Friday, September 19, 2025
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शिक्षा में स्व भाषा का चिंतन का आधार

 


किसी राष्ट्र की आत्मा का आधार उसकी भाषा होती है। भाषा है तो हम हैं भाषा है तो समाज है। बिन भाषा एक राष्ट्र गूंगा है। हम प्रत्येक अभिव्यक्ति का माध्यम केवल और केवल भाषा के माध्यम से करते हैं। परंतु भारत जैसे बहुभाषी देश की स्थिति को देखें तो अत्यंत दुख और पीड़ा का अनुभव होता है। संविधान की आठवीं अनुसूची में 22 भाषाओं को स्थान मिलने के बाद भी स्थिति यथावत है। आज हमारी कितनी ही भाषाएं और बोलियां हाशिए पर खड़ी सवाल पूछ रही हैं कि उनकी दुर्दशा का जिम्मेदार आखिर कौन है। भाषा के संकट को समझने के लिए हमें इतिहास पर नजर डालनी होगी। स्वतंत्रता पूर्व ब्रिटिश शासन काल के 200 वर्षों में भारत ने भाषाई दासता भी झेली। अंग्रेजी भाषा के प्रभुत्व और वर्चस्व ने भारतीय भाषाओं की जड़ों को कमजोर कर दिया। अंग्रेजी भाषा को जानना एलीट क्लास का प्रतीक बन गई। ब्रिटिश हुकूमत की गुलामी को स्वीकार करते करते कब समस्त भारत में भाषाई गुलामी की जड़ें मजबूत हो गर्इं किसी को भान तक नहीं हुआ।

व्यापार, वाणिज्य, शिक्षा, जनजीवन में मीठे विष की भांति अंग्रेजी की जड़ें फैलती चली गई और आज आजादी के 70 सालों के बाद भी हम इस भाषा के वर्चस्व के साक्षी हैं। क्या कारण है कि हम बहुभाषिकता और विशिष्ट संस्कृति और दर्शन से समृद्ध राष्ट्र होकर भी स्व भाषा में चिंतन नहीं करना चाहते? अंग्रेजी का महिमामंडन इस प्रकार किया गया कि गली मोहल्ले में खुले विद्यालय स्वयं को इंटरनेशनल स्कूल कहलाने लगे। भारत का एक बहुत बड़ा वर्ग अभी भी अपनी भौगोलिक स्थिति के चलते शिक्षा के बहुत से संसाधनों से विमुख है। ऐसे में हमारा दायित्व है कि हम देश के किसी भी कोने में पनपने वाली प्रतिभा को भाषा के डर के कारण पिछड़ापन महसूस ना होने दें।

नई शिक्षा नीति-2020 में पांचवीं कक्षा तक आवश्यक रूप से मातृभाषा एवं स्थानीय भाषा में शिक्षा देने का प्रावधान किया गया है। कोई चाहे तो आठवीं कक्षा तक या उसके बाद भी अपनी मातृभाषा एवं स्थानीय भाषा में शिक्षा ग्रहण कर सकता है। नई शिक्षा नीति-2020 में बहुत सावधानी से उत्तर एवं दक्षिण के बीच प्राय: खड़ा हो जाने वाले हिंदी बनाम क्षेत्रीय भाषाओं के मध्य के विवाद को समाप्त करने की कोशिश की है। इसीलिए मातृभाषा के साथ-साथ स्थानीय भाषा शब्द का प्रयोग किया गया है। यह भाषा संबंधी किसी भी संकीर्णता से इस नई शिक्षा नीति को बचाता है। मातृभाषा या स्थानीय भाषा में स्कूली शिक्षा समाज निर्माण की प्रक्रिया में आधारभूत परिवर्तन आ सकता है।

हम जैसे ही स्कूल में जाते हैं। एक सुनियोजित ढंग से आत्म भाषा और स्थानीय भाषा से अचानक हमारा कटाव शुरू हो जाता है। इसके कारण एक तो हमारे जीवन की भाषा एवं शिक्षा की भाषा में तनाव पैदा हो जाता है। इसमें हमारा मौलिक आत्म खोने लगता है। शिक्षा के द्वारा एक ऐसा ह्यआत्मह्ण जिसे ह्यशिक्षित व्यक्तित्वह्ण भी कह सकते हैं, विकसित होता है जो या तो आधा-अधूरा होता है, या एक दूसरे को कमजोर कर रहा होता है। यह जानना रोचक है कि जिस आत्मनिर्भर भारत का स्वप्न हमने देखना प्रारंभ किया है, उसका मूल तत्व है अपने समाज, अपनी संस्कृति, अपने ज्ञान एवं अपनी दक्षता के मूल्य को समझकर उन पर आत्मविश्वास विकसित करना। यह आत्मविश्वास अपनी भाषा से सतत जुड़ाव से मिलती रह सकती है।

भारत जैसे बहुभाषी देश में हमें यह समझना होगा कि तकनीकी शिक्षण संस्थानों में इस प्रकार की व्यवस्था और वातावरण हो कि मात्र भाषा के कारण संस्थानों से छात्र ड्रॉप आउट शिक्षा ना हों। इसी के साथ स्व भाषाओं में नए नए रोजगार के अवसरों का सृजन भी हो। देश की बड़ी युवा शक्ति के हुनर, कौशल और प्रतिभा का दम भाषा के चलते ना घुटे। किसी भी विषय को अपनी भाषा में समझना और सीखना आसान है। हालाँकि चुनौती बहुत बड़ी है परंतु तकनीकी,वाणिज्य, व्यापार आदि से संबंधित विषयों के साहित्य को अनुवाद के माध्यम से सरल सहज भाषा में अनूदित करके पाठ्यक्रम तैयार किए जाएँ। गुणवत्ता भाषा की बाध्यता से बाहर है उदाहरण के तौर पर आईआईटी दिल्ली द्वारा बहुत सार्थक कदम उठाया गया जहां लैंग्वेज सेंटर की स्थापना की गई है।

एनआईटी अगरतला में बांग्ला भाषा को स्थान दिया गया जिससे छात्र अपना मनोबल ना खोयें। शिक्षा का माध्यम उच्च शिक्षण संस्थानों में स्वभाषा होगी तो देश की अर्थव्यवस्था पर इसका प्रत्यक्ष प्रभाव देखने को मिलेगा । व्यवहार में स्व भाषा का प्रयोग राष्ट्रीय गौरव की बात हो ना कि हीनता या अज्ञानता का प्रतीक।

वैश्वीकरण और भूमंडलीकरण के दौर में हम अंग्रेजी के विरोध में नहीं है। छात्र अंग्रेजी भाषा को अन्य भाषा की तरह सीखे पर बाधा और बाध्यता का कारण ना बने। ऐसे में हमारी स्व भाषाओं को एक-दूसरे के साथ तालमेल बिठाते हुए मुखरित होने का अवसर प्राप्त होना चाहिए। हर संस्थान में एक अनुवाद केंद्र हो जहां लगातार अनुवाद के माध्यम से विभिन्न पाठ्यक्रमों का सरल भाषा में अनुवाद होता रहे।सूचना प्रौद्योगिकी के इस युग में क्रांति आ गई है इसके माध्यम से भाषाओं के प्रचार प्रसार को एक प्लेटफार्म मिला है ।शिक्षण के कई नए तरीकों की खोज हो रही है जिससे छात्रों को घर बैठे भी शिक्षा से वंचित ना होना पड़े।

सारांश यह है कि देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए शिक्षा को मजबूती देनी होगी। प्रादेशिक स्तर पर प्रांतीय भाषाओं को शिक्षा के माध्यम से आगे बढ़ाने का प्रयास सार्थक सिद्ध हो सके जिससे समाज में अंतर्निहित भावनाओं को मुखरित होने का अवसर मिल सके। ऐसी उम्मीद की जानी चाहिए।

डॉ. ज्योत्सना शर्मा


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