लेखकों के लिए बहुधा कलम के सिपाही उक्ति का प्रयोग किया जाता है। इस उक्ति को सच्चे अर्थों में सार्थक करने वाले और जीने वाले साहित्यकार हरपाल सिंह अरुष का कोई मुकाबला समकालीन हिन्दी साहित्य में कहीं नजर नहीं आता है। शिक्षा विभाग में अधिकारी थे यानी दिन भर सरकारी काम काज में व्यस्त रहते मगर अरुष की रातें आराम करने की बजाए सर्जन के लिए होती। देर रात एक दो बजे तक वह शब्दों से खेलते तो शब्द भी इस अनूठे खिलाड़ी के हाथों खेलकर आह्लादित होते और दलितों, पिछड़ों, वंचितों के जीवन संघर्षों को उकेरती उनकी कविताऐं, कहानियां और लेख आलेख साहित्य के नए आयाम रचते। उनकी सर्जनात्मक क्षमता और सामर्थ्य का उनके समकालीन साहित्यकारों को छोड़िए, युवा लेखक भी लोहा मानकर उन्हें हैरत से देखते।
अरुष जी की सहधर्मिणी विमलेश जी भी अरुष जी की सर्जन यात्रा में महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं। विवाह के कुछ ही दिनों के बाद एक बार खटपट की आवाज से विमलेश जी की आंखें खुली। आवाज का केंद्र रसोई थी, जाकर देखा तो सन्न रह गई। अरुष जी चाय बना रहे थे।
हैरत से भरकर उन्होंने पूछा, चाय का मन था तो आपने मुझे क्यों नहीं जगाया। अरुष मुस्कराकर कहने लगे, अरे यह मेरी रोज की आदत है, देर तक लिखना, नींद न आएं तो बीच में चाय पी लेता हूं। विमलेश जी धीरे से मुस्करा भर दी मगर अरुष जी के जीवन में फिर देर रात चाय बनाने का अवसर नहीं आया। वह देर रात तक लिखते और आधी रात को उनके सामने चाय लेकर विमलेश जी हाजिर होती रही।
रिश्ते नाते हों या घर परिवार या बाजार की खरीदारी, विमलेश जी जीवनपर्यन्त यह सब खुद देखती,करती रहीं। इसमें स्थानीय से लेकर दूरदराज से आने जाने वाले साहित्यकारों की समर्पण के साथ आव भगत भी शामिल है ही। हमारी पीढ़ी के रचनाकारो को अरुष जी बढ़ावा, मार्गदर्शन देने में सदैव आगे रहते थे।
डा. बी एस त्यागी का 12 फरवरी को फोन आने से गुरुजी हरपाल सिंह अरुष के संबंध में आशंका होने पर उनके बेटे तुषार से बात की। उनकी गंभीर स्थिति की जानकारी होने पर तुरंत उनके आवास पर गया। लॉबी में सिद्धार्थ और एक अन्य सज्जन के कांधों पर हाथ रखे वह टहल रहे थे।
यद्यपि उन्हें पसंद नहीं था तो भी उस दिन बेहद मन होने पर गुरुजी के चरण स्पर्श किए तो कहने लगे अरे आज हम तुमसे गले मिलेंगे। भरपूर स्नेह और प्रेम से गले लगाया तो न जाने क्यों मेरी आंखें भर आई।
उन्होंने जीवन में ऐसा पहली बार किया था । भीतर से कुछ ऐसा महसूस हुआ कि यह गुरुजी से अंतिम भेंट हो रही है। सिद्धार्थ ने उनसे पूछा, ये कौन हैं, आपने पहचाना?फटाक से गुरुजी ने कहा, अरे हमारा एक ही तो शिष्य है यहां। बाकी तो सब हमारे गुरु हैं।
आज अवकाश होने पर मैं दोपहर में सो गया तो स्वप्न में गुरुजी के न रहने का एहसास हुआ। धर्मपत्नी से कह उठा, गुरुजी शायद जा रहे हैं। और अब रात्रि में उनकी वाल पर कुछ देर यह सूचना सिद्धार्थ ने पोस्ट कर दी है। उनसे पुत्रवत मिला प्यार अनमोल धरोहर है।
गुरुजी अनवरत सृजनरत रहे। विपरीत स्थिति में भी कभी विचलित नहीं हुए। कोरोना से पीड़ित हुए, इसी दशा में पत्नी को खोया, अंतिम दिनों में न साथ थे, न ही उन्हें आखिरी बार देख पाएं।
यह उनके लिए कितना दुखद रहा, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है। वह उससे उबरे, सृजनरत हुए तो कैंसर से पीड़ित हो गए। इस विपदा से भी वह मजबूती और हिम्मत से अंत तक जूझते रहे। गुरुजी का न रहना परिजनों के साथ साथ साहित्य समाज के लिए भी अपूरणीय क्षति है। सादर विदा गुरुजी।
What’s your Reaction?
+1
+1
3
+1
+1
+1
+1
+1