पिछले कुछ समय में सर्वोच्च न्यायालयों के माननीय न्यायाधीशों ने न्यायालयों में लंबित मुकदमों, अनावश्यक मुकदमों से न्यायालय का समय खराब करने और दावे को अंतिम निर्णय तक ले जाने के स्थान पर लंबा खींचने की प्रवृति को लेकर गंभीर होने लगे हैं। इस संदर्भ में पिछले दिनों में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्तियों की प्रतिक्रियाएं अपने आप में गंभीर संदेश देती हैं। एक मामले में सुनवाई के दौरान वरिष्ठ वकील उपस्थित नहीं होने का कारण लेते हुए जूनियर वकील द्वारा अगली तारीख मांगने पर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ की तारीख पर तारीख वाली अदालत की छवि को बदलने वाली हालिया टिप्पणी इस मायने में महत्वपूर्ण हो जाती है तो जयपुर के एक समारोह में सर्वोच्च न्यायालय के ही न्यायमूर्ति अजय रस्तोगी की टिप्पणी की केसेज में डिस्पोजल नहीं, डिसिजन करें कोर्ट महत्वपूर्ण है। इससे पहले इसी साल साढ़े नौ बजे से न्यायिक प्रक्रिया शुरू करने का संदेश सामने है, तो अनावश्यक पीआईएल या मुकदमा दायर करने पर भी माननीय न्यायमूर्तियों की प्रतिक्रियाएं व सख्त लहजा अपने आप में संदेश देता हुआ है। लाख प्रयासों के बावजूद देश की अदालतों में मुकदमों का अंबार कम होने का नाम ही नहीं ले रहा है। एक मोटे अनुमान के अनुसार देश की अदालतों में 7 करोड़ से अधिक मुकदमें लंबित हैं। इनमें से करीब 87 फीसदी मुकदमे देश की निचली अदालतों में लंबित हैं, तो करीब 12 फीसदी राज्यों के उच्च न्यायालयों में लंबित चल रहे हैं। देश की सर्वोच्च अदालत में एक प्रतिशत मुकदमे लंबित हैं। राजस्थान की राजधानी जयपुर में ही डेढ़ दो माह पहले आयोजित एक समारोह के दौरान न्यायालयीय प्रक्रिया और सर्वोच्च न्यायालय में पैरवी करने वाले वकीलों की फीस को लेकार अच्छी खासी चर्चा हो चुकी है। मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति यूयू ललित द्वारा अदालत में सुबह साढ़े नौ बजे सुनवाई आरंभ करने की पहल पर भी वाद-विवाद रहा है। उधर न्यायाधीशों की भर्ती में एकरुपता लाने के केंद्र के प्रयास लगभग विफल हो गए हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि न्यायालयों में मुकदमों के अंबार को लेकर सभी पक्ष चिंतित हैं। मुकदमों के इस अंबार को कम करने के लिए कोई ऐसी रणनीति बनानी होगी, जिससे अदालतों का भार भी कम हो, न्यायिक प्रक्रिया लंबी भी ना चले, लोगों को समय पर न्याय मिले।
इसी 11 सितंबर को सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति अजय रस्तोगी की उपस्थिति में आयोजित समारोह में राजस्थान के कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश एमएम श्रीवास्तव की यह टिप्पणी भी महत्वपूर्ण हो जाती है कि न्यायालयों में पेंडिंग 60 प्रतिशत मामले सामान्य प्रकृति के हैं और इन्हें आपसी समझाइश या मध्यस्थता सहित अन्य वैकल्पिक तरीके से निपटाया जा सकता है।
पिछले पांच साल में ही देश में लंबित मुकदमों की संख्या चार करोड़ से बढ़कर सात करोड़ हो चुकी है। लोक अदालत के माध्यम से मुकदमों में कमी लाने की सार्थक पहल अवश्य की गई है, पर लोक अदालतों में लाखों प्रकरणों के निबटने के बावजूद हालात में ज्यादा बदलाव नहीं आया है। लाखों की संख्या में इस तरह के मुकदमे हैं, जिन्हें निपटाने के लिए कोई सर्वमान्य समाधान खोजा जा सकता है। मुकदमों की प्रकृति के अनुसार उन्हें विभाजित किया जाए और फिर समयबद्ध कार्यक्रम बनाकर उन्हें निपटाने की कार्ययोजना बने तो समाधान कुछ हद तक संभव है।
यातायात नियमों को तोड़ने वाले मुकदमों की आॅनलाइन निपटान की कोई व्यवस्था हो जाए तो अधिक कारगर हो सकती है। इसी तरह से चैक बाउंस होने के लाखों की संख्या में मुकदमे हैं, जिन्हें एक या दो सुनवाई में ही निस्तारित किया जा सकता है। मामूली कहासुनी के मुकदमे, जिनमें शांति भंग के प्रकरण शामिल हैं, उन्हें भी तारीख दर तारीख के स्थान पर एक ही तारीख में निपटा दिया जाए तो हल संभव है। इसी तरह से राजनीतिक प्रदर्शनों को लेकर दर्ज होने वाले मुकदमों के निस्तारण की भी कोई कार्ययोजना बन जाए तो उचित हो। इससे कम ग्रेविटी के मुकदमों का सहज निस्तारण संभव होगा तो न्यायालयों का समय भी बचेगा।
केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिजूजू की मानें तो इंग्लैण्ड में एक न्यायाधीश एक दिन में तीन से चार मामलों में निर्णय देते हैं, जबकि हमारे देश में प्रत्येक न्यायाधीश औसतन प्रतिदिन 40 से 50 मामलों में सुनवाई करते हैं। स्वयं न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ की टिप्पणी पर गौर करने से स्पष्ट हो जाता है कि न्यायाधीशगण रात तीन तीन बजे जल्दी उठकर केसेज का अध्ययन करते हैं, पूरी मेहनत करने के बाद जब सुनवाई का मौका होता है तो अगली तारीख मांगना कितना गंभीर हो जाता है। यदि न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ की टिप्पणी को ही निचली अदालत तक अपना लिया जाए तो मुकदमों का त्वरित निष्पादन तो संभव ही होगा, बार बार तारीख पर तारीख मांगने की पवृति पर कारगर रोक लगेगी तो न्यायालय, वादी और प्रतिवादी सभी का समय और धन की बचत भी होगी। इसके साथ ही मुकदमों का अंबार भी कम हो सकेगा।
पिछले कुछ समय से जिस तरह से पीएलआई को लेकर माननीय न्यायमूर्तियों द्वारा प्रतिक्रिया व्यक्त की जा रही है और जुर्माना भी लगाया जा रहा है इसके भी सकारात्मक परिणाम प्राप्त होने लगे हैं। इसी तरह से कोर्ट में केस दायर होने पर गवाह या याचिकाकर्ता के होस्टाइल होने को भी जिस तरह से अदालतों द्वारा गंभीरता से लिया जाने लगा है, उसके भी परिणाम आने वाले समय में और ज्यादा सकारात्मक होंगे। न्यायालयों की मध्यस्थता के लिए भेजे जाने वाले मामलों में वादी-प्रतिवादी द्वारा गंभीरता नहीं दिखाने से भी हालात अधिक सुधरे नहीं हैं। दरअसल मध्यस्थता से होने वाले निर्णय की पालन को लेकर अभी भी लोग संदेह में ही रहते हैं कि पालन होगी भी या नहीं। या फिर पालन के लिए वापिस अदालतों के चक्कर लगाने होंगे।
अदालतों की सामान्य प्रक्रिया पर लोगों का विश्वास है। चारों तरफ से निराश और हताश व्यक्ति न्याय का दरवाजा खटखटाता है। ऐसे में गैरसरकारी संगठनों की भूमिका भी महत्वपूर्ण हो जाती है कि वे लोगों में अवेयरनेस लाएं और अदालत से बाहर निपटने वाले मामलों को बाहर ही निपटा लें। इसके लिए पूर्व न्यायाधीशों, पूर्व प्रशासनिक अधिकारियों, वरिष्ठ वकीलों व गैरसरकारी संगठनों या सामाजिक कार्यकर्ताओं की टीम बनाई जा सकती है, जो इस तरह के मामलों को समझाईश से सुलझा सके। यदि वकीलों के संगठन भी इस दिशा में पहल करें तो बहुत जल्द सकारात्मक परिणाम प्राप्त हो सकते हैं। माननीय न्यायाधीशों की टिप्पणियां हालात की गंभीरता, चुनौतियां और समस्या के समाधान की दिशा में कदम उठाने को प्रेरित करने वाली हैं।