Monday, July 1, 2024
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लघु पत्रिकाओं का वो सुखद दौर

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RAVIWANI


Shalander Chauhan 1हिंदी साहित्य के बहुत सारे विवाद, आंदोलन, प्रवृत्तियों को निर्धारित करने वाली सामग्री और महान रचनायें इन लघु-पत्रिकाओं के पुराने अंकों में समाई हुई हैं। इनमें से बहुत सारी सामग्री कभी पुनर्मुद्रित नहीं हुई। साहित्य के गंभीर पाठकों एवं शोधार्थियों के लिए इनका ऐतिहासिक महत्व है। आज का समय बहुत जटिलता लिए हुए है, यह सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक संक्रमण का समय है। अब भी इस डिजिटल और सोशल मीडिया वाले दौर में कुछ लघु पत्रिकाएं हैं जो सामाजिक व राजनीतिक जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हुए साहित्यिक चेतना जगाने का काम कर रही हैं। यह सुखद है। लघु पत्रिका (लिटिल मैगजीन) आंदोलन मुख्य रूप से पश्चिम में प्रतिरोध (प्रोटेस्ट) के औजार के रूप में शुरू हुआ था। यह फ्रांस के रेसिस्टेंस ग्रुप से प्रेरित था। यह प्रतिरोध राज्य सत्ता, उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद या धार्मिक वर्चस्ववादझ्र किसी के भी विरुद्ध हो सकता था। लिटिल मैगजीन आन्दोलन की विशेषता उससे जुड़े लोगों की प्रतिबद्धता तथा सीमित आर्थिक संसाधनों में तलाशी जा सकती थी। अक्सर बिना किसी बडे औद्योगिक घराने की मदद लिए, किसी व्यक्तिगत अथवा छोटे सामूहिक प्रयासों के परिणाम स्वरूप निकलने वाली ये पत्रिकायें अपने समय के महत्वपूर्ण लेखकों को छापती रही हैं।

भारत में भी सामाजिक चेतना के बढने के साथ-साथ बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में लघु पत्रिकाएं प्रारम्भ हुर्इं। 1950 से लेकर 1980 तक का दौर हिंदी की लघु पत्रिकाओं के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण रहा। यह वह दौर था जब नई-नई मिली आजादी से मोह भंग शुरू हुआ था और बहुत बडी संख्या में लोग विश्वास करने लगे थे कि बेहतर समाज बनाने में साहित्य की निर्णायक भूमिका हो सकती है।

हिंदी में साहित्यिक पत्रिकाओं का लंबा और समृद्घ इतिहास रहा है। दरअसल हिंदी में लघु पत्रिका आंदोलन की शुरुआत छठे दशक में व्यवसायिक पत्रिका के जवाब के रूप में की गई। इस आंदोलन का श्रेय हम हिंदी के वरिष्ठ कवि विष्णुचंद्र शर्मा को दे सकते हैं। उन्होंने 1957 में बनारस से ‘कवि’ का संपादन-प्रकाशन शुरू किया था। कालांतर में और भी कई लघु पत्रिकाएं व्यक्तिगत प्रयासों और प्रकाशन संस्थानों से निकली, जिसने हिंदी साहित्य की तमाम विधाओं को न केवल समृद्ध किया, बल्कि उसका विकास भी किया।

बेनेट कोलमैन एंड कम्पनी तथा हिन्दुस्तान टाइम्स लिमिटेड की पत्रिकाओं-धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, सारिका, कादम्बनी, दिनमान, और माधुरी जैसी बड़ी पूंजी से निकलने वाली पत्रिकाओं के मुकाबले अणिमा, कहानी, नई कहानियां, कल्पना, लहर, वातायन, बिन्दु, क्यों, तटस्थ, वाम, उत्तरार्ध, आरम्भ, ध्वज भंग, सिर्फ, हाथ, कथा, आलोचना, कृति, क ख ग, माध्यम, वसुधा ऐसी पत्रिकाएं, बडे प्रतिष्ठानों से नहीं, बल्कि लेखकों के व्यक्तिगत, निजी प्रयत्नों से छोटे पैमाने पर निकलीं।

उस वक़्त ऐसी पत्रिकाओं की जैसे झड़ी ही लग गई: समझ, आवेग, सनीचर, अकविता, पहल, आकंठ, इबारत, जारी, जमीन, आइना, कंक, अब, आमुख, तेवर, धरातल, आवेश, आवेग, धरती, वयं, संबोधन, संप्रेषण जैसी पत्रिकायें निकलीं जो सीमित संसाधनों, व्यक्तिगत प्रयासों या लेखक संगठनों की देन थीं। इन पत्रिकाओं का मुख्य स्वर साम्राज्यवाद विरोध था और ये शोषण, धार्मिक कठमुल्लापन, लैंगिक असमानता, जैसी प्रवृत्तियों के विरुद्ध खड़ी दिखायीं देतीं थीं।

एक समय तो ऐसा भी आया जब मुख्य धारा के बहुत से लेखकों ने पारिश्रमिक का मोह छोड़कर बड़ी पत्रिकाओं के लिए लिखना बंद कर दिया और वे केवल इन लघु पत्रिकाओं के लिए ही लिखते रहे। बडेÞ घरानों की पत्रिकाओं में छपना शर्म की बात समझा जाता था और लघु पत्रिकाओं में छपने का मतलब साहित्यिक समाज की स्वीकृति की गारंटी होता था। इन्होंने रचनाशीलता का एक अलग ही माहौल बनाया। इनमें से ज्यादातर में दृष्टि थी, रचना-विवेक था और इन्हें लेखकों का अकुण्ठित सहयोग प्राप्त था।

लघु पत्रिकाएं घटनाओं की जड़ तक पहुंचकर सच्चाई को उजागर करने का काम कर रही थीं। इनसे एक ओर जहां नवलेखन पल्लवित होता है, वहीं सामान्यजन की आशा-आकांक्षओं को अभिव्यक्ति मिलती है। लोग पारिश्रमिक देने वाली और लेखक को स्टार बनाने वाली पत्रिकाओं में छपने की जगह इनमें छपना गौरव की बात समझते थे। सारी बड़ी बहसें इन्हें छोटी पत्रिकाओं में चली हैं। आज जो भी लिखा जा रहा है उसके प्रकाशन का मंच यही पत्रिकाएं हैं। लेकिन इन लघु-पत्रिकाओं की सीमा भी है।

  • प्रसार बहुत कम। (वैसे, अगर संतोष करना चाहें तो यह तथ्य कि टाइम्स लिटरेरी सप्लीमेण्ट और न्यूयॉर्क रिव्यू आॅफ बुक्स की बी 7-8 हजार प्रतियां ही छपती हैं)।
  • संपादकीय दृष्टि का अभाव
  • रचनाओं का अभाव
  • संपादक की महत्वाकांक्षा
  • व्यवसायिक/आर्थिक विवशताएं

आज राष्ट्रीय एवं ग्लोबल कारणों से न तो लघु-पत्रिकाएं निकालने वालों के मन में पुराना जोश बाकी है और न ही उनमें छपना पहले जैसी विशिष्टता का अहसास कराता है। फिर भी लघु पत्रिकाओं में छपी सामग्री का अपना एक ऐतिहासिक महत्व है।

हिंदी साहित्य के बहुत सारे विवाद, आंदोलन, प्रवृत्तियों को निर्धारित करने वाली सामग्री और महान रचनायें इन लघु-पत्रिकाओं के पुराने अंकों में समाई हुई हैं। इनमें से बहुत सारी सामग्री कभी पुनर्मुद्रित नहीं हुई। साहित्य के गंभीर पाठकों एवं शोधार्थियों के लिए इनका ऐतिहासिक महत्व है। आज का समय बहुत जटिलता लिए हुए है, यह सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक संक्रमण का समय है। अब भी इस डिजिटल और सोशल मीडिया वाले दौर में कुछ लघु पत्रिकाएं हैं जो सामाजिक व राजनीतिक जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हुए साहित्यिक चेतना जगाने का काम कर रही हैं। यह सुखद है।


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