हम भारत के लोग’ बेहद दर्पपूर्वक कहते हैं कि हमारा संविधान आकार में दुनिया का सबसे बड़ा लिखित संविधान है। मूल रूप से अंग्रेजी में लिखे गए इस संविधान में 117369 शब्द, 25 भाग, 395 अनुच्छेद और 12 अनुसूचियां हैं, जबकि अब तक 106 संशोधन किए जा चुके हैं।
लेकिन हममें से कम ही लोग जानते हैं कि इसके निर्माण की राह कितनी ऊबड़-खाबड़ राहों से गुजरी है और इसके निर्माताओं ने कितने कांटे बुहारकर हमें इससे उपकृत किया है। इसे जानने चलें तो हम पाते हैं कि 1946 में आजादी की आहट सूंघ रहे अविभाजित देश में छ: दिसम्बर को गठित संविधान सभा ने अपना काम शुरू ही किया था कि बंटवारे का कहर टूट पड़ा और वह भी विभाजित होने को अभिशप्त हो गई। 1946 में गठन के वक्त उसके कुल 389 सदस्यों में 15 महिलाएं थीं यानी उनका प्रतिनिधित्व चार प्रतिशत से भी कम था। विभाजन के बाद कुल सदस्यों की संख्या घटकर 299 हो गई जबकि महिलाओं की बारह। इनमें 229 सदस्य निर्वाचित होकर आये थे, जबकि 70 को मनोनीत किया गया था।
हां, इस सभा में देशी रियासतों तक के प्रतिनिधि शामिल थे, लेकिन स्वतंत्रता संघर्ष के महानायक महात्मा गांधी ने नैतिक कारणों से उसमें रहने से इन्कार कर दिया था। कहते हैं कि कांग्रेस के प्राबल्य के बावजूद सभा के सदस्यों में वैचारिक एकता या तालमेल के अभाव ने भी महात्मा को उससे दूर रहने के लिए प्रेरित किया था। अलबत्ता, उन्होंने संविधान निर्माण की शुभकामनाएं देने से गुरेज नहीं किया था।
एक और विडम्बना यह कि विभाजन के बाद बाबासाहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर भी भारतीय संविधान सभा में नहीं रह गये थे। कारण यह कि पूर्वी बंगाल का वह क्षेत्र, जिसके वोटों से वे अविभाजित भारत की संविधान सभा के लिए चुने गये थे, विभाजन के बाद पूर्वी पाकिस्तान में चला गया और वे भारतीय संविधान सभा के नहीं, पाकिस्तान की संविधान सभा के सदस्य हो गए। यह और बात है कि उन्होंने इस स्थिति को स्वीकार नहीं किया और बाद में कांग्रेस के एक सदस्य के इस्तीफे से रिक्त सीट का उपचुनाव जीतकर भारतीय संविधान सभा की सदस्यता पा ली। अनंतर, वे इस सभा की प्रारूप समिति के अध्यक्ष बने और संविधान के निर्माता कहलाए। दिलचस्प यह कि अविभाजित भारत में संविधान सभा के गठन के तीन दिन बाद नौ दिसम्बर को जिस संविधान हाल में उसकी पहली बैठक हुई, उसे बाद में संसद भवन के सेंट्रल हॉल के नाम से जाना जाने लगा। तब उस बैठक के लिए उसकी भव्यतम सजावट की गई थी। विभाजन के बाद सभा की बैठकों में जहां प्रस्तावित गणराज्य के स्वरूप, नागरिकों के मौलिक अधिकारों, राजभाषा और राष्ट्रध्वज समेत अनेक विषयों पर गर्मागर्म विचारोत्तेजक बहसें हुर्इं।
बारह महिला सदस्यों ने संख्या में बेहद मामूली होने के बावजूद सभा की कार्रवाई में समय-समय पर कई महत्वपूर्ण हस्तक्षेप किये, लेकिन अपने समुदाय यानी महिलाओं के लिए किसी भी तरह के आरक्षण की मांग नहीं की। दक्षायनी वेलायुधन ने तो अनुसूचित जातियों के लिए पृथक निर्वाचन क्षेत्रों के मुद्दे पर चली बहस में यह कहकर हैरान कर दिया कि वे किसी भी स्थान पर किसी भी तरह के आरक्षण के पक्ष में नहीं हैं। उनका कहना था कि दुर्भाग्यवश हमें आरक्षण की व्यवस्था स्वीकार करनी पड़ रही है, क्योंकि ब्रिटिश साम्राज्यवाद हमारे ऊपर कुछ ऐसे निशान छोड़ गया है कि हम हमेशा एक दूसरे से डरे रहते हैं। ऐसे में हम पृथक निर्वाचन क्षेत्रों को खत्म नहीं कर सकते और हमें इसको सहना होगा क्योंकि यह एक अनिवार्य बुराई है। अनंतर, वे बाबासाहेब के साथ मिलकर कई बहसों में जाति से जुड़े कई मुद्दों को प्रकाश में ले आर्इं। उनके विपरीत संयुक्त प्रांत (अब उत्तर प्रदेश) से आई सभा की एकमात्र मुस्लिम महिला सदस्य बेगम एजाज रसूल (मुस्लिम लीग) ने देश की राष्ट्रभाषा, राष्ट्रमंडल का हिस्सा रहने या न रहने, आरक्षण, संपत्ति के अधिकार और अल्पसंख्यक अधिकारों पर बहसों में हस्तक्षेप किया।
प्रसंगवश, सभा में बिहार से चुनकर सभा में आई मशहूर कवयित्री सरोजिनी नायडू की कवि प्रतिभा का कोई सानी नहीं था। उनकी हाजिर-जवाबी का भी नहीं। बापू उन्हें ऐसे ही ‘भारतकोकिला’ थोड़े कहते थे। कहते हैं कि वे जब भी सभा को सम्बोधित करतीं, उसके सदस्यों को, कहना चाहिए, सम्पूर्ण सदन को मंत्रमुग्ध करके रख देती थीं। संभवत: इसी कारण डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के सभा के स्थायी अध्यक्ष चुने जाते वक्त उसके अस्थायी (पीठासीन) अध्यक्ष डॉ. सच्चिदानन्द सिन्हा ने सरोजिनी को ‘बुलबुल-ए-हिन्द/द नाइटिंगेल आफ इंडिया’ कहकर बोलने के लिए आमंत्रित किया तो चुहल के इरादे से यह ‘अनुरोध’ भी कर डाला कि ‘वे हमें गद्य में नहीं, पद्य यानी कविता में संबोधित करें’। लेकिन सरोजिनी बोलने खड़ी हुई तो उनके नहले पर दहला जड़ दिया। पहले तो हंसते हुए उनके अनुरोध को असंवैधानिक करार दे डाला, फिर उनका मान रखते हुए अपनी कोई कविता सुनाने के बजाय ‘एक कश्मीरी कवि’ (पंडित ब्रजनारायण चकबस्त, जो कश्मीरी मूल के भले ही थे, उत्तर प्रदेश के फैजाबाद शहर में पैदा हुए थे।) की लोकप्रिय खाक-ए-हिंद शीर्षक रचना की ये पंक्तियां सुनाईं: बुलबुल को गुल मुबारक, गुल को चमन मुबारक, रंगीं तबीअतों को रंगेसुखन मुबारक। फिर क्या था, उन्होंने महफिल इस कदर लूट ली कि किसी को कतई पता नहीं चला कि उक्त पंक्तियां सुनाते वक्त उनकी याद्दाश्त उन्हें दगा दे गई है, जिसके चलते उन्होंने उनका क्रम उलट-पलट डाला है। मूल रचना में वे इस क्रम में हैं: शैदां-ए-बोस्तां को सर्व-ओ-समन मुबारक। रंगीं तबीअतों को रंग-ए-सुखन मुबारक।
लेकिन संविधान सभा के सबसे अलबेले सदस्य सच पूछिए तो संयुक्त प्रांत (अब उत्तर प्रदेश) से चुनकर आए लोकमान्य बालगंगाधर तिलक के दीवाने शायर हसरत मोहानी थे। पहले तो उन्होंने संविधान सभा में अपनी तीन साल की सेवाओं के बदले कोई मेहनताना लेने से साफ इन्कार कर दिया, यह कहकर कि उन्होंने जो कुछ भी किया, उसे मुल्क की खिदमत मानते हैं इसलिए उसकी एवज में कोई अपेक्षा नहीं रखते और अपनी ‘गरीबी में खुश’ हैं। फिर नेहरू के बहुत आग्रह करने लिया भी तो सिर्फ एक रुपया। ऐसा करने वाले वे सभा के इकलौते सदस्य थे।
संविधान निर्माण के बाद अपने वक्त के मशहूर कैलीग्राफर प्रेम बिहारी नारायण रायजादा ने अपने हाथ से लिखकर उसकी मूल (अंग्रेजी) प्रति तैयार की। इस काम में उन्होंने 6 महीने लगाए, 432 निबें घिसार्इं और सैकड़ों बोतल स्याही खपा डाली। लेकिन मोहानी की तरह उन्होंने भी इसकी फीस नहीं ली। बस, इतना चाहा कि उनकी लिखी प्रति के हर पेज पर उनका और अंतिम पेज पर उनके गुरु व दादा मास्टर राम प्रसाद सक्सेना का नाम रहे। उनकी इस इच्छा का सम्मान किया गया। यहां यह जानना भी दिलचस्प है कि संविधान का मसौदा बनाने में कुल मिलाकर दो साल, ग्यारह महीने और सत्रह दिन लगे थे और इस दौरान संविधान सभा के कुल मिलाकर 165 दिनों के ग्यारह सत्र आयोजित किए गए थे।