मानसून की विदाई के समय दो बार हुई अत्यधिक वर्षा से उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, छत्तीसगण, बिहार, उत्तराखंड आदि राज्यों में फसलों की बरबादी देखने को मिली है। मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश जैसे कृषि बहुलता वाले राज्यों में खेतों में खड़ी बाजरा, सोयाबीन, उर्द, मूंग, तिल, मूंगफली, धान, ज्वार आदि फसलों में 40 से लेकर 70 प्रतिशत तक के नुकसान की खबरें आ रहीं हैं।
साल दर साल अतिवृष्टि की घटनाएं बढ़ती चली जा रहीं हैं। दुनिया के अधिकांश देशों में कुदरत के प्रलयकारी रौद्र रूप की खबरें पढ़ने, सुनने और देखने को मिल रहीं हैं। प्रकृति से जुड़ी यह ऐसी घटनाएं हैं, जिनको रोक पाना मनुष्य के बस में नहीं हैं। लेकिन इन घटनाओं के लिए जिम्मेदार ज्यादातर मनुष्य ही है। पिछले कुछ दिनों के बीच देश के अधिकांश राज्यों में हुई अतिवृष्टी इसका ताजा उदाहरण हैं जिसके चलते किसानों की खेतों में कटने को तैयार खड़ी खरीफ फसलों में भारी क्षति देखने को मिली है।
यदि इसी गति से कुदरत का कहर जारी रहा तो आने वाले समय में इसके घातक दुष्परिणाम सामने आ सकते हैं। इस साल मानसून की शुरुआत कुछ ज्यादा उत्साहजनक नहीं रही है। जब पूरे देश में किसानों को खरीफ फसलों की बुआई और तैयारी के लिए मानसूनी बरसात की जरूरत थी तब उनके हाथ निराशा ही लगी। लेकिन जैसे तैसे किसानों द्वारा हर संभव प्रयासों के बाद कुछ देरी से ही सही खरीफ फसलों की बुआई की गई। इसके बाद देश के कई राज्यों में सामान्य से कम वर्षा के कारण सूखा के हालात बने तो कई क्षेत्रों में अतिवृष्टी का सामना भी किसानों को करना पड़ा। किसानों की मेहनत रंग लायी और फसलें पककर खेतों में कटाई-मड़ाई के इतजार में ही थी तभी दक्षिण पश्चिम विक्षोभ के चक्रवातों का प्रभाव ऐसा आया कि किसानों के अरमानों पर पानी फिर गया। किसानों की खेतों में खड़ी फसलें अधिक बर्षा के कारण बर्बाद हो चुकी हैं। उत्तर भारत के अधिकांश राज्य पूरी तरह से खेती-किसानी पर निर्भर हैं।
भारत में मानसून का आगमन जून के प्रथम सप्ताह में केरल से होता है। इसके बाद यह मानसून केरल से कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र होता हुआ उत्तर भारत के राज्यों में पहुंचता है। मौसम विभाग के आंकड़ों के अनुसार उत्तर भारत के राज्यों में मानसून का आगाज जून के अंतिम सप्ताह से लेकर जुलाई के पहले सप्ताह में हो जाना चाहिए। इससे आगे जाने पर उसे मानसून आने में देरी माना जाता है। कुल मिलाकर देश में मानसून जुलाई से लेकर सितम्बर माह तक सक्रिय रहता है। जिसमें जून से लेकर अगस्त माह के अंत तक लगभग 70 प्रतिशत बरसात हो जानी चाहिए। बाकी 15 से 20 प्रतिशत बरसात सिंतबर माह में तथा शेष अक्टूबर से लेकर मई माह की बीच होनी चाहिए। लेकिन अब देखने में आ रहा है कि भारत में बरसात के इस कुदरती चक्र बहुत बड़ा बदलाव आता जा रहा है। देश में मौसम विभाग मानसून सक्रिय होने तथा जाने के बाद उसकी विदाई की विधिवत् घोषणा करता है।
अमूमन उत्तर भारत के अधिकांश राज्यों से सिंतबर के अंत तक मानसून की विदाई की घोषणा हो जाती है। सितंबर माह के अंत और अक्टूबर माह के शुरुआत में जिस प्रकार से मौसम का मिजाज बदला और देश के 17 से अधिक राज्यों में लगातार कई दिनों तक भारी बारिश हुई है। इसके पीछे जलवायु परिवर्तन को मुख्य वजह माना जा रहा है जो कि प्रकृति के बदलते मिजाज की ओर संकेत है। मौसम के बदलाव से बरसात और तापमान का यही ट्रेण्ड चला तो भारत खासकर उत्तर भारत में फसलों के मौसम खरीफ, रबी और जायद में बदलाव होगा। इतना ही नहीं बल्कि प्रमुख फसलों, उनकी प्रजातियां तथा अन्य गतिविधयों की प्रभावित होगीं।
बदलते जलवायु परिवर्तन का सबसे ज्यादा असर मौसम और प्रकृति पर आधारित भारतीय कृषि पर पड़ेगा। इसके बाद पशुओं की नस्लें, प्रजनन और उत्पादन पर होगा। इस कारण देश में खाद्यान्न उत्पादन से लेकर रोजमर्रा की चीजों की कमी होगी और कीमतें बढ़ेगी जिससे गरीब का जीना दुषवार हो जायेगा। कम होते वर्षा के दिन और चंद दिनों के बीच में अत्यधिक बरसात किसानों से लेकर मौसम और कृषि वैज्ञानिकों के माथे पर चिंता लकीरें खींच रहे हैं। इसी प्रकार बढ़ते तापमान और सर्दियों के दिनों में कमी होने से उत्तर भारत में रबी फसलों के ऊपर भी प्रतिकूल असर पड़ना शुरू हो चुका है। इस वर्ष मार्च माह की शुरूआत में अचानक से तापमान में बढ़ोत्तरी होने और समय से पहले गर्म हवाऐं चलने के कारण गेंहू के उत्पादन पर काफी बुरा असर पड़ा है। गेहूं उत्पादन कम होने के कारण भारत सरकार को इसके निर्यात पर प्रतिबंद जैसा कढ़ा कदम उठाने को मजबूर होना पड़ा था।