Sunday, April 13, 2025
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सेमीफाइनल नहीं हैं ये चुनाव

Samvad 52


KRISHNA PRATAP SINGHजो राजनीतिक प्रेक्षक अभी भी मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, तेलंगाना व मिजोरम के विधानसभा चुनावों को अगले साल के लोकसभा चुनाव का सेमीफाइनल भर मानते आ रहे हैं, एक कहावत का इस्तेमाल करके कहें तो उन्हें तेल ही नहीं, बल्कि तेल की धार भी देखनी चाहिए। इन दोनों को देखने के बाद उन्हें स्वत: अपने नजरिये पर पुनर्विचार की जरूरत महसूस होगी, जिसके फलस्वरूप उनकी राय बदल जायेगी। दरअसल, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा कहें या उनके इंगित पर इनमें अपनी पार्टी के सम्बन्धित राज्यों के ‘खिलाड़ियों’ को ‘दरकिनार’ और केंद्रीय मंत्रियों व सांसदों को ‘आगे’ करके जैसी व्यूह-रचना की गई है, उससे ये कतई सेमीफाइनल भर नहीं रह गए हैं। इस व्यूह रचना में ‘सेनाओं’ के ठीक से मैदान में उतरने व दो-दो हाथ शुरू करने से पहले ही इनकी बिना पर फाइनल के प्रतिद्वंद्वियों को छकाने और निर्णायक घड़ी में परेशानी का सबब बन सकने वाले ‘अपनों’ को सबक सिखाने की जैसी कवायदों का जोर है, उसके मद्देनजर भी इन्हें सेमीफाइनल भर नहीं कहा जा सकता। सबको पता है कि इन चुनावों का नतीजा कुछ भी हो, उसके आते-आते लोकसभा चुनाव बहुत दूर नहीं रह जाएंगे। न ही नई व्यूह-रचनाओं या बिसातों के लिए ज्यादा समय रह जाएगा। इसलिए हमेशा चुनावी मोड में रहने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी गुम होती संभावनाओं को नये सिरे से तलाशने की जुगत में इन चुनावों के विस्तृत कार्यकम के एलान से पहले से ही कुछ उठा नहीं रख रहे। उन्हें अच्छी तरह मालूम है कि इन राज्यों-खासकर मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ व राजस्थान के पिछले चुनाव में अपनी पार्टी की हार को 2019 के लोकसभा चुनाव में जीत में बदल डालने का जैसा चमत्कार कर दिखाया था-पुलवामा कांड के बूते ‘राष्ट्रवाद’ हवा बनाकर ही सही-वैसे चमत्कार न रोज-रोज हो पाते हैं, न ही बार-बार। स्थितियां और परिस्थितियां बदल जाएं, तब तो और भी नहीं। बुजुर्गों ने यह कहावत ऐसे ही नहीं कही है कि काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती।

उसकी मुख्य प्रतिद्वंद्वी कांगे्रस जोर देकर बार-बार कह रही कि है वह केंद्रीय मंत्रियों व सांसदों को इसलिए लड़ा रही है, क्योंकि उसके पास मतदाताओं के सामने जाने भर को विश्वासपात्र चेहरे ही नहीं रह गए हैं। लेकिन इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। अलबत्ता, भाजपा से बेहतर कोई नहीं जानता कि केंद्रीय मंत्रियों को चुनाव लड़ाने से आदर्श चुनाव आचार संहिता को आंख दिखाने या उससे आंखमिचैली खेलने की ‘अतिरिक्त सहूलियत’ हाथ लग जाती है। चुनाव आयोग की अम्पायरिंग की घटती गुणवत्ता के इस दौर में प्रदेश में ‘शुभचिन्तक’ सरकार न हो तो भी सरकारी अमला उनके मंत्री होने का लिहाज करता ही करता है।

कह सकते हैं कि इस ‘लिहाज’ का लाभ उठाने की चाह भी एक बड़ा कारण है, जिसके तहत भाजपा ने अपने द्वारा शासित मध्य प्रदेश में भारी एंटीइन्कम्बैंसी के बावजूद वहां के मंत्रियों के ज्यादा टिकट नहीं काटे और उनकी और केंद्र के मंत्रियों की मार्फत, जानबूझकर कहें या किसी रणनीति के तहत, वीआईपी सीटों और मुख्यमंत्री पद के दावेदारों की संख्या बढ़ा दी है। इस बढ़ोतरी में राज्य के मतदाताओं के लिए भी ‘संदेश’ है, शिवराज सिंह चौहान के लिए भी (जिन्हें खुद अपने टिकट के लिए चौथी सूची तक इंतजार करना पड़ा) और कार्यकर्ताओं के लिए भी। मतदाताओं के लिए संदेश है कि वे शिवराज को आशीर्वाद नहीं देना चाहते तो न दें, मगर भाजपा को दें क्योंकि उसके पास ‘और भी मुख्यमंत्री’ हैं, जबकि कार्यकर्ताओं के लिए यह कि कौन जाने चुनाव के बाद उन्हीं के नेता को मुख्यमंत्री बना दिया जाये। ज्ञातव्य है कि गत दिनों प्रधानमंत्री ने एक सभा को सम्बोधित करते हुए शिवराज का नाम तक नहीं लिया था, हालांकि वे भी मंच पर उपस्थित थे। इसका संदेश भी ‘शिवराज नहीं तो प्रहलाद पटेल, नर्रेंद्र सिंह तोमर या फग्गन सिंह कुलस्ते सही’ जैसा ही कुछ था।
हां, इस भाजपाशासित राज्य में ही नहीं, कांगे्रसशासित राजस्थान व छत्तीसगढ़ में प्रधानमंत्री की व्यूह-रचना से भी लगता है कि उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अंग्रेजी मुखपत्र ‘आर्गनाइजर’ द्वारा कर्नाटक विधानसभा चुनाव में भाजपा की हार के बाद दी गई इस ‘सलाह’ को स्वीकार लिया है कि अब जीत के लिए मोदी व हिंदुत्व ही काफी नहीं रह गए हैं। इसीलिए अब वे किसी भी राज्य में भाजपा के चुनावी सफीने को डूबने से बचाने का सारा दारोमदार खुद पर नहीं रखना चाहते। चाहते हैं कि उनके साथ मंत्री व सांसद भी उसे बचाने में पसीना बहाते हुए दिखें।

कोई पूछे कि जब भाजपा के लिए वोट उन्हीं के ही नाम पर पड़ते हैं और हिमाचल व कर्नाटक में उनके नाम पर भी नहीं पड़े, तो इसका हासिल क्या है? जवाब यह कि नतीजे अनुकूल नहीं रहे, जिसकी बड़ी संभावना जताई जा रही है, तो हार के ठीकरे फोड़ने के लिए ढेर सारे सिर उपलब्ध होंगे। इतना ही नहीं, जो सांसद व मंत्री चुनाव हार जाएंगे, उनकी हार को उनकी अलोकप्रियता का प्रमाण मानकर लोकसभा चुनाव में उनके टिकट काटने में कोई बाधा नहीं रह जाएगी और नये चेहरों को आगे लाकर एंटीइन्कम्बैंसी थोड़ी कम की जा सकेगी। साफ है कि प्रधानमंत्री ने फिर सिद्ध कर दिया है कि वे एक तीर से कई शिकार करने और कांटे से कांटा निकालने में सानी नहीं रखते।

निस्संदेह, आम धारणा में केंद्रीय मंत्रियों व सांसदों को विधानसभा चुनाव लड़ाना उलटी गंगा बहाने जैसा ही है-हां, केंद्र में मंत्री और भाजपा में प्रवक्ता जैसे पदों पर रह चुके शाहनवाज हुसैन को बिहार की राजनीति में धकेलकर उसी तक सीमित कर दिए जाने के पुराने उदाहरण जैसा भी। ‘उलटी गंगा बहाने जैसा’ इस अर्थ में कि अपवादों को छोड़कर अब तक लोकतांत्रिक नेतृत्व व जनप्रतिनिधित्व का विकास नीचे से ऊपर की तरफ ही होता आया है और नेताओं की राजनीतिक यात्रा ग्राम पंचायत या पार्षद के चुनाव से विधानसभा और संसद के चुनाव की ओर ही चलती रही है।

गंगा को उलटी बहाने की इस कोशिश के बाद यह साबित करने के लिए किस और प्रमाण की जरूरत है कि खुद को दुनिया भर में सबसे बड़ी कहने वाली पार्टी सेमीफाइनल से ही फाइनल का लक्ष्य साध लेने की कितनी उतावली में है और क्यों उसके बड़बोले राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय, जो खुद भी मध्य प्रदेश की इंदौर-1 विधानसभा सीट से प्रत्याशी है, यह कहने तक उतर आए हैं कि चुनाव में जिस भी बूथ पर कांग्रेस का खाता नहीं खुलेगा, उस बूथ के अध्यक्ष को वे इक्यावन हजार रुपये देंगे। अंत में, एक और सवाल का सामना करने से बात पूरी तरह साफ हो जाएगी: मणिपुर के बार-बार जल उठने के बावजूद वहां जाने की फूरसत न निकाल पा रहे प्रधानमंत्री इन चुनावों में अपना ‘बहुमूल्य समय’ लगा रहे हैं तो क्या सिर्फ इसलिए कि इसके बावजूद फाइनल की साधना से जुडेÞ उनके ‘लक्ष्य’ अधूरे रह जाएं? हां, उन्हें मालूम है कि अब उनका 2014 के ‘चढ़ाव’ के ‘उतार’ से सामना है। आगे देखने की सबसे बड़ी बात यही होगी कि वे इस ‘उतार’ का सामना कैसे करते हैं?


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