Thursday, September 19, 2024
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शांति और सहयोग संकल्प का मामला है

Ravivani 31

जवाहर चौधरी

भारतीय जनमानस विविधताओं से भरा हुआ है। अनेक मत, पंथ, विचार-कुविचार, धर्म-अधर्म, प्रेम-नफरत, दया-हिंसा, झूठ-सच, राजनीति-ईमानदारी वगैरह सब यहाँ है। लेकिन इन सबके बीच एक संतुलन है जो हमारी आदर्श व्यवस्था है। कई बार जिम्मेदार इकाइयां उपेक्षा कर जाती हैं तो यह संतुलन डगमगाने लगता है। राजनीति की अच्छी बुरी अपनी जरूरतें होती हैं। इतिहास की ओर जाएं तो इसके अनेक उदाहरण मिल जाएंगे। लोकतंत्र में जनता का समर्थन पाने के लिए विकास के आलावा भी बहुत कुछ किया जाता है। बल्कि यह कहा जाना चाहिए कि ‘बहुत कुछ’ ज्यादा किया जाता है विकास उतना नहीं। प्राय: जनता की भावनाओं को उभार कर, उन्हें दूसरे समूह से डरा कर काम निकलने का प्रयास दिखाई देता है। यह असान भी होता है और कारगर भी। भारत में ईसाई, पारसी, बोहरा आदि कुछ समुदाय ऐसे हैं जो अपनी अलग पहचान को बनाये रखते हुए प्राय: सामाजिक, राजनितिक या राष्ट्रीय सक्रीयता से दूर रहते हैं। तटस्थता और अहस्तक्षेप की नीति उनकी पहचान है। देश के सामान्य नागरिक की तरह अपना काम-धंधा करते रहना, समय पर टेक्स चुका देना और प्राय: शांत रहना उनकी शैली है। वे संसाधनों का, अवसरों का, व्यवस्था का लाभ तो लेते हैं लेकिन जोखिम और विवाद की स्थिति से बचते हैं। यह अच्छी बात है या बुरी इस पर चर्चा हो सकती है। लेकिन उनका प्रयास होता है कि आए दिन सर उठाने वाली अप्रियताओं से बचा जाये। सामूहिक ही नहीं निजी स्तर पर भी उनकी जीवनशैली विवाद से दूर रहने की होती है। अगर कोई समूह यह समझता और चाहता है कि शांति से जीवन जिये और दूसरों को भी जीने दे तो उनमें अलग से संतत्व खोजने की आवश्यकता हो सकती है क्या ?

देश के बहुसंख्यक हिन्दू (जिनमें सिख, जैन, बौद्ध आदि शामिल हैं ) और अल्पसंख्यकों में बड़े समूह मुस्लिमों के बीच संबंधों में इतिहास की भूमिका हमेशा प्रभावी हो जाती है। कहते हैं जो अपने इतिहास को भूल जाते हैं वे नष्ट हो जाते हैं। जब इतिहास युद्ध और संघर्षों से भरा हो तो भुलाना और भी कठिन हो जाता है। लेकिन समय एक मरहम हो सकता है जिससे बड़े से बड़ा घाव भी भर सकता है। लेकिन वोट आधारित लोकतंत्र में राजनीतिक जरूरतें घाव को भरने नहीं देती हैं। घाव हरे हों तो जल्दी भुनाए जा सकते हैं। इस बात को समझने के लिए परिपक्व मानसिकता की भी जरुरत नहीं होती है। यदि हम बार बार उठ खड़े होने वाले सांप्रदायिक तनाव की बात पर नजर डालें तो पता चलता है कि हजार साल की हुकूमत के नाम पर नफरत को हवा दी जा रही है! तो क्या यह समझा जाए कि दोनों समुदायों में इतिहास के मद्देनजर हमेशा वैमनस्यता बनी रहेगी! परस्पर विरोध और नफरत उनमें स्थायीभाव कि तरह बने रहेंगे या फिर गुस्सा सतही भी हो सकता है!

एक नजर व्यावहारिक धरातल पर डालें तो पता चलता है कि गैर राजनीतिक दिनों में बहुत कुछ सामान्य चल रहा होता है। अर्थ हमारी रीढ़ है और बाजार में बैठा आदमी अपनी सेवाओं और कार्यकुशलता के कारण टिका रहता है। अर्थ-संसार में प्राय: धर्म महत्वपूर्ण तो है लेकिन बाधक नहीं है। तकनीकि कौशल किसी भी धर्म के व्यक्ति में हो उसकी पूछपरख होती है। धंधे में प्रतिस्पर्धा है सो ग्राहक प्राय: दाम देखता है धरम नहीं। आज बढ़ रही नफरत के पीछे आतंकी गतिविधियाँ और अपराध प्रमुख रूप से दिखाई देते हैं। यह एक आम चिंता है, सरकार से ले कर आम आदमी तक के लिए। भारत ही नहीं वैश्विक पटल पर भी आतंक को लेकर मुस्लिम कटघरे में दिखाई देते हैं। कहा जाता है कि हर मुस्लिम आतंकी नहीं है लेकिन हर आतंकी मुस्लिम है। हालांकि दबी छुपी जुबान में कभी कभी यह सुनने को मिलता है कि कुछ लोगों की हरकतों को पूरी कौम पर नहीं लादना चाहिए।

अगर अपराध और आतंकवाद को मुस्लिमों की पहचान के रूप में देखा जा रहा है तो कौम के अमन पसंद, तरक्की पसंद और विद्वानों पर जिम्मदारी बनती है कि वे आगे आएं और इस गलतफहमी को दूर करें। यह युग मिडिया का युग है और किसीको भी अपनी बात कहने के लिए बहुत प्रयास करने की जरुरत नहीं है, बस थोड़ी चेतना और इच्छा जरुरी है। भारतीय समाज को देखें तो सांस्कृतिक स्तर पर हिन्दू-मुस्लिम में बहुत अनुकूलताएं दिखाई देंगी। मसलन हर किसी को शायरी और गजलें पसंद है, मुस्लिम कलाकारों का संगीत और पेंटिंग्स का अच्छा प्रभाव है, थिएटर, भाषा और साहित्य को आमजन का प्यार मिलता है, खानपान, लिबास, तहजीब का आदर सब करते हैं। फिल्मी गायकों और कलाकारों को उनके काम से प्रसिद्धि और प्रशंसा मिलती है। खिलाड़ी भी हमारे यहां धर्म से ऊपर हमेशा सराहे गए हैं। इतिहास में भी आपसी सौहार्द के कई सफे ऐसे हैं जिनको मिसाल माना जा सकता है। तो यह नहीं समझ जाना चाहिए कि संबंधों की जमीन नफरत की है। कोशिश करना पड़ेगी, कहना और लिखना पड़ेगा, भाटकों को राह दिखाना होगी। मीर कह गए हैं ‘पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने हैं

जाने न जाने गुल ही न जाने, बाग तो सारा जाने है’। बाग जनता है यह बड़ी बात है। डर और नफरत को प्रयास से दूर किया जा सकता है। सरकार और संविधान के लिए सारे लोग बराबर हैं और हमें अवसर देते हैं अपनी बात कहने का। पढ़े लिखे, उच्च शिक्षित और प्रगतिशील सोच रखने वाले मुस्लिमों की संख्या काफी से ज्यादा है हमारे यहां, किंतु कौम का नेतृत्व उनके हाथ में नहीं है। समय समय पर कुछ मुस्लिम विद्वान एकता और अमन की बात रखते हैं, किन्तु ऐसे लोग संख्या में बहुत कम हैं। तमाम संस्थाएं हैं, जो तेज हवाओं के बावजूद मोहब्बत के चराग जलाएं तो आपसी रंगत बदल सकती है। सवाल यह है कि मन में सबके साथ चलने की इच्छा होना चाहिए। शांति और सहयोग संकल्प का मामला है। अगर अमनपसंद मुस्लिम पहल करेंगे तो सबको इसका लाभ मिलेगा।

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