातायात भी था और कोई छाया नहीं थी ; क्या औरत क्या मर्द, लंबी कतारें थीं। एक मतदान केंद्र पर मतदान की गति इतनी धीमी कि एक से डेढ़ घंटे कतार में फिर भी लोग खड़े थे। जब यमुना विहार की मुख्य सड़क से मुस्तफाबाद में घुसें तो संकरी और टूटी सड़कें, बीच सड़क पर कूड़ेदान और सांड, अतिक्रमण, दोनों तरफ की संकरी गलियों पर दंगे के बाद लगे मजबूत दरवाजे। न्यूनतम सुविधाएं हैं, लेकिन वोट डालने में कोई कोताही नहीं। एक बेहतर कल की उम्मीद या लोकतंत्र पर भरोसा या उसी पर आशा, जो कुछ भी हो, इन गरीब, मेहनतकश लोगों ने जमकर वोट डाले। यहां भी सीलमपुर, मुस्तफाबाद, सीमापुरी जैसे झोपड़-झुग्गी वाले इलाकों में 60 फीसदी से अधिक वोट पड़े जबकि सरकारी इमारतों और मध्य वर्ग के तिमारपुर में 54.58 प्रतिशत ही। दक्षिणी दिल्ली में महज 55.15 फीसदी वोट पड़े और उसमें भी पालम के अलावा कहीं भी मतदान 60 तक नहीं पहुंचा। कालकाजी जैसे पुराने सभ्रांत विधानसभा में सबसे कम 53.22 फीसदी वोट ही गिरे।

चांदनी चौक लोकसभा के संकरी गलियों वाले मटिया महल, बल्लीमारान, शकूर बस्ती में 60 प्रतिशत से अधिक लोग वोट देने निकले तो मॉडल टाउन में 49.80, शालीमार बाग में 57.24 आदर्श नगर में 53. 76 फीसदी लोग ही घर से निकले। यहां भी स्पष्ट दिखा कि ऊंचे घरों से मतदान कम हुआ।

हरियाणा की दस सीटों में जिन दो जगहों पर सबसे कम मतदान हुआ, वे हैं दिल्ली का विस्तार कहे जाने वाले-फरीदाबाद और गुरुग्राम हैं। फरीदाबाद में ग्रामीण अंचल की हथिन में 70 फीसदी, पलवल और पर्थला में 65 फीसदी पार वोट पड़े, सो वहां आंकड़ा 60.20 प्रतिशत पर पहुंच पाया, वर्ना फरीदाबाद शहर की संभ्रांत बस्तियां कहलाने वाले इलाकों में मतदान 55 से नीचे रहा। गुरुग्राम सीट पर भी नूहं, पुन्हाना, पटौदी, बादशाहपुर जैसे ग्रामीण अंचलों में 65 प्रतिशत से अधिक मतदान हुआ। यहां शहर में तो बमुश्किल 55 फीसदी ही वोट गिरे। गाजियाबाद और नोएडा में भी वोट प्रतिशत वहीं ठीक रहा जहां जरूरतमंद लोगों की घनी आबादी है, वरना भरे पेट के मुहल्लों ने तो निराश ही किया। सवाल यह है कि क्या लोकतंत्र को सहेज कर रखने की जिम्मेदारी सामजिक-आर्थिक रूप से कमजोर लोगों पर ही है। इसके बाद भी जब विकास, सौन्दर्यीकरण, नई सुविधा जुटाने की बात आती है तो प्राथमिकता उन्हीं क्षेत्रों को दी जाती है, जहां के लोग कम मतदान करते हैं। मतदान को अनिवार्य करना भले ही फिलहाल वैधानिक रूप से संभव न हो लेकिन यदि दिल्ली एनसीआर से यह शुरुआत की जाए कि विकास योजनाओं का पहला हक उन विधान सभा क्षेत्रों का होगा, जहां लोकसभा के लिए सर्वाधिक मतदान हुआ तो शायद अगली बार पॉश इलाकों के लोग मतदान की अनिवार्यता को महसूस कर सकें।
राजनैतिक दल कभी नहीं चाहेंगे कि मतदान अधिक हो, क्योंकि इसमें उनके सीमित वोट-बैंक के अल्पमत होने का खतरा बढ़ जाता है। कोई भी दल चुनाव के पहले घर घर जा कर मतदाता सूची के नवीनीकरण का कार्य करता नहीं और बीएलओ पहले से ही कई जिम्मेदारियों में दबे सरकारी मास्टर होते हैं। हमारा लोकतंत्र भी एक ऐसे अपेक्षाकृत आदर्श चुनाव प्रणाली की बाट जोह रहा है, जिसमें कम से कम सभी मतदाताओं का पंजीयन हो और मतदान तो ठीक तरीके से होना सुनिश्चित हो सके।


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