Monday, December 30, 2024
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बाघों के संरक्षण में कोताही

Samvad


08 14साल 2022 बाघों के लिए चिंताजनक रहा है। मध्यप्रदेश में 33 बाघ मरे हैं। हाल में पन्ना बाघ अभ्यारण्य में एक युवा नर बाघ फांसी के फंदे से लटका मिला है। दूसरी तरफ, पेंच में एक बाघ ने ग्रामीण को शिकार बना लिया। इसकी नाराजी ग्रामीणों में छह वाहनों को तोड़-फोड़ कर जताई। बीते चार सालों में मध्यप्रदेश में 134 बाघ मारे गए हैं, जबकि 2021 में देश में 133 बाघों की संदिग्ध मृत्यु हुई है। इसी साल अब तक बाघों के संरक्षण में दूसरा स्थान प्राप्त कर्नाटक में 14 और तीसरे स्थान के उत्तराखंड में छह बाघों की मौत हुई हैं। प्रदेश में 134 बाघों में से 35 मामले शिकारियों ने अंजाम तक पहुंचाए हैं, जबकि 80 बाघ परस्पर लड़ाई, सड़क दुर्घटनाओं और कुओं में गिरने से मरे है। भारतीय वन-सरंक्षण सोसायटी की ताजा रिपोर्ट ने दावा किया है कि देश में बाघों की मौत में मध्यप्रदेश अव्वल है। इन मौतों के कारणों में प्राकृतिक, रेल व सड़क दुर्घटना, जहर देकर व बिजली के करंट से मारना प्रमुख हैं। पेशेवर शिकारियों ने भी इन्हें तस्करी के लिए मारा है।

2018 में 21 राज्यों में की गई बाघों की गिनती के अनुसार भारत में 2967 बाघ थे। यह गिनती बाघ के तीस हजार रहवासी क्षेत्रों में की गई थी, जबकि 2010 में 2226 बाघ देश के सरंक्षित वनों में पाए गए थे। दुनिया के 70 प्रतिशत से अधिक बाघों का डेरा भारत के 18 राज्यों में मौजूद 51 बाघ आभ्यारण्यों में है। हालांकि बिहार, ओड़ीसा, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र के नक्सली क्षेत्र के अलावा सुंदरवन में गिनती हो ही नहीं पा रही है।

विश्व प्रकृति निधि के मुताबिक दुनियाभर में इस समय बाघों की कुल संख्या 3900 है। भारत में 1973 में टाइगर प्रोजेक्ट परियोजना की शुरूआत तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने की थी। शुरूआत में इसका कार्यक्षेत्र 9 बाघ संरक्षण वनों में शुरू हुआ, बाद में इसका विस्तार 51 उद्यानों में कर दिया गया। बाघ संरक्षण भारत सरकार और राज्यों की साझा जिम्मेदारी है।

बीती सदी में जब बाघों की संख्या कम हो गई तब मध्यप्रदेश के कान्हा राष्ट्रीय उद्यान में पंजे के निशान के आधार पर गणना प्रणाली को मान्यता दी गई। माना जाता है कि हर बाघ के पंजे का निशान अलग होता है और इन निशानों को एकत्रकर बाघों की संख्या का आंकलन किया जा सकता है।

कान्हा के पूर्व निदेशक एचएस पवार ने इसे एक वैज्ञानिक तकनीक माना था, लेकिन यह तकनीक उस समय मुश्किल में आ गई, जब साइंस इन एशिया के मौजूदा निदेशक उल्लास कारंत ने बंगलुरु की वन्यजीव सरंक्षण संस्था के लिए विभिन्न पर्यावरणीय परिस्थितियों में बंधक बनाए गए बाघों के पंजों के निशान लिए और विशेषज्ञों से इनमें अंतर करने के लिए कहा। इसके बाद पंजों के निशान की तकनीक की कमजोरी उजागर हो गई और इसे नकार दिया गया।

इसके बाद कैमरा ट्रैपिंग का एक नया तरीका आया जिसे कारंत की टीम ने शुरूआत में दक्षिण-भारत में लागू किया। इसमें जंगली बाघों की तस्वीरें लेकर उनकी गणना की जाती थी। ऐसा माना गया कि प्रत्येक बाघ के शरीर पर धारियों का प्रारूप उसी तरह अलग-अलग है, जैसे इंसान की अंगुलियों के निशान अलग-अलग होते हैं। यह एक महंगी आकलन प्रणाली थी, पर बाघों के पंजों की तकनीक से कहीं ज्यादा सटीक थी।

इसके तहत कैप्चर और री-कैप्चर की तकनीकों वाले परिष्कृत सांख्यिकी उपकरणों और प्रारूप की पहचान करने वाले सॉफ्टवेयर का प्रयोग करके बाघों की विश्वसनीय संख्या का पता लगाने की शुरूआत हुई। इस तकनीक द्वारा बाघों की संख्या नाटकीय ढंग से घट गई। इसी गणना से यह आशंका सामने आई कि इस सदी के अंत तक बाघ लुप्त हो जाएंगे।

आशंकाएं तो यहां तक हैं कि बाघों की संख्या बढ़ा-चढ़ाकर इसलिए बताई जाती है, ताकि इनके संरक्षण के बहाने बरस रही देशी-विदेशी धनराशि नौकरशाहों की जेब भरती रहे। 2014 से 2018 के बीच एक अरब 96 करोड़ का पैकेज बाघों के संरक्षण हेतु जारी किया जा चुका है। 2018 की बाघ गणना पर 9 करोड़ रुपए खर्च किए गए।

आजकल चीन में बाघ के अंग और खालों की सबसे ज्यादा मांग है। इसके अंगों से यहां पारंपरिक दवाएं बनाई जाती हैं और इसकी हड्डियों से महंगी शराब बनती है। भारत में बाघों का जो अवैध शिकार होता है, उसे चीन में ही तस्करी के जरिए बेचा जाता है। बाघ के अंगों की कीमत इतनी अधिक मिलती है कि पेशेवर शिकारी और तस्कर बाघ को मारने के लिए हर तरह का जोखिम उठाने को तैयार रहते हैं। जंगलों की बेतहाशा हो रही कटाई और वन-क्षेत्रों में आबाद हो रही मानव बस्तियों के कारण भी बाघ बेमौत मारे जा रहे हैं।

पर्यटन के लिए उद्यानों एवं अभ्यारण्यों में जो क्षेत्र विकसित किए गए हैं उनमें पर्यटकों की आवाजाही बढ़ी है, नतीजतन बाघ अपने पारंपरिक रहवासी क्षेत्र छोड़कर मानव बस्तियों में जाकर बेमौत मर रहे हैं। बाघ सरंक्षण क्षेत्रों का जो विकास किया गया है, वह भी उनकी मौत का कारण बन रहा है, क्योंकि वहां उनका मिलना तय होता है।

बाघों के निकट तक पर्यटकों की पहुंच आसान बनाने के लिए उनके शरीर में रेडियो कॉलर-आईडी लगाए जाते हैं, जो उनकी मौत का प्रमुख कारण हैं। सीसीटीवी कैमरे भी इनको बेमौत मार देने की सूचना का आधार बन रहे हैं। दरअसल कैमरे के चित्र और कॉलर-आईडी से इनकी उपस्थिति की सटीक जानकारी वनकर्मियों के पास होती है। तस्करों से रिश्वत लेकर वनकर्मी बाघ की उपस्थिति की जानकारी दे देते हैं, नतीजतन शिकारी बाघ को आसानी से निशाना बना लेते हैं।

अब यह सत्य सामने आ चुका है कि बाघों के शिकार में कई वनाधिकारी शामिल हैं, इसके बावजूद जंगल महकमा और कुलीन वन्यजीव प्रेमी वनखण्डों और उनके आसपास रहने वाली स्थानीय आबादी पर झूठे मुकदमे लादने और उन्हें वनों से बेदखल करने की कोशिशों में लगे हैं। जबकि सच्चाई है कि सदियों से वनों में आदिवासियों का बाहुल्य, उनकी प्रकृति और वन्यप्राणी से सह-अस्तित्व की जीवन शैली ही वन और वन्यजीवों की सुरक्षा व संरक्षण का मजबूत तंत्र साबित हुई है।

बाघों की गणना के ताजा व पूर्व प्रतिवेदनों से पता चला है कि 90 प्रतिशत बाघ आरक्षित बाघ अभ्यारण्यों से बाहर रहते हैं। इन बाघों के संरक्षण में न वनकर्मियों का कोई योगदान होता है और न ही बाघों के लिए मुहैया कराई जाने वाली धनराशि बाघ संरक्षण के उपायों में खर्च होती हैं। इस तथ्य की पुष्टि इस बात से भी होती है कि नक्सल प्रभावित इलाकों में जो जंगल हैं, उनमें बाघों की संख्या में गुणात्मक वृद्धि हुई है। जाहिर है, इन क्षेत्रों में बाघ संरक्षण के सभी सरकारी उपाय पहुंच से बाहर हैं। लिहाजा वक्त का तकाजा है कि जंगल के रहबर वनवासियों को ही जंगल के दावेदार के रुप में देखा जाए तो संभव है वन प्रबंधन का कोई मानवीय संवेदना से जुड़ा जनतांत्रिक, सहभागितामूलक मार्ग प्रशस्त हो।


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