सधे, सयाने और वक्त माहौल के लिहाज से अपनी सियासी पारी स खेलने वाले शरद पवार ने फिर दिखाया है कि उनके जैसा पैतरेबा राजनीतिज्ञ होना आसान नहीं। अपनी पार्टी एनसीपी में संभावित टूटन के अंदेशों के दरमियां शरद पवार ने आखिर रोटी पलटने के अपने बयान को हकीकत में तब्दील किया। मौका भी गजब का चुना, अपनी आत्मकथा के विमोचन का। 24 साल से एनसीपी प्रमुख की अपनी इनिंग को विराम देने की घोषणा जैसे ही शरद ने घोषणा की, कार्यकर्ता भावुक हो गए। कई की आंखों से आंसू छलक आए, यही तो चाहते थे पवार। शरद को बेहद करीब से जानने वाले भी चार दशक बाद भी ये दावा करने की स्थिति में नहीं होते कि सियासत के इस चाणक्य को हमने समझ लिया है।
उनकी अगली चाल, प्लान को उनके अलावा कोई नहीं जानता। अपने चार दशक लंबे सियासी सफरनामे में पवार ने इतनी पलटियां मारी हैं कि उन पर भी एक किताब लिखी जाए तो वह भी उनकी आत्मकथा की तरह बेहद रोचक होगी।
इस्तीफे के मायने बड़े हैं। 83 साल के शरद इतने अस्वस्थ नहीं कि इन दिनों महाराष्ट्र की सियासत में चल रहीं जबरदस्त सरगर्मियों के दौर में वह सियासी संत हो जाएं और अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे कर चैन की जिंदगी बसर करें। ये पवार के बेहद जटिल शब्दकोष में लिखा ही नहीं। सियासत की बिसात पर चली उनकी चालों को पढ़ पाना आसान नहीं।
उनके बेहद महत्वाकांक्षी भतीजे अजित पवार का सत्ता प्रेम बल्कि सीएम कुर्सी की चाह अब 23 नवम्बर 2019 में महाराष्ट्र की एक सुबह आए सियासी भूचाल में अजीत ने देवेंद्र फडणवीस के साथ जब गवर्नर भगत सिंह कोश्यारी की कृपाओं से बतौर डिप्टी सीएम शपथ ली तो हंगामा मच गया था लेकिन बेकाबू अश्वों को साधना शरद जानते हैं। डैमेट कंट्रोल किया गया, अपनी पावर दिखाई बड़े पवार साहब ने और मुंह लटकाए घर लौटने को विवश हुए थे अजित पवार।
अब वो ही अजीत फिर पूरे घटनाक्रम के मुख्य पात्र हैं। शिंदे बनाम शिवसेना मामले में जल्द सुप्रीम कोर्ट का फैसला आ सकता है और माना जा रहा है कि एकनाथ के हाथ से सत्ता की चाबी फिसल सकती है तो अजीत की महत्वाकांक्षों ने फिर हिलोरे मारने शुरू किए लेकिन इस बार अजीत कच्ची गोलियां नहीं खेलना चाहते। एनसीपी के कई वरिष्ठों को
उन्होंने साधा तथा बीजेपी के साथ गलबहियां दोबारा शुरू की। बस, यही से पकार का पावर गेम शुरु होता है। सोनिया गांधी के विदेशी मूल को लेकर कांग्रेस को छोड़ कर एनसीपी का गठन किया था शरद ने 24 साल से जिस पार्टी को खड़ा करने में शरद ने दिन रात एक किया, सत्ता के किंग मेकर बने, उस पार्टी का शिवसेना जैसा हश्र नहीं होने देंगे, इसीलिए उन्होंने पांच दिन पहले कहा कि अब रोटी पलटने का वक्त आ गया। मौका भी, दस्तूर भी।
महाराष्ट्र में शिवसेना (उद्धव गुट), कांग्रेस, एनसीपी गठबंधन रूपी तोते की जान भी पवार के हाथों में हैं। दूसरे अपनी बेटी सुप्रिया सुले को भी वह अपने जीते जी बेहद सशक्त भूमिका में देखना चाहते हैं लेकिन अजीत है कि हर बार उनके लिए मुश्किल खड़े कर देते हैं।
पवार की मुश्किल ये है कि लाख कोशिशों के बावजूद सुप्रिया एनसीपी में वो कद और स्वीकार्यता हासिल नहीं कर सकीं जो अजीत ने किया है। बस, यही पवार ने अपनी गोटियां बिछाई। इस्तीफे का इमोशनल कार्ड खेला, पार्टी कैडर तक मैसेज गया।
टूटने की आशंकाओं के बीच अजित के साथ खड़े 15 से 20 विधायकों के होठ सिल गए और जंयत पाटिल जैसे नेता तो इतने भावुक हुए कि इस्तीफे की घोषणा के बाद मंच पर ही रो पड़े। जैसे ही सभागार से पवार घर के लिए निकले, भावुक कार्यकता पवार साहब की कार के पीछे दौड़ गए नम आंखों के साथ। यानि इमोशनल कार्ड
काम कर गया। अब भाजपा के साथ बगलगीर होने को आतुर अजीत भी अनिच्छुक से ही, चाचा से गुहार लगाएंगे कि आप ही बॉस रहिए।
खैर इस एपिसोड जगजाहिर हो चुकी है। वह खुद कह चुके कि कौन राजनीतिज्ञ है, जो सीएम से बाला साहेब के बेटे उद्धव ठाकरे को खांटी सियासत का क, ख, ग सीखने की कुर्सी पर आसीन नहीं होना चाहता लेकिन चाचा हैं कि उनकी चाह का मौका मिला होगा, उन्हें मातोश्री में लगे विशाल आइने के समक्ष खड़े होकर पवार की पैंतरेबाजी को सलाम करना होगा तथा अपना ईमानदार विश्लेषण करना होगा कि वह अपने आसपास पसर गए बगावती कांटों का अहसास तक नहीं कर पाएं और उनके कभी वफादार रहे एकनाथ ने उन्हें एक तरह से सियासत में अनाथ कर दिया।
पार्टी टूटी, सिंबल गया, सत्ता गई सो अलग। पवार ने अपनी आत्मकथा में लिखा भी है कि उद्धव को इस्तीफा नहीं देना चाहिए था और आखिरी पल तक संघर्ष करना चाहिए था। वक्त की नजाकत देखिए कि जिन बाला साहेब के आगे पवार की पावर भी कभी हद नहीं लांघ पाई। आज उन्हीं के बेटे की बेबसी ये कि वो भी पवार के रहमोकरम भी निर्भर। यानि युद्ध वो जो, हथियार वे, जिन्हें अपने कंधों और अपने बलबूते लड़ा जाएं। जवाब नहीं पवार की पैंतरेबाजी का संज्ञान नहीं लेते।
(लेखक दैनिक जनवाणी के समूह संपादक हैं)
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