Sunday, June 1, 2025
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चुनाव नतीजों में छिपे भविष्य के संकेत

SAMVAD 4


RAJESH MAHESHWARIपांच राज्यों के विधानसभा चुनाव 2 मई को मतगणना के साथ संपन्न हो गए। एग्जिट पोल में जो नतीजे बताए जा रहे थे, लगभग वैसे ही आखिरी नतीजे भी सामने आए। पांच राज्यों के चुनाव नतीजों को क्या भविष्य का कोई संकेत माना जा सकता है, ये बड़ा सवाल है? पांच राज्यों में सबसे अधिक चर्चा पश्चिम बंगाल की रही। भाजपा ने अपनी अधिकतम ताकत पश्चिम बंगाल को फतह करने में लगा दी थी। वो अलग बात है कि उसके विधायकों की संख्या बढ़ गई। ममता बनर्जी हालांकि स्वयं नंदीग्राम से चुनाव हार गर्इं, पर उनकी पार्टी तीसरी बार अच्छे बहुमत के साथ सत्ता हासिल करने में कामयाब रही। वही तमिलनाडु में पहली बार बड़े कद्दावर राजनेताओं की अनुपस्थिति में लड़े गए चुनाव में स्टालिन को करुणानिधि की विरासत का लाभ मिला। एआईएडीएमके में वर्चस्व की लड़ाई मतदाताओं में विश्वास जगाने में विफल रही। असम में भाजपा की प्रभावी जीत में जहां पार्टी संगठन और रणनीति का योगदान मिला, वहीं स्थानीय मजबूत क्षत्रपों ने उसमें बड़ी भूमिका निभायी। पश्चिम बंगाल के चुनाव परिणाम देश की राजनीति का नए सिरे से धु्रवीकरण करेंगे। वामपंथी और कांग्रेस इस चुनाव में पूरी तरह साफ हो गए। अब सवाल यह पैदा होता है कि यदि कोई मोर्चा अगले लोकसभा चुनाव के लिए बनता है तो ममता बनर्जी उस मोर्चा की अगुआ बनने का स्वाभाविक दावा पेश करेंगी।

क्या कांग्रेस और अन्य विपक्षी दल ममता बनर्जी का नेतृत्व स्वीकार पाएंगे। पश्चिम बंगाल की जनता ने जो फैसला विधानसभा चुनाव में दिया है, वह सूझ-बूझ वाला कहा जाएगा। एक ओर जनता ने केंद्र सरकार की नीतियों पर विचार किया और उसे सरकार नहीं सौंपी पर 77 विधानसभा सीट देकर सरकार को अपनी नीतियां जनहितैषी रखने का संदेश दिया। वहीं नंदीग्राम में ममता बनर्जी को हराकर और 200 से ऊपर सीट टीएमसी के खाते में जमा करके जनता ने सत्ता की चाबी फिर से तो सौंपी पर यह संदेश भी दिया कि अहम की राजनीति त्यागने से ही पश्चिम बंगाल का भला होने वाला है। विधानसभा चुनाव में पश्चिम बंगाल की जनता ने डीजल, पेट्रोल के बढ़े दाम समेत कोरोना काल में दवाओं के अकाल, आॅक्सीजन की कमी और सबसे महत्वपूर्ण आक्रामक रवैया अपना रही भाजपा द्वारा लांघी गई संसदीय मर्यादा की सीमा के लिए भाजपा को सत्ता से दूर रखा।

वहीं पश्चिम बंगाल की जनता ने ‘तोलाबाजी’, ‘कटमनी’ और ‘भ्रष्ट भाईपो’ सरीखे गंभीर आरोपों को भी नकार दिया। ‘दीदी’ के जिस व्यंग्यात्मक संबोधन से प्रधानमंत्री को मुगालता हुआ होगा कि ममता को चुनाव में परास्त किया जा सकता है, बंगाली जनता ने उस संबोधन को नया रूप दिया-‘दीदी गई नहीं, दीदी ही आई।’
देखा जाए तो ममता बनर्जी से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी नेता अमित शाह को बिलकुल वैसी ही शिकस्त मिली है, जैसी 2015 के बिहार चुनाव में नीतीश कुमार ने लालू प्रसाद यादव से हाथ मिलाकर दी थी। लेकिन जैसे बिहार की हार का मोदी-शाह की सेहत पर कोई खास फर्क नहीं पड़ा, वैसे ही बंगाल की हार से भी बहुत फर्क नहीं पड़ने वाला है। तब तो मार्गदर्शक मंडल से भी कुछ आवाजें उठी थीं, लेकिन अब तो वे भी बेजान पड़ी हैं। 2015 की जीत के बाद नीतीश कुमार की हैसियत जरूर बढ़ गई थी और ठीक वैसे ही ममता बनर्जी की भी बढ़ सकती है लेकिन अगले आम चुनाव में अभी तीन साल का लंबा वक्त है और बीजेपी के पास अकेले भी पूरा बहुमत है।

ऐसे में ममता बनर्जी सिवा अपनी किसी तैयारी के मोदी-शाह को तो कहीं से कोई भी नुकसान नहीं पहुंचा सकती हैं। बीजेपी के भीतर भी ऐसी कोई चुनौती कहीं नजर नहीं आती जो मोदी-शाह के वर्चस्व के लिए किसी तरह की मुश्किल खड़ा करने वाली हो। बंगाल जीत लेने की बात और होती, लेकिन आरएसएस को भी मोदी-शाह से कोई खास शिकायत नहीं होने वाली है, क्योंकि अयोध्या में राम मंदिर निर्माण तो चल ही रहा है। काशी और मथुरा को लेकर अभी कोई खास प्रयोजन भी नहीं लगता। धारा 370 और तीन तलाक जैसे मामले निपट ही चुके हैं और अगले साल जहां-जहां भी चुनाव होने वाले हैं वहां तक ममता बनर्जी की जीत भी कोई असर नहीं होने वाला है और न ही ममता बनर्जी उन चुनावों को किसी भी तरीके से प्रभावित करने की स्थिति में हैं। वहीं ममता विपक्ष का सर्वमान्य चेहरा बन पाएगी इसकी संभावना न के बराबर ही है। ममता की तुनकमिजाजी किसी से छिपी नहीं है। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से उनका मन मुटाव जग जाहिर है। लगता नहीं कि राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस ममता को भाव देगी।

राष्ट्रीय स्तर पर ममता को पहली चुनौती तो राहुल गांधी से ही मिलेगी, भले ही झारखंड के बाद के सारे विधानसभा चुनाव कांग्रेस हारती आ रही हो। कांग्रेस भी राहुल गांधी के लिए अब ममता बनर्जी को वैसे ही लेगी जैसे छह साल पहले वो नीतीश कुमार के नाम पर बिफर उठती थी। दक्षिण में एक राज्य में भाजपा एनडीए की शीर्ष बनकर सरकार चलाएगी तो तमिलनाडु में चार विधानसभा सीट जीतने के बाद द्रविड राजनीति वाले इस राज्य में भाजपा को अपने पैर जमाने का अवसर मिल गया है।

कुल मिलाकर केंद्र की राजनीति पर पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजे ज्यादा असर डालते नहीं दिखते। विपक्ष के पास कोई सर्वमान्य नेता नहीं है। कुल मिलाकर ये देखना अहम होगा कि विपक्ष के राजनीतिक दल इन चुनाव नतीजों को राष्ट्रीय स्तर पर किस प्रकार अपने पक्ष में माहौल बनाने के लिए उपयोग कर पाते हैं। राजनीति संभावनाओं का नाम है।


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