Saturday, May 17, 2025
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ओपीएस: वे बांटें तो रेवड़ियां, ये बांटें तो प्रसाद?

Samvad 1


07 17सरकारी नौकरियों की पुरानी पेंशन योजना समाप्त कर नई पेंशन योजना लागू किए जाने का राष्ट्रव्यापी विरोध जारी है। गौर तलब है कि सरकारी नौकरी ही देश में युवाओं के जीवन यापन के लिए उनकी पहली पसंद ही हुआ करती थी। क्योंकि किसी भी सरकारी सेवा में कार्यरत कर्मचारी व अधिकारी को उसकी सेवाकाल के दौरान निर्धारित मासिक वेतन के अतिरिक्त अनेक ढेर सारी सुविधाएं तो मिलती ही थीं साथ ही प्रत्येक सेवानिवृत्त कर्मचारी को अनिवार्य पेंशन पाने का भी अधिकार प्राप्त था। अनिवार्य पेंशन सेवानिवृत्ति के समय मिलने वाले मूल वेतन का लगभग 50 प्रतिशत होता होता था। इसके अतिरिक्त सेवानिवृत्त कर्मचारी को भी किसी भी कार्यरत सरकारी कर्मचारी की ही तरह लगातार महंगाई भत्ता में बढ़ोतरी की सुविधा भी मिलती रहती थी। केंद्र सरकार ने इसी पुरानी पेंशन योजना को वर्ष 2004 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई की सरकार के समय खत्म कर न्यू पेंशन स्कीम की घोषणा की थी। 2004 में पेंशन योजना को बंद करते समय अनेक अर्थशास्त्रियों द्वारा यह तर्क दिया जा रहा था कि पेंशन योजना देश की आर्थिक स्थिति के लिए बहुत घातक सिद्ध हो सकती है।

कुछ अर्थशास्त्री तो पेंशन योजना को देश की भविष्य की वित्तीय तबाही का कारक तक बता रहे थे। यूपीए सरकार में योजना आयोग के अध्यक्ष रहे मोंटेक सिंह अहलूवालिया जैसे अर्थशास्त्री उन दिनों सभी राजनीतिक दलों व सत्ताधारी पार्टियों को यह सीख दे रहे थे कि वे सभी व्यवस्था को ऐसे कदम उठाने से रोकें जो निश्चित रूप से वित्तीय तबाही का सबब है। अनेक ओपीएस विरोधी अर्थ शास्त्रियों व सत्ताधारियों ने तो ओल्ड पेंशन स्कीम को ‘सबसे बड़ी रेवड़ी’ तक बता दिया है।

चुनाव हेतु लाभकारी समझ कांग्रेस पार्टी ने इस मुद्दे को विभिन्न राज्यों में उछाला और जहां-जहां उसे ओपीएस लागू करने के वादे के बाद चुनावी सफलता मिली वहां- वहां कांग्रेस ने ओल्ड पेंशन स्कीम को बहाल भी कर दिया। आम आदमी पार्टी शासित पंजाब सरकार ने भी पुरानी पेंशन योजना को फिर से लागू कर दिया है।

निश्चित रूप से देश के सेवानिवृत कर्मचारियों का यह एक ज्वलंत प्रश्न है कि एक ओर तो दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही मंहगाई, परिवार के सदस्यों में फैली बेरोजगारी और ऊपर से परिवार के संरक्षक रूपी किसी बुजुर्ग सेवानिवृत कर्मचारी के जीवन यापन का एकमात्र सहारा यानी पेंशन का समाप्त हो जाना, देश की सेवा में अपना जीवन खपा देने वाले किसी भी कर्मचारी के साथ अन्याय नहीं तो और क्या है?

इसके बावजूद भाजपा की वर्तमान नरेंद्र मोदी सरकार निकट भविष्य में भी पुरानी पेंशन योजना की बहाली की संभावना से फिलहाल इनकार कर रही है। जबकि विपक्ष इसे चुनावी मुद्दे के रूप में प्रमुखता से उठाना चाह रहा है। ओल्ड पेंशन स्कीम को बहाल किए जाने के लिए देश भर की ट्रेड यूनियंस भी इस विषय पर सरकार पर अपना दबाव बढ़ा रही हैं।

अगले वर्ष यानी 2024 में लोकसभा के आम चुनावों से पूर्व छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान व तेलंगाना सहित नौ राज्यों में विधानसभा चुनाव प्रस्तावित हैं। पूरी संभावना है कि कांग्रेस व अन्य विपक्षी दल इन चुनावी राज्यों यहां तक कि लोकसभा चुनावों में भी पुरानी पेंशन योजना की बहाली का मुद्दा पूरे जोर-शोर के साथ उठा सकते हैं।

विपक्ष को पूरी उम्मीद है कि पुरानी पेंशन योजना की बहाली का मुद्दा उठा कर उन्हें अवकाश प्राप्त सरकारी कर्मचारियों के रूप में देश के एक बड़े वोट बैंक का साथ मिल सकता है जो सत्ता दिलाने में सहायक भी हो सकता है। उधर सत्ता ने ‘लाभार्थी’ नामक एक नवनिर्मित वोट बैंक साधने की कोशिश की है जो केवल चंद महीने मिलने वाले 5 किलो अनाज पर ही सरकार का ‘कृतज्ञ’ रहता है।

दूसरी ओर विभिन्न अर्थशास्त्रियों द्वारा पेंशन योजना को देश की भविष्य की वित्तीय तबाही का कारक बताते हुए सत्ता के सुर से अपना सुर मिलाना पुन: पेंशन बहाली की आस लगाए लोगों को इसलिए भी रास नहीं आता कि जब देश की आर्थिक स्थिति इस योग्य भी नहीं कि वह विगत 6 दशक से चली आ रही पेंशन योजना को और आगे चालू नहीं रख सकती फिर आखिर वही सरकार सांसदों और विधायकों की प्रत्येक सदस्य्ता पर मिलने वाली अलग अलग पेंशन को भी समाप्त क्यों नहीं करती?

यह रेवड़ी नहीं तो क्या प्रसाद है? देश यदि आर्थिक तंगहाली के दौर से गुजर रहा है तो देश को लगभग 20 हजार करोड़ की लागत से बन रहे सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट की क्या जरूरत थी? देश के लोगों को प्रधानमंत्री व राष्ट्रपति के आठ हजार चार सौ करोड़ के अति महंगे विमानों की खरीद से आखिर क्या हासिल? बुलेट ट्रेन जैसी अति महंगी परियोजना देश के लिए क्यों जरूरी?

सच तो यह है कि सरकार ने केवल पुरानी पेंशन योजना बंद कर के ही देश के वरिष्ठ नागरिकों से अपना मुंह मोड़ने का इजहार नहीं किया है, बल्कि कोविड के बाद रेल यात्रा में वरिष्ठ नागरिकों को दी जाने वाली छूट को भी समाप्त कर अपनी नीति और नीयत का इजहार कर दिया है।

जिन्हें सेवानिवृत देशवासियों को पेंशन देना और उन्हें बुढ़ापे में रेल यात्राओं में छूट देना ‘भारी वित्तीय बोझ’ प्रतीत होता है, उन्हें पेशेवर राजनीतिज्ञों पर होने वाले और इनके द्वारा अनावश्यक रूप से विभिन्न गैर जरूरी योजनाओं के किए जाने वाले भारी भरकम व शाही खर्च की तरफ भी नजर डालनी चाहिए। सत्ताधारियों द्वारा विपक्षी दलों द्वारा पुन: शुरू की गई ओपीएस को रेवड़ी बताना और स्वयं चुनाव के दृष्टिगत ‘रेवड़ियां ही रेवड़िया’ बांटते रहने का अर्थ तो यही है कि-वे बांटें तो रेवड़ी ये बांटें तो प्रसाद?


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