Friday, May 9, 2025
- Advertisement -

सामयिक: शहादातों के बाद भी जज्बा कायम

कृष्ण प्रताप सिंह
कृष्ण प्रताप सिंह
हालात को देखते हुए इन दिनों देश के प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और कृषिमंत्री तीनों की सबसे बड़ी चिंता किसानों के आंदोलन से जुड़ी होनी चाहिए थी। लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं है, जबकि आंदोलनकारी किसान 26 दिनों से हाड़ कंपाती ठंड के बीच राजधानी की सीमा पर सड़कों पर दिन-रात बिता रहे हैं। यकीनन, सरकार के ही कारण। क्योंकि उसने कृषि सुधारों के नाम पर बिना कोई सलाह-मशवरा किए जो तीन नए कानून बना रखे हैं और जिन्हें किसान अपने डेथवारंट के तौर पर देख रहे हैं, कुछ मामूली संशोधनों को छोड़ दें तो उनके खिलाफ कुछ भी सुनना उसे गवारा नहीं। पिछले दिनों किसानों ने इन कानूनों के खिलाफ अपने एतराज जताने के लिए राजधानी आने का इरादा जताया तो उससे उन्हें प्रवेश की अनुमति देना भी गवारा नहीं हुआ। तब से तीस साथियों की शहादत के बावजूद आंदोलित किसानों का संकल्प अपनी जगह पर कायम है कि जब तक सरकार उनकी सुन नहीं लेगी, वापस नहीं जाएंगे।
लेकिन विडम्बना देखिए कि सरकार और उनके समर्थकों ने पहले तो उन पर ढेर सारी तोहमतें लगार्इं (अभी भी लगा ही रहे हैं। भले ही सरकार सर्वोच्च न्यायालय को बता चुकी है कि आंदोलन भारतीय किसान यूनियन चला रही है), फिर किसी तरह वार्ता भी शुरू की तो अड़ियल रवैया अपनाकर उसे गतिरोध की शिकार हो जाने दिया। इतना ही नहीं, सर्वोच्च न्यायालय में इस दलील तक चली गई कि किसान राजधानी के मार्ग अवरुद्ध कर और उसे बंदी बनाकर अपनी मांगें नहीं मनवा सकते। न्यायालय ने याद दिलाया कि किसानों को राजधानी न आने देकर मार्ग अवरुद्ध करने का सिलसिला तो खुद सरकार ने ही शुरू किया था, साथ ही किसानों के विरोध प्रदर्शन के अधिकार में दखल देने से मना कर दिया और पूछा कि क्या उनसे वार्ता तक विवादित कानूनों पर अमल रोका जा सकता है, तो भी सरकार ने नहीं में ही जवाब दिया।
और अब, बार-बार किसानों को भ्रमित बताकर उनके जले पर नमक छिड़कने का सिलसिला जारी रखते हुए सरकार विवादित कृषि कानूनों को किसी भी सूरत में वापस न लेने की रट लगाए हुए है, जबकि प्रधानमंत्री अलग-अलग मंचों से उनकी तारीफ के पुल बांध और बता रहे हैं कि कैसे ये कानून किसानों के हक में हैं। वे यह समझने को भी तैयार नहीं कि किसानों का उद्वेलन इस हद तक पहुंच चुका है कि वे कह रहे हैं कि अगर सरकार इसी तरह उनका भला कर सकती है तो मेहरबानी होगी कि वह यह भला न ही करे।
सोचिए जरा, किसानों का आंदोलन राजधानी की सीमा पर हो रहा है, जो प्रधानमंत्री के घर व दफ्तर से कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर है। इन हालात में वे चाहते तो अब तक कब का उनके पास जाकर सीधे उनसे बात करते और उनकी मांगों के प्रति लचीला रुख अपनाकर उन्हें वापस भेज देते। लेकिन ऐसा करने के बजाय वे मध्य प्रदेश के किसानों को संबोधित कर मीडिया की सुर्खियां प्रायोजित कर रहे हैं और उस विपक्ष पर किसान आंदोलन भड़काने के आरोप लगा रहे हैं, जो लगातार चुनावी शिकस्तों से इस कदर लस्त-पस्त हो चुका है कि अपनी कमर भी सीधी नहीं कर रहा। किसान भी उसे, यहां तक कि उसके बिना मांगे मिले समर्थन को भी भाव नहीं दे रहे। उन्होंने प्रधानमंत्री को लिखी चिट्ठी में भी साफ कर दिया है कि उनके आंदोलन का सत्तापक्ष या विपक्ष किसी से कोई वास्ता नहीं है। फिर भी प्रधानमंत्री की बेरुखी देखिये, वे गुरुद्वारे जाकर वहां माथा टेकते हुए गुरु तेगबहादुर की शहादत को नमन करते हैं तो भी आंदोलन में जानें गंवाने वाले 30 किसानों के प्रति उनके मुंह से एक शब्द नहीं निकलता। उन लोगों को बरजने के लिए भी नहीं, जो किसानों को कभी खालिस्तानी कह देते हैं, कभी नक्सल, तो कभी देशद्रोही। उनकी सरकार को तो यह समझने से भी परहेज है कि जब तक वह लोकल्याणकारी होने का दावा करती है, इन किसानों को लेकर दायित्वविमुख नहीं हो सकती।
छोटे मियां तो छोटे मियां, बड़े मियां सुभानअल्लाह की कहावत को चरितार्थ करते हुए कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर किसानों को नया वार्ता प्रस्ताव भिजवाकर यह कहते हुए हाथ पर हाथ धरकर बैठ गए हैं कि किसान संगठन जब भी उन्हें वार्ता करनी होगी, बता देंगे। हां, इस बीच नए-नए सरकार समर्थक किसान संगठनों को, जिनमें से कई का पहले नाम तक नहीं सुना गया, आगे लाकर यह जताने में कोई कोर-कसर नहीं रख रहे कि बड़ी संख्या में किसान सरकार के साथ हैं।
उन्हीं की तरह गृहमंत्री अमित शाह ने न सिर्फ किसानों के आंदोलन बल्कि उनकी समस्याओं की ओर से भी मुंह फेरकर खुद को पश्चिम बंगाल के अगले साल होने वाले सत्ता-संग्राम की तैयारियों में व्यस्त कर लिया है। साफ है कि उन्हें हर हाल में चुनावी जीत ही अभीष्ट है। भले ही वह आंदोलित किसानों के हितों की कीमत पर ही क्यों न मिले। इसीलिए वे किसान आंदोलन की उपेक्षाकर पिछले दस सालों से तृण मूल कांग्रेस की सत्ता के साक्षी इस प्रदेश को, जो कभी वामदलों का गढ़ हुआ करता था, अपने गढ़ में परिवर्तित करने के लिए साम दाम दंड व भेद सब बरत रहे हैं। राज्य के गत विधानसभा और लोकसभा चुनावों में पैर जमाने भर को सफलता मिल जाने से उनके हौसले बुलंद हैं और नहीं भी बुलंद हैं तो रणनीति के तौर पर वे ऐसा जता रहे हैं। ताकि लोगों में इसका भ्रम फैला रहे और वक्त पर उनके काम आए।
अभी यह भविष्य के गर्भ में है कि पश्चिम बंगाल उनकी कवायदों और ‘सोनार बांग्ला’ बनाने जैसी दर्पोक्तियों में फंसकर अपना हाल राजधानी को घेरे बैठे किसानों जैसा करा लेगा या अपने और साथ ही भाजपा के अतीत से सबक लेकर कोई और विकल्प आजमाएगा, लेकिन वे, जाहिर है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सहमति से, जिस तरह किसानों की अनसुनी करते हुए पश्चिम बंगाल को राजनीति का हॉट-स्पॉट बनाने में लगे हैं, उससे उनकी और साथ ही उनकी पार्टी व सरकार की भी, यह बदनीयती पूरी तरह बेपरदा हो गई है कि वे देशवासियों को हमेशा मतदाताओं के रूप में ही देखते हैं। इसलिए जिनके वोट लेने होते हैं, उन्हें तमाम सब्जबाग दिखाते हैं और जो वोट दे चुके होते हैं, उनकी तब तक बेकदरी करते रहते हैं, जब तक फिर उनसे वोट लेने की घड़ी न आ जाए।
अन्यथा अपनी बारी पर वोट तो आंदोलनकारी किसानों ने भी दिया ही था, जिनसे एक दो दिन में वार्ता शुरू होने की बात ऐसे कही जा रही है, जैसे वे राजधानी की सीमाओं पर पिकनिक मना रहे हैं और बहुत मजे में हैं।

janwani feature desk sanvad photo
spot_imgspot_img

Subscribe

Related articles

spot_imgspot_img