हाल ही में उप्र के लोक निर्माण विभाग अर्थात पीडब्लूडी ने राज्य के हर जिले को इस बात की अनुमानित लागत भेजने को कहा है, जिससे राज्यभर की सड़कों को गड्ढा मुक्त किया जा सके। इससे पहले आठ जुलाई को केंद्र सरकार के सड़क परिवहन मंत्रालय ने पूरे देश की राज्य सरकारों को सड़क से गड्ढों को पूरी तरह मिटाने के निर्देश दिए थे। उत्तर प्रदेश में तो हर साल हर जिले में ऐसे अभियान चलते हैं व औसतन पचास करोड़ प्रति जिले की दर से खर्च होते हैं। एक बरसात के बाद ही पुराने गड्ढे नए आकार में सड़क पर बिछे दिखते हैं। राजधानी दिल्ली हो या फिर दूरस्थ गांवों तक, आम आदमी इस बात से सदैव नाराज मिलता है कि उसके यहां की सड़क टूटी है, संकरी है, या काम की ही नहीं है। लेकिन समाज कभी नहीं समझता कि सड़कों की दुर्गति करने में उसकी भी भूमिका कम नहीं है। अब देशभर में बाईस लाख करोड़ खर्च कर सड़कों का जाल बिछाया जा रहा है। श्वेत क्रांति व हरित क्रांति के बाद अब देश सड़क-क्रांति की ओर अग्रसर है। चालू वित्त वर्ष में केंद्र ने विभिन्न राज्यों को केंद्रीय सड़क फंड के 7000 करोड़ रुपये दिए हैं, जिसमें सर्वाधिक उत्तर प्रदेश को 616.29 करोड़ मिला है। इतनी बड़ी राशि खर्च कर तैयार सड़कों का रखरखाव भी महंगा होगा।
इतनी बड़ी राशि से नई सड़क बनने के साथ पुरानी सड़कों का रखरखाव व मरम्मत अनिवार्य कार्य होता है। पर्यटन नगरी आगरा में पिछले साल अक्तूबर में ढाई करोड़ से सारे शहर को गड्ढा मुक्त बनाया जाना था, जनवरी की बरसात में ही भरे गए गड्ढे और बड़े हो कर उभरे।
अमेठी में शारदा सहायक 28 से जौनपुर तक की 41 किमी सड़क को पांच करोड़, 10 लाख 88 हजार और 650 रुपये खर्च कर गड्ढा मुक्त का प्रचार होने के तीन महीने बाद ही पूरी सड़क की गड्ढा बन गई। लखनऊ में कई सड़कें बजट की कमी के चलते बरसात में गहरे तालाब में तब्दील हो जाती हैं।
यह बानगी है कि किस तरह सड़क मरम्मत का कार्य कोताही और कमाई की देन चढ़ जाता है। जान लें अकेले उत्तर प्रदेश में पीडब्लूडी की 2.70 लाख किमी सड़कें हैं, जिनमें सबसे ज्यादा दुर्गति ग्रामीण सड़कों की है जिनकी लंबाई 1,18,135 किमी है।
यह तो महज एक राज्य की आंकड़ा है। अंदाज लगा लें कि पूरे देश में हर साल सड़कें ठीक करने व उन्हें बर्बाद करने का कितना बड़ा खेल चलता है।
सड़कों पर इतना खर्च हो रहा है, इसके बावजूद सड़कों को निरापद रखना मुश्किल है। दिल्ली से मेरठ के सोलह सौ करोड़ के एक्सप्रेस वे का पहली ही बरसात में जगह-जगह धंस जाना व दिल्ली महानगर के उसके हिस्से में जलभराव बानगी है कि सड़कों के निर्माण में नौसिखियों व ताकतवर नेताओं की मौजूदगी कमजोर सड़क की नींव खोेद देती है।
यह विडंबना है कि देशभर में सड़क बनाते समय उसके सुपरविजन का काम कभी कोई तकनीकी विशेषज्ञ नहीं करता है। सड़क ढालने की मशीन के चालक व एक मुंशी, सड़क बना डालता है। यदि कुछ विरले मामलों को छोड़ दिया जाए तो सड़क बनाते समय डाले जाने वाले बोल्डर, रोड़ी, मुरम की सही मात्रा कभी नहीं डाली जाती है।
शहरों में तो सड़क किनारे वाली मिट्टी उठा कर ही पत्थरों को दबा दिया जाता है। कच्ची सड़क पर वेक्यूम सकर से पूरी मिट्टी साफ कर ही तारकोल डाला जाना चाहिए, क्योंकि मिट्टी पर गरम तारकोल वैसे तो चिपक जाता है, लेकिन वजनी वाहन चलने पर वहीं से उधड़ जाता है।
इस तरह के वेक्यूम-सकर से कच्ची सड़क की सफाई कहीं भी नहीं होती है। हालांकि इसे बिल जरूर फाइलों में होते हैं। इसी तरह सड़क बनाने से पहले पक्की सड़क के दोनों ओर कच्चे में मजबूत खरंजा तारकोल या सीमेंट को फैलने से रोकता है।
इसमें रोड़ी मिल कर खड़ंजे के दबाव में सांचे सी ढ़ल जाती है। आमतौर पर ऐसे खड़ंजे कागजों में ही सिमटे होते हैं, कहीं ईटें बिछाई भी जाती हैं तो उन्हें मुरम या सीमेंट से जोड़ने की जगह महज वहां से खोदी मिट्टी पर टिका दिया जाता है।
इससे थोड़ा पानी पड़ने पर ही ईटें ढीली हो कर उखड़ आती हैं। यहां से तारकोल व रोड़ी के फैलाव व फटाव की शुरुआत होती है।
सड़क का ढलाव ठीक न होना भी सड़क कटने का बड़ा कारण है। सड़क बीच में से उठी हुई व सिरों पर दबी होना चाहिए, ताकि उस पर पानी पड़ते ही किनारों की ओर बह जाए। लेकिन शहरी सड़कों का तो कोई लेबल ही नहीं होता है।
बारिश का पानी यहां-वहां बेतरतीब जमा होता है और पानी सड़क का सबसे बड़ा दुश्मन है। नालियों का बह कर आया पानी सड़क के किनारों को काटता रहता है। एक बार सड़क कटी तो वहां से गिट्टी, बोल्डर का निकलना रुकता नहीं है।
सड़कों की दुर्गति में हमारे देश का उत्सव-धर्मी चरित्र भी कम दोषी नहीं है। महानगरों से ले कर सुदूर गांवों तक घर में शादी हो या राजनैतिक जलसा; सड़क के बीचों-बीच टैंट लगाने में कोई रोक नहीं होती और इसके लिए सड़कों पर चार-छह इंच गोलाई व एक फीट गहराई के कई छेद करे जाते हैं।
बाद में इन्हें बंद करना कोई याद रखता नहीं। इन छेदों में पानी भरता है और सड़क गहरे तक कटती चली जाती है। नल, टेलीफोन, सीवर, पाईप गैस जैसे कामों के लिए सरकारी मकहमे भी सड़क को चीरने में कतई दया नहीं दिखाते हैं।
सरकारी कानून के मुताबिक इस तरह सड़क को नुकसान पहुंचाने से पहले संबंधित महकमा स्थानीय प्रशासन के पास सड़क की मरम्मत के लिए पैसा जमा करवाता है। नया मकान बनाने या मरम्मत करवाने के लिए सड़क पर ईटें, रेत व लोहे का भंडार करना भी सड़क की आयु घटाता है।
कालोनियों में भी पानी की मुख्य लाइन का पाइप एक तरफ ही होता है, यानी जब दूसरी ओर के बाशिंदे को अपने घर तक पाइप लाना है तो उसे सड़क खोदना ही होगा। एक बार खुदी सड़क की मरम्मत लगभग नामुमकिन होती है।
सड़क पर घटिया वाहनों का संचालन भी उसका बड़ा दुश्मन है। यह दुनिया में शायद भारत में ही देखने को मिलेगा कि सरकारी बसें हों या फिर डग्गामारी करती जीपें, निर्धारित से दुगनी तक सवारी भरने पर रोक के कानून महज पैसा कमाने का जरिया मात्र हाते हैं।
ओवरलोड वाहन, खराब टायर, दोयम दर्जे का ईधन ये सभी बातें भी सरकार के चिकनी रोड के सपने को साकार होने में बाधाएं हैं। सवाल यह खड़ा होता है कि सड़क-संस्कार सिखाएगा कौन? ये संस्कार सड़क निर्माण में लगे महकमों को भी सीखने होंगे और उसकी योजना बनाने वाले इंजीनियरों को भी।
संस्कार से सज्जित होने की जरूरत सड़क पर चलने वालों को भी है और यातायात व्यवस्था को ठीक तरह से चलाने के जिम्मेदार लोगों को भी। वैसे तो यह समाज व सरकार दोनों की साझा जिम्मेदारी है कि सड़क को साफ, सुंदर और सपाट रखा जाए। लेकिन हालात देख कर लगता है कि कड़े कानूनों के बगैर यह संस्कार आने से रहे।