उन्होंने पाठकों को तंग करने को बहुत लिखा। उनको उनसे खुश होते सबने बहुत पढ़ा। उनको लगता था कि उनके लिखने से उनको एक न एक दिन कोई न कोई पुरस्कार जरुर मिल जाएगा। उनको लगता था कि उनको पढ़ने से एक दिन उनको कोई न कोई पुरस्कार अवश्य मिल जाएगा। पर वे गलत थे, उनकी सोच गलत थी। गलत सोच के जीव बहुधा सही सोचते हैं। पर उनका सोचा न हुआ। वे लिखते गए, पुरस्कार किसी और को मिलते गए। हरबार पुरस्कार को लेकर हल्ला उनका पड़ता रहा तो पुरस्कारों से गल्ला उनका भरता रहा। उनके हिस्से में लिखना आया तो दूसरों के हिस्सों में पुरस्कार।
जब वे लिख लिख कर थक गए तो वे पुरस्कारहीन, पुरस्कारविहीन कल मुझसे मिले तो मैंने उनसे यों ही पूछ लिया अपना मन रखने के लिए, ‘और बंधु! अब क्या नया लिखने की सोच रहे हो?’ तो वे बोले,‘कुछ खास बकवास नहीं। पर बंधु! बेहूदा ऐसा क्यों होता है कि कुछ लिखते रहते हैं तो कुछ कदम कदम पर पुरस्कृत होते रहते हैं?’ मैं साहित्यिक नासमझ भी आज उनके मन की व्यथा समझ गया तो उन्हें सांत्वना देते बोला।
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वैसे भी आज आम से लेकर खास आदमी के पास दूसरों को देने को केवल सांत्वना ही तो शेष बची है,‘सबकी अपनी अपनी किस्मत है बंधु! कुछ इस दुनिया में केवल कागज कारे करने आते हैं तो कुछ केवल पुरस्कृत होने।’
‘मतलब?’
‘मतलब यही कि…. अच्छा तो लेखक! सच सच बतलाना! तुम भी क्या मन से पुरस्कृत होना चाहते हो? वैसे जितनी कि मेरी समझ है, पुरस्कृत होना बेहतर लेखन की गारंटी नहीं होती। पुरस्कार और बेहतर लेखन दोनों अलग अलग बातें हैं।’‘मतलब?’
अब आगे मेरे पास उनके मतलब का सामना करने की हिम्मत शेष न थी सो उनसे कहा,‘अच्छा तो चलो, तुम भी जो पुरस्कृत होना ही चाहते हो तो आज मैं तुम्हें…’ और मैं उनको नंगे पांव ही चर्चित पुरस्कार गुरु के पास ले गया। ज्यों ही मैं बदहवास उनको लेकर पुरस्कार गुरु के पास पहुंचा तो पुरस्कार गुरु उस वक्त अपने चरणों में लोटे लेटे एक पुरस्कार लिपटासु को पुरस्कार का रोडमैप समझाने में व्यस्त थे। मैंने बीच में ही डियर का पुरस्कार गुरु से परिचय करवाया तो गुरु ने शांत मुद्रा में कहा,‘हे पुरस्कार पिपासु! डरो मत। सच्चे लेखक हो तो न निराश करो मन को।’
‘हे पुरस्कार गुरु! ये भी अब पुरस्कृत होना चाहते हैं। लिखते लिखते पुरस्कारी हारों का सामना करते करते बुरी तरह से टूट चुके हैं। बहुत लिख चुके हैं, पर मच्छर भर पुरस्कार तक इनको कहीं से नहीं मिला।’
‘कोई बात नहीं। पुरस्कार लिखने से थोड़े ही मिल जाया करते हैं दोस्त? सार्थक लिखने के बाद भी पुरस्कार पाने को बहुत कुछ करना पड़ता है। ‘वत्स! लिखने वालों को जो सच्ची को पुरस्कार मिल जाया करते तो आज ….यहां पुरस्कार बेहतर करने वालों को नहीं, चरणों में लेटने लोटने वालों को मिलते हैं।
पुरस्कारों के पीछे मेहनत नहीं, तय रणनीति होती है। गुटबाजी होती है, पार्टीगत नीति होती है। पुरस्कार पाने को लिखना उतना जरुरी नहीं जितना गोटियां फिट करना होता है। मेरे पास पुरस्कार पाने का भृगुसंहिता से भी प्राचीन रोडमैप है। इस रोडमैप पर चल कुछ ने तो आधी पौनी रचनाएं लिख ही दर्जनों पुरस्कार प्राप्त कर लिए हैं।
और हां! उनको तो जानते ही हो न? जिनको पिछले महीने ही भैरवश्री साहित्य सम्मान मिला है। वे भी पुरस्कार पाने का रोडमैप मुझसे ही ले गए थे। और उन्हें मिल भी गया। वही नहीं, और भी सैकड़ों को अपने पुरस्कार पाने वाले रोडमैप के रोड पर चला पुरस्कार दिलवा चुका हूं।
देखो! यही कड़वा सच है कि आज तो रोड भी बिन रोडमैप के नहीं चलता। आज चलने के लिए रोड नहीं, रोडमैप जरुरी है। गए वे दिन जब रोड सम्मान तक पहुंचाते थे। जिसके पास पुरस्कार पाने का रोडमैप होता है वह रोड न होने के बाद भी उस रोडमैप के सहारे पुरस्कार तक बड़े आराम से पहुंच जाता है। अभी जरा व्यस्त हूं, कल ठीक तीन बजे आना।
पुरस्कारों की मारों से सामना करने वाले को ऐसा जीत का रोडमैप दूंगा कि…. ऐसा जीत का रोडमैप दूंगा कि….’ और फिर वे अपने पास लेटे को पुरस्कार हथियाने का रोडमैप बताने समझाने में व्यस्त हो गए।
हम दोनों गदगद हो जिस पिछले रास्ते से उनसे पुरस्कार का रोडमैप लेने आए थे, उसी पिछले रास्ते से बाहर हो लिए नाचते गाते एक दूसरे को चाटते हुए।
अशोक गौतम