एक बार गोपियों को पता चला कि दुर्वासा ऋषि आए हुए हैं और यमुना के दूसरे किनारे पर ठहरे हुए हैं। किंतु यमुना में जल का बहाव अधिक होने के कारण, उसको पार करना कठिन था। गोपियों ने अपने प्रिय कृष्ण को मदद करने की प्रार्थना की। श्री कृष्ण ने कहा, जाओ , यमुना से कह दो, यदि कृष्ण आजीवन ब्रह्मचारी है तो यमुना हमें मार्ग दे दो। गोपियों ने मन में सोचा, दिन भर रास रचाने वाले श्री कृष्ण अपने को आजीवन ब्रह्मचारी कह रहे हैं। फिर भी गोपियों ने श्री यमुना जी से वही कह दिया और यमुना जी ने मार्ग भी दे दिया।
यमुना जी को पार करके गोपियां ऋषि दुर्वासा के पास गई और उन्हें भोजन कराकर जब चलने लगीं, तब उन्होंने ऋषि दुर्वासा से कहा कि हम वापिस कैसे जाएं? ऋषि दुर्वासा ने पूछा, आप सभी आई कैसे थीं? उन्होंने श्री कृष्ण की बात बता दी। तब ऋषि दुर्वासा बोले, जाओ, यमुना से कह दो, यदि दुर्वासा नित्य उपवासी है तो यमुना हमें मार्ग दे दो। गोपियों को बहुत आश्चर्य हुआ कि इतने सारे व्यंजनों को ग्रहण करने के पश्चात भी ऋषि दुर्वासा स्वयं को नित्य उपवासी कह रहे हैं, किंतु उन्होंने ऋषि की उपेक्षा न करते हुए यही वाक्य यमुना जी से कह दिया और यमुना जी ने गोपियों को वापिस जाने का मार्ग भी दे दिया।
रास रचाने वाले श्री कृष्ण ‘आजीवन ब्रह्मचारी’ और व्यंजनों को ग्रहण करने वाले ऋषि दुवार्सा ‘नित्य उपवासी’ कैसे? कर्मयोग की सर्वसुलभ साधना को अपनाने वाला साधक अपनी समस्त इच्छाओं को परमात्मा को समर्पित कर देता है। कर्मफल के प्रति उसके आसक्ति नही रहती। इसीलिए दोनों ही अनासक्त होने के कारण कर्म करते हुए भी कर्मफल से मुक्त थे।
प्रस्तुति: राजेंद्र कुमार शर्मा