पिछले दिनों हुए विधानसभा चुनावों में भी बहुत से दलों की खानागार बिगड़ गई। कई दूल्हे राजा घोड़ी पर बैठे के बैठे ही रह गए। कुछ तो घोड़ी पर चढ़ ही नहीं पाए। शपथग्रहण के लिए सिलवाये बहुतों के सूट धरे के धरे रह गए। बहुतों की जमानत ही ऐसे जब्त हो गई जैसे विवाह के एक दिन पहले ही दुल्हन किसी ओर के साथ रफूचक्कर हो जाती है। कुछ को बीच बारात में कई बाराती छोड़कर दूसरे की बारात में अच्छे गाजे-बाजे देखकर घुस गए।
वे खाने के शौकीन थे। खाते-खाते इतना खाया कि खाने से अपच हो गया। अपच होने के बाद अपची जहां जाते है, वहीं ये खाने ही खाने वाले पहुंच गए। जनता का खाया ही इतना की जनता ने ऐसी जगह पहुंचा दिया, जहां जाना तो सबको पड़ता है लेकिन वहां जाना कोई पसंद नहीं करता।
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इनकी इस खाने-पीने की संस्कृति के कारण ये अबतक जनता की नजरों से उतरे हुए हैं। राजनीति में भी विपक्ष ऐसी ही जगह है जहां कोई राजनेता जाना पसंद नहीं करता। लेकिन जाना ही पड़ता है। उसके बगैर आगे का काम भी नहीं चल सकता। जैसे विपक्ष के बगैर लोकतंत्र का काम नहीं चल सकता। पर इस खाने-पीने की अति संस्कृति से अब समस्या तो ओर भी विकट हो गई है। विपक्ष का दर्जा भी ‘हाथ’ से चला गया है ! ओर अब सामने वाले हाथ पर हाथ धरकर बैठे-बैठे सोच रहे हैं कि करें तो क्या करें…!
सामने वाले के लड़के ने लड़कर देख लिया-लड़कर हार गया। लड़की ने लड़ाकर देख लिया- सब के सब हार गए। अब चिंतन शिविर में यह चर्चा चल रही है कि किसके अधिक खाने से यह ‘खानागार’ बिगड़ी है। इस ‘हाथ’ के माध्यम से कितनों ने ही वर्षों तक भरपेट खाया व खिलाया, पर अब आखिर क्या हो रहा है कि हमें हर चुनाव में ‘मुंह की खाना’ पड़ रही है! आखिर इस किचन कैबिनेट में कौन विभीषण निकल गया, जिसके कारण सारी लंका दिनोंदिन ढह रही है। अजेय किले को किसकी नजर लग गई है। इस वानर रूपी जनता को किसने जागरूक कर दिया है! इसपर खाये-पीये बैठकर चिंतन-मनन कर रहे हैं।
जैसा कि किसी विवाह में जिसकी खानागार बिगड़ जाती है उसके वैवाहिक कार्यक्रम के बिगड़ने की भी संभावना बढ़ ही जाती है। पिछले दिनों हुए विधानसभा चुनावों में भी बहुत से दलों की खानागार बिगड़ गई। कई दूल्हे राजा घोड़ी पर बैठे के बैठे ही रह गए। कुछ तो घोड़ी पर चढ़ ही नहीं पाए। शपथग्रहण के लिए सिलवाये बहुतों के सूट धरे के धरे रह गए। बहुतों की जमानत ही ऐसे जब्त हो गई जैसे विवाह के एक दिन पहले ही दुल्हन किसी ओर के साथ रफूचक्कर हो जाती है।
कुछ को बीच बारात में कई बाराती छोड़कर दूसरे की बारात में अच्छे गाजे-बाजे देखकर घुस गए। कहा तो बड़ी मुश्किल से लोकतंत्र में राजनीतिक विवाह का मुहूर्त निकलता है। लेकिन दल-बदल व पारिवारिक पृष्ठभूमि ने लोकत्रांतिक समाज में कई के विवाह बिगाड़ दिये। बेचारे न अपने दल के रहे ना ही अपने घर के। उनके घर व क्षेत्र वाले तक उन्हें पहचानने से मना कर रहे हैं।
इधर एक तो राजनीतिक प्रतीक्षा करते करते बुढ़ापा आ गया है और ऊपर से कुछ युवा नेता मानने को ही तैयार नहीं है कि उनके अच्छे दिन कभी नहीं आने वाले हैं। जबरन का सेहरा बांधकर देश-विदेश घुमते रहते हैं। उन्हें पता ही नहीं है कि विवाह करना व चुनाव लड़ने में उत्तरीय ध्रुव व दक्षिणी ध्रुव जैसा ही अंतर है। वहीं कुछ घोषणा वीरों ने अपनी दूसरी राजनीतिक बारात में भी साजो-शराब के माध्यम से एक विचित्र राज्य की सत्ता सुंदरी से फेरे लेकर घर जवाई बनना स्वीकार कर लिया है। इस विवाह का दूल्हा कब कौन हो सकता है, कुछ नहीं कह सकते हैं। हो सकता है अंतिम समय में लोकतंत्र की घर ग्रहस्थी से सत्ताधारी दुल्हन घर छोड़कर ही भाग जाए !
खैर, हम खाने-पीने के हमेशा से शौकीन रहे हैं। कभी कभी हम खिला-पिला भी देते हैं। भले स्वयं के टापरे बिक जाए। लेकिन जैसे तैसे सत्ता सुंदरी मिल जाए तो आयोजन मानो सफल, नहीं तो फिर सिवा चिंतन शिविर के क्या कर सकते हैं! क्योंकि आजकल बारातियों व सामने वाली पार्टी का कोई भरोसा नहीं। जैसे ही लड़के वालों ने थोड़ी बहुत खटपटर की, कि फूंका-मौसा समूह सक्रिय। बनी बनाई बारात कभी भी उखड़ सकती है। इसलिए अधिक खाने-पीने व बारात में ऊंचे बोल-वचन से बचना ही लोकतंत्र की बारात की आचार संहिता है….!!
भूपेंद्र भारतीय