उत्तराखंड मानवीय हस्तक्षेप और विकास की अंधी दौड़ के कारण प्रकृति के प्रकोप का अखाड़ा बनता जा रहा है। हाल ही में उत्तरकाशी में आई भीषण आपदा, जिसमें बादल फटने, भूस्खलन और बाढ़ की घटनाओं ने जन-जीवन को अस्त-व्यस्त कर दिया, इस त्रासदी का नवीनतम उदाहरण है। यह केवल एक प्राकृतिक आपदा नहीं, बल्कि मनुष्य के प्रकृति से खिलवाड़ का प्रत्यक्ष परिणाम है। उत्तरकाशी की यह तबाही उस असंतुलित विकास की ओर इशारा करती है, जिसने पहाड़ों की नाजुक पारिस्थितिकी को भीतर तक झकझोर दिया है। पहाड़ों पर अनियंत्रित निर्माण, नदियों के किनारे कंक्रीट की इमारतें, तीर्थयात्राओं और पर्यटन के नाम पर बढ़ती मानवीय भीड़, और वनस्पति के अंधाधुंध दोहन ने पहाड़ों को असुरक्षित और संवेदनशील बना दिया है। जब पहाड़ों पर लगातार भूस्खलन का दायरा बढ़ता जा रहा है, तब भी सरकारें और प्रशासन कंक्रीट के जंगल खड़े करने से बाज नहीं आते।
प्रकृति की इस चेतावनी को केवल अचानक आई बारिश या बादल फटने जैसी घटनाओं से जोड़ना समस्या की जड़ को नकारने जैसा होगा। उत्तराखंड की नदियों का स्वभाव ही तीव्र और उग्र है,किंतु जब उनके बहाव क्षेत्र में अतिक्रमण कर निर्माण किए जाते हैं, तब वे अपनी धारा को पुन: प्राप्त करने के लिए विनाशकारी रूप ले लेती हैं। नदियों के तटबंधों को काटकर होटल, घर और व्यावसायिक प्रतिष्ठान खड़े कर दिए गए हैं। नालों और जलधाराओं पर सड़कें बिछा दी गईं, जिससे वर्षा का जल प्राकृतिक मार्गों से बहने के बजाय आवासीय क्षेत्रों में घुस जाता है। इस प्रकार की गतिविधियाँ आपदा को निमंत्रण देती हैं और जब त्रासदी घटित होती है, तब दोषारोपण का खेल शुरू हो जाता है।
उत्तरकाशी की हालिया आपदा ने एक बार फिर 2013 की केदारनाथ त्रासदी की याद ताजा कर दी, जब बादल फटने और अचानक आई बाढ़ ने हजारों जिंदगियाँ लील ली थीं। उसके बाद से लेकर अब तक अनेक रिपोर्टों और चेतावनियों में यह कहा गया कि हिमालयी क्षेत्र में संवेदनशील विकास नीति अपनाई जाए। पर्यावरणविद्, वैज्ञानिक और स्थानीय समाजशास्त्री लगातार इस बात पर जोर देते रहे कि यहां की पारिस्थितिकी को ध्यान में रखकर निर्माण गतिविधियां होनी चाहिए, ताकि आपदाओं के जोखिम को कम किया जा सके। परंतु विकास के नाम पर व्यावसायिक लालच और राजनीतिक लाभ की होड़ में इन चेतावनियों को अनसुना कर दिया गया।
दरअसल, आपदाओं का मूल कारण यह है कि हमने प्रकृति को केवल संसाधन मान लिया है, जिसे बिना रोक-टोक इस्तेमाल किया जा सकता है। नदियाँ, पहाड़, जंगल और घाटियां, ये सब हमें जीवन देते हैं, पर हमने इन्हें कंक्रीट, डामर और लोहा-इस्पात में बदलने का अभियान छेड़ दिया है। जब नदियों के मार्ग में बाधाएँ डाली जाती हैं, जब पहाड़ों को काटकर सड़कों का जाल बिछाया जाता है, जब वृक्षों को अंधाधुंध काटकर पर्यटन स्थलों को विस्तार दिया जाता है, तब प्राकृतिक संतुलन बिगड़ना अवश्यंभावी है। इस असंतुलन का परिणाम ही है कि एक सामान्य बारिश भी तबाही का रूप ले लेती है। उत्तरकाशी में तबाही के बाद यह प्रश्न और गहरा हो जाता है कि क्या हम विकास की सही परिभाषा समझ पाए हैं? क्या पर्यटन और तीर्थयात्राओं को बढ़ावा देने के नाम पर पहाड़ों की आत्मा को नष्ट करना विवेकपूर्ण है? विकास तभी सार्थक होगा जब वह प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित कर आगे बढ़ें। उदाहरणस्वरूप, पारंपरिक पहाड़ी वास्तुकला में ऐसे घर बनाए जाते थे जो नदियों और वर्षा के जल प्रवाह में बाधा न बनें। स्थानीय जल संचयन की प्रणालियां और छोटे-छोटे तालाब बाढ़ की स्थिति को संभालने में सहायक होते थे। आज इन पारंपरिक ज्ञान प्रणालियों की उपेक्षा कर हमने बड़े-बड़े बांध और जलाशय तो बनाए, परंतु स्थानीय पारिस्थितिक ज्ञान को तिलांजलि दे दी।
वर्षा ऋतु में जब पहले से ही भूस्खलन और बाढ़ की आशंका रहती है, तब भी सरकारें और प्रशासनिक संस्थाएं समय रहते कोई ठोस कदम नहीं उठाते। चेतावनी तंत्र का अभाव, आपात राहत सुविधाओं की कमी और समुचित बचाव योजनाओं का अभाव इस तबाही को और बढ़ा देता है। यदि समय रहते नदियों के मार्ग साफ किए जाएं, पहाड़ी जल निकासी प्रणाली को सुधार दिया जाए, और संवेदनशील क्षेत्रों में निर्माण पर कठोर नियंत्रण हो, तो आपदाओं का असर काफी हद तक कम किया जा सकता है। इस त्रासदी से एक बड़ा सबक यह भी है कि हमें विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन बनाना होगा। उत्तराखंड जैसे पहाड़ी राज्यों के लिए यह संतुलन और भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि यहां की भौगोलिक स्थिति पहले से ही नाजुक है। एक ओर पर्यटन और तीर्थयात्राओं से स्थानीय अर्थव्यवस्था को मजबूती मिलती है, वहीं दूसरी ओर बढ़ते निर्माण और भीड़ के दबाव से पारिस्थितिकी संकट में पड़ जाती है।