डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त
पंडित आत्मानंद शास्त्री ने ‘रुपया स्थिरीकरण यज्ञ’ रखा, जिसमें शर्त थी कि हर भक्त कम से कम सौ रुपये की आहुति दे, ताकि रुपया ‘आग में चढ़कर पवित्र होकर वापस आए। ’भक्तों ने नोट चढ़ाए, पंडित जी ने थाली में चढ़ाया और बोले, ‘यज्ञ सफल, अब रुपया और नहीं गिरेगा, जनता की जेब से गायब रहेगा।
धर्मनिष्ठ नगर में मास्टर गंगाप्रसाद रहते थे, जो सुबह अखबार पढ़कर देशभक्ति से भर जाते और शाम तक सब्जी मंडी में प्याज की कीमत देख कर देश के आर्थिक भविष्य पर शोकसभा कर लेते।एक दिन उन्होंने जेब से पुराना चमकदार रुपया निकाला और बोले, ‘देखो, ये वही रुपया है जो आजादी के बाद गोल बनाकर छोड़ा गया था, ताकि अर्थव्यवस्था ‘गोल-मोल’ तरीके से चले।’ जैसे ही उन्होंने रुपया मेज पर रखा, वह लुढ़कते-लुढ़कते सीधे टीवी पर चल रहे चुनावी माननीय विकास नारायण, हर भाषण में कहते, ‘रुपया हमारे संस्कारों की तरह मजबूत है, बस थोड़़ा विदेश घूमने निकला है।’ वोटर ताली बजाते, क्योंकि ताली की आवाज में गैस सिलिंडर की कीमत दब जाती। नेता-जी की पार्टी ने घोषणा की कि अब डिजिटल भारत में नकदी की जरूरत नहीं, इसलिए रुपये का गिरना कोई मुद्दा नहीं, बल्कि ‘टेक्नोलॉजिकल प्रगति’ है।
मास्टर गंगाप्रसाद ने ठान लिया कि गोल रुपये की यह त्रासदी अब नहीं चलेगी। उन्होंने नगर में ‘चौरस रुपया मोर्चा’ बना दिया और पोस्टर लगवाए, ‘रुपया चौरस होगा, तो लुढ़केगा नहीं, सीधे जनता की जेब में बैठेगा।’ कुछ दिनों में मोर्चा इतना सफल हो गया कि बगल की चाय की दुकान पर भी पोस्टर चिपक गए: ‘यहां चाय गोल, पर रुपया चौरस चाहिए।’ राष्ट्रीय न्यूज चैनल ने इस पर बहस रखी-‘क्या चौरस रुपया राष्ट्रवाद के खिलाफ है?’ एक पक्ष के विशेषज्ञ बोले, ‘गोल रुपया प्राचीन भारतीय संस्कृति का प्रतीक है, चौरस रुपया विदेशी साजिÞश।’ दूसरे पक्ष ने जवाब दिया, ‘जब अर्थव्यवस्था चौपट हो सकती है, तो रुपया चौरस क्यों नहीं?’एंकर ने निष्कर्ष दिया, ‘दोनों पक्ष मजबूत हैं, असली सवाल यह है कि ब्रेक के बाद कौन-सा स्पॉन्सर आएगा।’ धर्मनिष्ठ नगर के पंडित आत्मानंद शास्त्री ने घोषणा की कि रुपया गिरने का असली कारण ग्रह-दोष है, न कि सरकार-दोष। उन्होंने ‘रुपया स्थिरीकरण यज्ञ’ रखा, जिसमें शर्त थी कि हर भक्त कम से कम सौ रुपये की आहुति दे, ताकि रुपया ‘आग में चढ़कर पवित्र होकर वापस आए।’भक्तों ने नोट चढ़ाए, पंडित जी ने थाली में चढ़ाया और बोले, ‘यज्ञ सफल, अब रुपया और नहीं गिरेगा, बस जनता की जेब से गायब रहेगा।
उधर नगर के उद्योगपति चाणक्यप्रसाद ने प्रेस कॉन्फ्रेस की और बताया कि कम्पनी घाटे में है, इसलिए सरकार से विशेष पैकेज चाहिए, वरना हजारों कर्मचारियों की नौकरियां खतरे में पड़ जाएंगी।सरकार ने तुरन्त पैकेज दे दिया; अगले ही महीने कम्पनी ने नया विदेशी कारखाना खोलने की घोषणा कर दी, पर कर्मचारियों के लिए बयान जारी हुआ-‘आपकी त्याग भावना से ही देश आगे बढ़ रहा है, आप घर बैठकर भी राष्ट्रनिर्माण में योगदान दे रहे हैं।’ बेरोजगार युवा ने यह सुनकर मोबाइल में डेटा रिचार्ज किया, ताकि नौकरी के बदले देशभक्ति वाले वीडियो कम से कम फ्री में देख सके।
कुछ महीनों बाद अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों ने रिपोर्ट दी कि देश की आर्थिक स्थिति ‘स्थिर’ है, मतलब गिरना बंद नहीं हुआ, गिरने की आदत स्थिर हो गई है। सरकार ने इसे अपनी बड़ी उपलब्धि बता कर विज्ञापन निकाला-‘देखिए, वैश्विक संस्थाएं भी मानती हैं कि हमारा रुपया रोज एक-सा गिरता है, इसमें भी एक अनुशासन है।’ मास्टर गंगाप्रसाद ने यह पढ़कर अपने चौरस रुपया मोर्चे की मीटिंग बुलाई और बोले, ‘भाइयो, रुपया चाहे गोल हो या चौरस, असली बात ये है कि ये हमारी जेब से निकल कर पोस्टर, विज्ञापन और यज्ञ में पहुंच जाता है और हम सोचते रहते हैं कि ‘देश आगे बढ़ रहा है’ या हम पीछे लुढ़क रहे हैं।’
अंत में धर्मनिष्ठ नगर के बुद्धिजीवियों ने सामूहिक रूप से निष्कर्ष निकाला कि रुपये का आकार बदलने से कुछ नहीं होगा, जब तक नागरिक अपने दिमाग का आकार थोड़ा बड़ा नहीं करते। पर नागरिकों का विवेक भी गोल-गोल घूमते-घूमते सीधे शून्य पर आ टिका। इस तरह नेहरू जी का गोल रुपया, नेता जी के गोल-मोल भाषण और जनता के गोल-मटोल तर्क सब मिलकर एक ऐसे राष्ट्रीय चक्रव्यूह में बदल गए, जिसमें घुसना आसान, निकलना असंभव और हर तरफ सिर्फ़ यही आवाज गूंजती रही, ‘रुपया गिर रहा है, पर चिंता मत कीजिए, टीवी पर सब कुछ ‘नॉर्मल’ दिख रहा है।

