नीलम अरोड़ा |
हम अपने बच्चों के करीब करीब सभी फैसले खुद ही करना चाहते हैं। ये कोई आज की ही बात नहीं है, जब से इंसान का अस्तित्व है, तब से उसमें ये कमजोरी है। अगर इंसान जानवरों से कुछ सीख सकता है तो उसमें एक बड़ी चीज ‘विमोह’ भी है। कोई भी जानवर एक निश्चित अवधि के बाद अपने बच्चों से न तो बहुत ज्यादा लगाव रखता है और न ही उन पर अपनी कोई हुकूमत चलाता है। पक्षियों में माता पिता होने का सुख महज 4 से 6 हफ्तों का होता है। चैपायों में ज्यादा से ज्यादा 6 से 8 महीने का और कुछ दूसरे जानवरों में अधिकतम एक साल का और हाथी जैसे कुछ अपवाद हैं जो बच्चे को दो से ढाई साल तक भी केयर करते हैं।
सही या गलत परवरिश जैसी कोई चीज नहीं होती। कहने का मतलब यह कि न तो सही परवरिश की कोई स्थायी परिभाषा होती है और न ही कोई फामूर्ला। दुनिया के तमाम परवरिश विशेषज्ञ ही नहीं आज के बहुचर्चित आध्यात्मिक गुरु, सद्गुरु भी यही मानते हैं। सद्गुरु जग्गी वासुदेव के मुताबिक परवरिश कोई स्थायी चीज नहीं है, यह समय विशेष पर संतानों की बेहतरी के लिए मां बाप का लिया जाने वाला एक सकारात्मक निर्णय होता है। इसलिए परवरिश में किसी स्थायी फामूर्ले की कोई जगह नहीं है। सही परवरिश के लिए हालात के मुताबिक समझबूझ की जरूरत होती है। समझदार मां बाप वही हैं जो दूसरों के बच्चों के बजाय सिर्फ और सिर्फ अपने बच्चों को ध्यान में रखकर कोई परवरिश संबंधी निर्णय लेते हैं।
यही वजह है कि परवरिश के मामले में किताबों का ज्ञान बेकार होता है।
अगर दुनिया में हर शख्स एक दूसरे से भिन्न होता है, हर शख्स मौलिक होता है तो फिर कोई ऐसा परवरिश का नियम भला कैसे बन सकता है जो हर एक बच्चे पर लागू हो? वास्तव में हर बच्चे की अपनी शारीरिक, भावनात्मक और मानसिक जरूरतें होती हैं। हर बच्चे के विभिन्न पहलुओं को लेकर अपनी निजी सीमाएं होती हैं। इसलिए उनकी परवरिश में गणित का कोई मशीनी फामूर्ला कारगर नहीं हो सकता। अच्छे मां बाप वही हैं जो बच्चे के बिना बगावत किये, उनके इशारों को समझें और यही ध्यान में रखकर उनकी परवरिश करें।
याद रखिए दुनिया में हर जीवित प्राणी अपनी जरूरतों के बारे में बताता है। यह अलग बात है कि सबके पास इतनी स्पष्ट अभिव्यक्ति नहीं होती कि उसे सब समझ सकें। एक कहावत है कि गूंगे की बोली सिर्फ उसकी मां समझती है। इसका अभिप्राय यही है कि मां बाप ही अपने बच्चों की जरूरतें और जरूरतों के इशारों को सबसे आसानी से और गहराई से समझते हैं। चाहे हम जितने बुद्धिमान हों, चाहे जितने विद्वान हों, लेकिन यह एक मानवीय प्रकृति है कि हम अपने बच्चे को अपनी संपत्ति या अपनी जायदाद की तरह देखते हैं। भले शब्दों में कभी ऐसा न कहें।
लेकिन हम अपने बच्चों के करीब करीब सभी फैसले खुद ही करना चाहते हैं। ये कोई आज की ही बात नहीं है, जब से इंसान का अस्तित्व है, तब से उसमें ये कमजोरी है। अगर इंसान जानवरों से कुछ सीख सकता है तो उसमें एक बड़ी चीज ‘विमोह’ भी है। कोई भी जानवर एक निश्चित अवधि के बाद अपने बच्चों से न तो बहुत ज्यादा लगाव रखता है और न ही उन पर अपनी कोई हुकूमत चलाता है। पक्षियों में माता पिता होने का सुख महज 4 से 6 हफ्तों का होता है। चैपायों में ज्यादा से ज्यादा 6 से 8 महीने का और कुछ दूसरे जानवरों में अधिकतम एक साल का और हाथी जैसे कुछ अपवाद हैं जो बच्चे को दो से ढाई साल तक भी केयर करते हैं।
लेकिन 99.99 फीसदी जानवर अपने बच्चों की परवाह कुछ महीने की करते हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि वो अपने बच्चों से मोह नहीं करते। अपने बच्चों से हर जीव को मोह होता है, लेकिन इंसान के अलावा कोई दूसरा जीव उन्हें अपनी संपत्ति की तरह नहीं समझता। कोई जानवर किसी दूसरे जानवर पर जीने के लिए आश्रित नहीं होता। इस वजह से परवरिश का समय भी सीमित होता है। चूंकि इंसान का यह गणित होता है कि उसके बच्चे उसके बुढ़ापे में अच्छी देखभाल करें तो अवचेतन में इसे ही सुनिश्चित करने के लिए लोग अपनी संतानों में हर तरह का कब्जा रखते हैं।
बच्चों और उनके मां बाप के बीच विरोध का सबसे बड़ा कारण यही होता है। इंसान के इतर कोई भी जानवर कभी अपने बच्चे को जीने के लिए बुनियादी स्किल या कुशलता सिखाने के अतिरिक्त उन पर अपनी कोई मंशा या आग्रह नहीं लादता। जबकि हम इंसान अपने बच्चों को वह बनाना चाहते हैं, जो हमारी ख्वाहिश होती है, जो हमारे दिमाग में होता है। दुनिया में न जाने ऐसे कितने मां बाप हैं जो अपनी अधूरी इच्छाएं अपने बच्चों के जरिये पूरी करने की कोशिश करते हैं। परवरिश का यह एक और खराब तरीका है जिसकी वजह से बच्चों और मां बाप के बीच जबरदस्त तनाव रहता है।
बच्चों को क्या बनना है बेहतर है ये उन्हीं पर छोड़ दें। वो जो बनना चाहते हैं उन्हें बनने दें। यहां तक कि आपकी इच्छा के बिल्कुल विपरीत कुछ होना चाहते हैं तो भी इसकी परवाह न करें। उन्हें वह होने दें। अच्छी और बुरी परवरिश का एक पहलू यह भी होता है। कई मां बाप अपने बच्चे को हर वह चीज लाकर देना चाहते हैं, जिस चीज के लिए बच्चे ने डिमांड की होती है। बच्चों को भरपूर प्यार देने का यह मतलब नहीं है कि उन्हें उनकी मांगी हुई हर चीज दे देना। बच्चे मूर्ख नहीं होते, वो चीजों और प्यार के फर्क को बहुत बेहतर समझ रहे होते हैं। आप उन्हें चीजें देकर यह भ्रम नहीं बना सकते कि आप उन्हें बहुत प्यार करते हैं। अगर आप उन्हें दिल से प्यार नहीं करते तो तमाम मुंहमांगी चीजों की बारिश के बावजूद वो इस बात को समझेंगे और आपकी दी हुई चीजों को वे कभी आपका दिया हुआ प्यार नहीं समझेंगे। इसलिए समझदार बने, बच्चों से भरपूर प्यार करें, लेकिन प्यार करने का मतलब उन्हें चीजों से लाद देना नहीं है। उनकी ईमानदारी से फिक्र करें। उनकी सुरक्षा करें और उनमें यह एहसास भरें कि आप हर मुसीबत में उनके साथ हैं। यही अच्छी परवरिश की निशानी है।