Wednesday, April 16, 2025
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वसु का कुटुम और कुटुम की आयरनी!


सुधांशु गुप्त
सुधांशु गुप्त

मृदुला गर्ग हिंदी की उन कथाकारों में हैं, जिन्हें लेखन में प्रयोग करने से कोई गुरेज नहीं है। वह लेखन में कितनी साहसी हैं, यह हम चित्तकोबरा में देख चुके हैं। उनका लेखकीय साहस आज भी जस का तस है। अपने सभी उपन्यासों में वह बंधी-बंधाई लीक तोड़ती दिखाई देती हैं। लीक पर चलना उन्हें नहीं सुहाता। उसके हिस्से की धूप, वंशज और कठगुलाब जैसे उपन्यासों में उन्होंने हर बार नई रेखा खींची है। अपने लेखन में भी वह समाज और राजनीति से तटस्थ नहीं हैं। एक और अच्छी बात मृदुला गर्ग के साथ यह है कि उनकी कहानियों या उपन्यासों में विचार या विमर्श आरोपित नहीं होता, बल्कि वह कथा में से खुद पैदा होता है।
कोरोना काल में उनके छोटे से उपन्यास ‘वसु का कुटुम’ (राजकमल प्रकाशन) पर बात करने से पहले यह बताना भी जरूरी है कि यह उपन्यास या लंबी कहानी बोल कर लिखवाई गई है। बोल कर लिखवाने का शायद एक यह फायदा भी है कि कथा का प्रवाह बाधित नहीं होता। शब्द सीधे यात्रा करते हैं, मशीन (कंप्यूटर) आपकी किस्सागोई में अवरोध उत्पन्न नहीं करती। लिहाजा उनमें एक प्रवाह बना रहता है। किस्सागोई अपने पूरे प्रभाव के साथ श्रोताओं (यहां पाठकों) को अपनी ग्रिप में लेती है। बकौल मृदुला गर्ग, प्रतिरोध, परकाया प्रवेश और आयरनी, ये तीन तत्व मेरी सभी रचनाओं के अंग रहे हैं। मृदुला गर्ग की भाषा में एक खास तरह का तंज है। बहुत-सी राजनीतिक बातें जो स्पष्ट नहीं कही जा सकती, उन्हें वह व्यंग्य के जरिय पाठकों तक पहुंचाया सकती हैं। ‘वसु का कुटुम’, के इस मुख्तसर से किस्से का फलक कैसे कथा के साथ-साथ आगे बढ़ता है, फैलता है, और आपके भीतर हास्य विनोद, दुख और रोष पैदा करता है, यही इसकी ताकत है।
इस किस्से की शुरूआत सहज ढंग से होती है। बीके सपोत्रा नामक एक बिल्डर मकान बनवा रहा है। जाहिर है किसी मकान को गिरवा कर मकान बनवाया जा रहा है। सपोत्रा तीन तल्ले का घर बनवा रहा है। घर नहीं मकान बनवा रहा है। मृदुला गर्ग के शिल्प का जादू धीरे-धीरे पाठक को अपनी ग्रिप में ले लेता है। लगता है शायद यह बिल्डर की दुनिया के भ्रष्टाचार को उजागर करने वाला किस्सा होगा। लेकिन इस कथा में उप-कथाएं निरंतर जुड़ती चली जाती हैं। एक झक्की औरत दामिनी एक दुकानदार-राघवन से भी हमेशा बहस करती रहती है। राघवन भी उसे झक्की औरत समझता है। दामिनी जब कई दिन तक दुकान पर नहीं आती तो राघवन परेशान होकर उसके घर पहुंच जाता है। दामिनी और राघवन के बीच ‘वसुधैव कुटुंबकम’ के तहत एक रिश्ता बन जाता है। आप सोचते हैं कि शायद यहां कोई प्रेम कहानी जन्म लेगी, लेकिन प्रेम कथा को सीमित कर देता है। इस किस्से में नए किरदार आते हैं। रत्नाबाई और नज्मा। पता चलता है कि दामिनी ‘बेकायदा एनजीओ’ में काम करती है। दामिनी दमे की मरीज है। दामिनी का इस बात को लेकर विरोध है कि सपोत्रा के बन रहे मकान में चारों तरफ बाड़ क्यों नहीं लगवाई गई। इसकी वजह से ही धूल धक्कड़ उड़ कर लोगों को बीमार कर रही है। अब दामिनी के दमे का इलाज करवाना जरूरी है। अब फ्रेम में एनजीओ और उसकी कर्ताधर्ता मीरा राव आती हैं। मीरा राव बताती हैं कि उनका मोटो है ‘वसुधैव कुटुंबकम’। रत्नाबाई इसे वसु का कुटुम उच्चारित करती हैं। यह भी अनायास नहीं है बल्कि एक नए अर्थ दे रहा है। वसुधैव कुटुंबकम का अर्थ है कि पूरी दुनिया एक परिवार है। वसु का कुटुम समाज और इस परिवार में बढ़ती सिर्फ और सिर्फ अपने बारे में ही सोचने की नयी संस्कृति का प्रतीक है। इस किस्से से एनजीओ की दुनिया के पाखंड उजागर होते हैं। दामिनी के इलाज के नाम पर चंदा बटोरा जाता है। इसमें राघवन भी अपनी एक सोने की गिन्नी दे देता है। लेकिन दामिनी मर जाती है। रत्नाबाई राघवन की गिन्नी लेने एनजीओ के आॅफिस जाती है और तांडव करते शिव की तरह नृत्यु करते हुए उसकी मृत्यु हो जाती है। यहां एनजीओ की असली दुनिया सामने आती है। पाठकों (श्रोताओं) को लगता है कि अब किस्सा खत्म हुआ, लेकिन यहां से एक नयी दुनिया खुलती है। यह दुनिया है टेलीविजन की दुनिया। यहां टीआरपी के लिए कुछ भी किया जाता है किया जा रहा है। उन्हें लगता है कि इस किस्से में टीआरपी की अपार संभावनाएं हैं। मृदुला गर्ग टीवी की दुनिया का असली चेहरा सामने लाती हैं। टीवी डिबेट में वरिष्ठ पत्रकार हिंदीश एक-एक करके डिबेट में सबको बुलाता है। एनजीओ का चपरासी रमलखन, जिसका सपना था कि कभी वह विद्वान टीवी एंकरों के सामने बैठ कर डिबेट में शामिल हो, वह भी इस डिबेट में शामिल हो जाता है। राघवन, नजमा, सपोत्रा का बेटा और वे सभी लोग जो टीआरपी बढ़ा सकते हैं डिबेट में शामिल होते हैं। यहां फार्सीकल अंदाज में यह दिखाई पड़ता है कि किसी भी चैनल की रुचि घटना की सच्चाई तक जाना नहीं है। सबका मकसद टीआरपी बटोरना ही है।
विडंबनाएं अपने खास शिल्प में सामने आती रहती हैं। इस किस्से का अंत होता है रामलखन के प्रवचनों से। रामलखन को देश का भावी प्रधानमंत्री तक घोषित कर दिया जाता है। दरअसल किसी भी किस्से का कभी अंत नहीं होता। यह किस्सा भी किसी फिल्म की तरह फार्सीकल अंदाज में मौजूदा समाज की विसंगितयों को चित्रित करता है, नितांत नयी शैली और नई भाषा में। दिल्ली के कुख्यात सामूहिक बलात्कार कांड की शिकार दामिनी उर्फ निर्भया को मृदुला गर्ग अपनी सहूलियत से पुनर्जीवित करती हैं। दामिनी के माध्यम से वह बलात्कार की शिकार निर्भया से जुड़ी सच्चाइयों को भी उजागर करती हैं।
वसु का कुटुम को पढ़ना या सुनना जीवन के विभिन्न पक्षों को, विसंगतियों को, असंगतियों को, विडंबनाओं को इस रूप में देखना है कि यह सब आपके भीतर हास्य भी पैदा करे और सोचने के लिए भी बाध्य करे। कथ्य के साथ यहां भाषाई जादू आपको यहां देखने को मिलेगा। हिन्दी में फार्सीकल उपन्यास लिखने की परंपरा बहुत गहरी नहीं है। लेकिन वसु का कुटुम इस दिशा में महत्वपूर्ण उपन्यास है।

फीचर डेस्क Dainik Janwani

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