सरकारी, अर्द्ध सरकारी नौकरियों में अनुसूचित जाति और जनजातियों को आरक्षण के मामले में सर्वोच्च न्यायालय की सात सदस्यीय पीठ ने ऐतिहासिक निर्णय दिया है। इस निर्णय से निश्चित ही हमारे संविधान निर्माताओं द्वारा सामाजिक संतुलन बैठाने के मूल चिंतन को बल मिलेगा। अभी तक यह देखा गया था कि राज्यों में और केंद्र में नौकरियों में आरक्षण के लिए अनुसूचित जाति और जनजातियों के लिए दो पृथक-पृथक सूचियां बनी हुई थीं, जिनमें शामिल विभिन्न जातियों को संपूर्ण रूप से एक समूह समझा जाता था और कोई पृथक से उप-वर्गीकरण नहीं था, जिसके तहत कमजोर और मजबूत उपवर्गों की पहचान करके आरक्षण का विवेकीकरण कर दिया जाता। बहुत पहले बिहार में नीतीश कुमार ने अनूसूचित जातियों को दलित और महादलित में विभाजित करके समानुपातिक आरक्षण की शुरुआत की थी, जिसे पंजाब, तमिलनाडु तथा कर्नाटक में भी जब लागू किया गया तो सर्वोच्च न्यायालय की एक पांच सदस्यीय पीठ ने 2004 में इसे असंवैधानिक घोषित कर दिया था। वर्तमान में अनुसूचित जाति को 15 प्रतिशत तथा अनुसूचित जनजाति को 7.5 प्रतिशत आरक्षण का सरकारी नौकरियों में प्रावधान है।
इस समूचे विषय पर गहनता से गौर किया जाए तो अब तक जो हो रहा था उसमें अधिकांश प्रदेशों में अनुसूचित जातियों में जो बड़े और अपेक्षाकृत ताकतवर तथा संपन्न वर्ग रहे हैं वे कुल निर्धारित आरक्षण का लगभग 70 प्रतिशत भाग हड़प कर जाते थे, जिसका मुख्य कारण था उन्हें अच्छी और उच्च शिक्षा प्राप्त करने की सामर्थ्य तथा राजनैतिक पृष्ठभूमि। इसी को यदि उदाहरण में देखें तो जैसे उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र में दलितों में महार तथा बिहार में पासवान वर्ग वर्षों से आरक्षित कोटे का बड़ा भाग लेते रहे हैं, जिनके मुकाबले बहुत छोटे और साधनविहीन वर्ग यथा डोम, कंजर, धोबी, चर्मकार, वाल्मीकि, मेहतर आदि उपवर्गीय गरीब पीछे छूट जाते थे। यही स्थिति जनजाति वर्ग में है, जहां मीणा, सहरिया, धानका, सोरेन, मुंडा आदि उपवर्ग पूरे आरक्षण कोटे के अधिकांश भाग का उपभोग कर रहे हैं और वास्तविक वनवासी गरीब उपवर्गों तक यह सुविधा पहुंच ही नहीं पायी है।
सर्वोच्च न्यायालय का अभी का निर्णय अब सभी के साथ न्याय करेगा और आरक्षण के वास्तविक उद्देश्य को पूर्णता देने में सहायक सिद्ध होगा। इस निर्णय के साथ न्यायालय ने सरकारों को चेतावनी देते हुए यह भी बंधन बांध दिया है कि जातियों का वर्गीकरण करते वक्त अपर्याप्त प्रतिनिधित्व के आंकड़े सामाजिक व आर्थिक सर्वे के माध्यम से जुटाने होंगे और राजनैतिक नफा नुक्सान के आधार पर जातियों को जोड़ने घटाने का कार्य नहीं किया जाएगा। इसी क्रम में सर्वोच्च न्यायालय के सात में से चार न्यायधीशों ने फैसला दिया है कि अनुसूचित जाति और जनजाति के आरक्षण में भी क्रीमीलेयर का क्लाज रखा जाए जैसा कि अन्य पिछड़ा वर्ग आरक्षण में रखा गया है। चूंकि यह बहुमत का फैसला है अत: राज्य और केंद्र अब इसे अपनाने को बाध्य हैं। अब इस फैसले से संपन्न और साधन युक्त लोग आरक्षण का लाभ नहीं ले सकेंगे और यह लाभ केवल गरीब को ही मिल सकेगा जिसे इसकी सर्वाधिक आवश्यकता है। वर्तमान में अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए क्रीमीलेयर आठ लाख रुपए वार्षिक है।
निश्चित ही न्यायपालिका के इस निर्णय का जहां व्यापक रूप है स्वागत किया जा रहा है वहीं विरोध के स्वर भी उठ खड़े हुए हैं। आरक्षित वर्ग में जो सशक्त उपवर्ग हैं, उनकी तरफ से तथा उनके बल पर राजनीति करने वाले नेताओं/दलों की तरफ से भी इसका विरोध करने की संभावना है। महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश तथा बिहार में अब तक आरक्षण की मलाई अकेले ही खा रहे वर्ग इस निर्णय को सहजता से नहीं स्वीकार पाएंगे तथा कोशिश करेंगे की इन प्रदेशों में इसे लागू नहीं किया जाए। अन्य पिछड़ा वर्ग से जुड़े नेताओं तथा राजनैतिक दलों में भी इसे लेकर बेचैनी होना स्वाभाविक है क्योंकि उन्हें इस बात का डर बना रहेगा कि कालांतर में यह कोटे में कोटा वाला फार्मूला अन्य पिछड़ा वर्ग में भी लागू हो सकता है तब राजस्थान, उत्तरप्रदेश, कर्नाटक, बिहार, गुजरात आदि प्रदेशों में वो बड़ी तथा राजनैतिक रूप से सशक्त ओबीसी जातियां अब तक जिस ओबीसी आरक्षण का बड़ा हिस्सा ले रही थीं उसमें कमी की संभावना बन जायेगी।
बहरहाल राजनैतिक दलों के लिए इस निर्णय का स्वागत करना और इसे लागू करना दोधारी तलवार की तरह हो गया है जहां इन वर्गों के वंचित उप वर्ग खुश होंगे तो दूसरी ओर अब तक बड़ा हिस्सा ले रहे सशक्त वर्ग नाराज हो जाएंगे। कानूनविदों एवं समाजशास्त्री वर्ग की नजरों में यह निर्णय एक स्वागत योग्य कदम है तथा दूरंदेशी भरा है। इसके माध्यम से देश धीमे धीमे एक समतामूलक समाज की तरफ अग्रसर होगा। इसी निर्णय के संदर्भ में पीठ के एक माननीय न्यायाधीश ने अपने निर्णय में इस बात को भी रेखांकित किया है कि यदि किसी वर्ग – उपवर्ग में आरक्षण लाभ लेने वाली एक पीढ़ी को आरक्षण मिल गया है तो उसकी अगली पीढ़ी को यह लाभ नहीं मिले। यह एक क्रांतिकारी निर्णय/आब्जर्वेशन/ परामर्श है जिस पर उम्मीद है कभी ना कभी संसद में भी विचार विमर्श तथा निर्णय होगा।