महाराजा रणजीतसिंह राजसभा में बैठे थे। एक अंग्रेज व्यापारी कांच का फूलदान लाया। उसने कहा, ‘महाराज! आप यह भेंट स्वीकार करें। मेरे पास ऐसी बहुत सामग्री है, आप उसको खरीदें।’ रणजीत सिंह बड़े चतुर थे और सुलझे हुए राजा थे। उन्होंने वह कांच का फूलदान हाथ में लिया और फेंक दिया। कांच का वह फूलदान जमीन पर गिरते ही चूरा-चूरा हो गया। अब उसका मूल्य एक कौड़ी भी नहीं रहा। अंग्रेज देखता रह गया, सब लोग देखते रह गए, सोचा—इतना बढ़िया फूलदान था, महाराज ने यह क्या किया? महाराज ने तत्काल अपना फूलदान उठाया। वह पीतल का बना हुआ था। अपने सेवक से कहा, ‘हथोड़ा लाओ।’ सेवक हथोड़ा ले आया। महाराज ने निर्देश दिया, ‘इस फूलदान को तोड़ो।’ सेवक ने फूलदान को पीट-पीटकर उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिए। महाराजा ने कहा, ‘बाजार में जाओ और दोनों के टुकड़े बेचकर आओ।’ आदमी बाजार में गया। उसे कांच के टुकड़ों का कोई मूल्य नहीं मिला। वह पीतल के टुकड़ों को बेचकर मूल्य ले आया। महाराज बोले, ‘महाशय! हम उस चीज को नहीं चाहते, जो एक झटके में टूट जाए, फूट जाए और अपना मूल्य खो बैठे। हम ऐसी चीजें चाहते हैं, जिसका टूटने पर भी मूल्य समाप्त न हो। पीतल का मूल्य समाप्त कहां होगा? वह बिक जाएगा। हम ऐसी स्थाई वस्तु चाहते हैं, जिसका मूल्य सदा बना रहे।’ इस प्रसंग से हम सीखते सकते हैं कि यदि हमारी एकाग्रता अच्छी बन जाती है, परिकर्म अच्छा हो जाता है तो ध्यान में स्थायित्व आएगा। अन्यथा कांच के फूलदान की तरह टूट-फूट कर वह अपना मूल्य गंवा देगा। ध्यान शिविर में ध्यान किया और घर जाकर भुला दिया तो स्थायित्व नहीं आएगा। भूल जाना ऐसे ही जैसे कांच का बर्तन टूट गया और कौड़ी का न रहा।
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संवाद
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