Monday, September 22, 2025
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भूख को बनाया हथियार

गजा में चार महीने से भोजन, पानी, बिजली और दवा जैसी बुनियादी जरूरतों की आपूर्ति लगभग बंद कर दी गई है। केवल सीमित मात्रा में राहत सामग्री ही अंदर जाने दी जाती है, और वह भी उन इलाकों में जहां पहुंचने के लिए नागरिकों को जान जोखिम में डालनी पड़ती है। राहत केंद्रों को सैन्य जोन में स्थापित करना केवल मानवीय सहायता की प्रक्रिया को बाधित करने की कोशिश नहीं, बल्कि भूख को प्रतिरोध तोड़ने का औजार बनाने की मंशा भी है। यह पहली बार नहीं है जब भूख को युद्ध की रणनीति के तौर पर इस्तेमाल किया गया है। लेकिन गजा में यह नीति अब इस हद तक पहुंच चुकी है कि उसे ‘जेनोसाइड’ कहा जाना ही उचित है। डॉक्टर खुद भूख से बेहाल हैं, वे चक्कर खा रहे हैं, उनकी चेतना डगमगा रही है। एक डॉक्टर ने बताया कि उसके परिवार को दो किलो आटा मिला था, जो केवल डेढ़ दिन चल सकता है। अब सोचिए कि डॉक्टर के हालात ऐसे हैं, तो आम जनता किस हाल में होगी? बच्चों को अब पाउडर दूध तक नसीब नहीं। जब मिलता है, तो वह इतना महंगा होता है कि उसे चावल के पानी से मिलाकर खींचा जाता है। लेकिन वह भी नाकाफी। फलस्वरूप, बच्चों का वजन कम होता जा रहा है, और अंतत: वे दम तोड़ दे रहे हैं।

गजा में अंतर्राष्ट्रीय कानूनों का खुला उल्लंघन हो रहा है, लेकिन अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं खामोश हैं। 1949 का जिनेवा समझौता, विशेष रूप से चौथा जिनेवा कन्वेंशन, युद्ध की स्थिति में नागरिकों की सुरक्षा को सुनिश्चित करता है। इसका अनुच्छेद 55 और 59 स्पष्ट रूप से कहता है कि कब्जे वाले क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को पर्याप्त मात्रा में भोजन, चिकित्सा और अन्य आवश्यक सेवाएं देना कब्जाधारी शक्ति की जिÞम्मेदारी होती है। लेकिन गजा में भोजन और दवा की आपूर्ति पर लगाए गए प्रतिबंध न केवल इस समझौते का उल्लंघन हैं, बल्कि जानबूझकर नागरिकों को भूखा मारने का संगठित प्रयास है। संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार घोषणापत्र 1948, का अनुच्छेद 25 हर व्यक्ति को भोजन, आवास, स्वास्थ्य सेवाएं और जीवन के लिए आवश्यक अन्य संसाधनों का अधिकार देता है। इसके अतिरिक्त, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों पर अंतरराष्ट्रीय समझौता भी इस अधिकार को सुनिश्चित करता है कि हर व्यक्ति को पर्याप्त जीवन स्तर मिले, जिसमें पर्याप्त भोजन केंद्रीय अधिकार है। गजा में जब लोग आटा, दूध और दवाओं के लिए तड़पते हुए मर रहे हैं, तो यह अधिकार केवल कुचला नहीं जा रहा, बल्कि उसे राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल भी किया जा रहा है।

गजा की धरती इस समय इतिहास की सबसे भयावह मानवीय त्रासदियों में से एक का गवाह बन रही है। ऐसी त्रासदी, जहां भूख अब संकट नहीं, योजनाबद्ध नरसंहार का औजार बन चुकी है। बच्चों की पसलियां चमड़ी से बाहर झांक रही हैं, माताएं अपने नवजातों को दूध नहीं पिला पा रही हैं, और डॉक्टर खुद चक्कर खाकर गिर रहे हैं क्योंकि पेट में कुछ नहीं है। यह प्राकृतिक आपदा नहीं, बल्कि ऐसी सत्ता की नीति है, जो भोजन और पानी जैसी मूलभूत जरूरतों को युद्ध की रणनीति में बदल चुकी है। गजा में हो रही ये मौतें केवल स्थानीय जनसंख्या की नहीं, बल्कि पूरी मानवता की चेतना की मौत हैं। गजा इस समय ऐसे दौर से गुजर रहा है, जहाँ भूख अब सिर्फ मानवीय त्रासदी नहीं, बल्कि संगठित युद्ध नीति बन गई है। यह ऐसा नरसंहार है जो गोली या बम से नहीं, बल्कि आटे, दूध, पानी और दवाओं की अनुपलब्धता से अंजाम दिया जा रहा है। एक-एक बच्चे की पसलियां उभर आई हैं, मांओं की गोदें सूख चुकी हैं, और अस्पतालों के डॉक्टर स्वयं भूख से चक्कर खाकर गिर रहे हैं। यह कोई अकाल नहीं है जिसे प्रकृति ने भेजा हो, बल्कि यह सुनियोजित नरसंहार है।

इसके अलावा अंतरराष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय की रोम संविधि, के अनुच्छेद 7 और 8 के अंतर्गत जानबूझकर भुखमरी फैलाना, जब नागरिकों को लक्षित किया जाए, मानवता के विरुद्ध अपराध और युद्ध अपराध दोनों के दायरे में आता है। गजा की परिस्थितियों में जहां भोजन की आपूर्ति रोकी गई है, किसानों की जमीनें तबाह की गई हैं, और राहत सामग्री तक पहुंचाने वालों को गोली मारी जा रही है, ये सभी कार्य अंतरराष्ट्रीय न्याय प्रणाली में अभियोजन के योग्य हैं। संयुक्त राष्ट्र की अनेक एजेंसियां और स्वयंसेवी संगठन यह स्पष्ट कर चुके हैं कि यह स्थिति मानवीय संकट नहीं, बल्कि मानव जनित त्रासदी है, जिसमें अंतरराष्ट्रीय कानूनों का खुला उल्लंघन हो रहा है और दुनिया इसे मूकदर्शक बनकर देख रही है।

इजरायली प्रशासन दावा करता है कि सीमाएं खुली हैं और सहायता पहुंचाई जा सकती है। लेकिन संयुक्त राष्ट्र साफ कहता है कि गजा में क्या, कितना और किसके जरिए पहुंचेगा, इसका पूरा नियंत्रण इजरायल के पास है। गजा में राहत सामग्री लेकर पहुंचना ‘आॅब्सटेकल कोर्स’ से गुजरने जैसा है, जिसमें सैन्य बाधाएं, सड़क की तबाही, हथियारबंद समूह और प्रशासनिक अड़चनें शामिल हैं। राहत सामग्री पर सबसे पहले हमला भूख से बेहाल नागरिक ही करते हैं, क्योंकि उनके पास कोई और रास्ता नहीं बचा है। इस अफरा-तफरी में अब तक 1000 से अधिक लोग राहत की कतारों में गोली खाकर मारे जा चुके हैं। और जो राहत केंद्र अमेरिकी निजी सुरक्षा एजेंसियां चला रही हैं, वहां ‘पहले आओ, पहले पाओ’ की नीति है, यानी जिसे ताकत है, वही जिंदा रहेगा।

पत्रकार जो इस त्रासदी को कवर कर रहे थे, अब स्वयं भूख से मरने की कगार पर हैं। एएफपी के पत्रकारों ने कहा कि उन्होंने कभी यह नहीं देखा कि उनके किसी सहयोगी को भूख से मरते देखना पड़े। अब वे देख रहे हैं, लेकिन कह नहीं पा रहे, क्योंकि बोलने की ताकत भी भूख ने छीन ली है। अंतरराष्ट्रीय मीडिया का बड़ा हिस्सा इस समय चुप है, या फिर तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत कर रहा है। वैश्विक सत्ता संरचना में जिन देशों को इजरायल की सैन्य नीति से असहमति होनी चाहिए, वे भी या तो खामोश हैं या सतही बयान देकर अपना पल्ला झाड़ रहे हैं।

यह युद्ध किसी हथियारबंद संगठन के विरुद्ध नहीं चल रहा, यह युद्ध एक विचार के विरुद्ध है; उस विचार के जो अपने लिए जमीन, पानी, घर और भोजन चाहता है। यह युद्ध उन बच्चों के विरुद्ध है जो पैदा होने से पहले ही तय कर दिए गए हैं कि उन्हें जीने का हक नहीं। गजा में हो रही मौतें प्राकृतिक नहीं हैं। वे सूखे या भूकंप से नहीं, बल्कि ऐसी व्यवस्था से हो रही हैं जो भूख को नियंत्रण का हथियार मानती है। जब किसी दो महीने की बच्ची के शरीर की सारी हड्डियां गिनी जा सकती हैं, तो वह पूरी मानव सभ्यता की विफलता है। हम यह नहीं कह सकते कि हमें पता नहीं था। तस्वीरें हैं, रिपोर्टें हैं, आंकड़े हैं, लेकिन शायद संवेदना नहीं बची। हम ऐसे दौर में जी रहे हैं जहां भूख सबसे सस्ता हथियार बन चुका है, और सबसे कीमती चीज-चुप्पी। उन बच्चों की आंखें हमें देख रही हैं। सवाल पूछ रही हैं कि हम क्यों चुप हैं? अगर जवाब नहीं है, तो कम से कम उनकी भूख को देखकर कुछ कहें, कुछ करें।

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