- 2013 के दंगों के इनाम में मिला था खतौली विधानसभा का टिकट
- हेट स्पीच में सजा होने के बाद समाप्त हो गयी थी विधायकी
जनवाणी संवाददाता |
मुजफ्फरनगर: कहते हैं मौहब्बत से दुश्मनों का भी दिल जीता जा सकता है,परन्तु नफरत से तो अपने भी साथ छोड़ देते हैं। ऐसा ही कुछ हुआ खतौली से दो बार विधायक का चुनाव जीते विक्रम सैनी के साथ। विक्रम सैनी की राजनीति की नींव रखी गयी थी 2013 के दंगों से , जहां पर विक्रम सैनी ने नफरती भाषा का इस्तेमाल कर लोगों में अपनी पहचान बनाने का प्रयास किया था और वह इस प्रयास में काफी सफल भी हुए थे।
जिला पंचायत सदस्य से लेकर विधायकी तक का सफर उन्होंने तय किया था, परन्तु यह सफर ज्यादा नहीं चल पाया और अंत में उन्हें उनके अपनों ने ही ठुकरा दिया। 2013 में जब मुजफ्फरनगर में दंगे हो रहे थे, उस समय ना केवल जनपद मुजफ्फरनगर की राजनीति, बल्कि देश की राजनीति भी अंगड़ाई ले रही थी। दंगों की इन्हीं हवाओं के बीच एक राजनेता उभर रहा था, जिसका नाम था विक्रम सैनी।
कवाल गांव के प्रधानपति व जिला पंचायत सदस्य विक्रम सैनी ने कवाल कांड के बाद अपनी जुबान से जो जहरीले बाण छोड़े थे, उन्होंने मुजफ्फरनगर से लेकर लखनउ व दिल्ली तक की राजनीति में हलचल मचाई थी। विक्रम सैनी ने जेल की भी हवा खाई थी और यहीं से इनकी राजनीति का उदय हुआ था। 2013 के दंगों के बाद 2014 में लोकसभा चुनाव हुए और इस चुनाव में दंगों के जख्मों पर मरहम लगाया गया और भाजपा पूर्ण बहुमत से सत्ता में आई।
दंगों के इनाम के रूप में मिला था विधानसभा टिकट
2016 में विधानसभा चुनाव हुए, तो ऐसे में विक्रम सैनी को भी उनका इनाम दिया गया और उन्हें खतौली विधानसभा से टिकट दिया गया। मोदी व योगी लहर में विक्रम सैनी विधायक बन गये, परन्तु विधायक बनने के बाद भी वह अपनी राजनीति में परिपक्वता नहीं ला पाये, जिसका नतीजा यह हुआ कि 2022 में उन्हें लोगों का विरोध झेलना पड़ा, परन्तु फिर भी भाजपा के नाम पर व योगी व मोदी की मोहब्बत में भाजपा के परम्परागत वोटर ने उनकी नाराजगी को दरकिनार कर एक बार फिर विक्रम सैनी को विधानसभा तक पहुंचा दिया।
दंगों के कारण ही गयी विधायकी
कहते हैं कि करनी का फल भेगना पड़ता है। विक्रम सैनी को उन्हीं दंगों के मामले में एक कोर्ट ने सजा सुना दी, जिन दंगों ने उन्हें एक आम आदमी से विधायक तक का सफर तय कराया था। सजा होने के बाद विक्रम सैनी की सदस्यता समाप्त हो गयी और फिर से वह आम आदमी बन गये। विक्रम सैनी को किस्मत ने एक मौका और दिया उनकी पत्नी को भाजपा ने उपचुनाव में अपना प्रत्याशी बनाया, परन्तु इस बार भाजपा के परपम्रागत वोटर ने पार्टी मोह से ज्यादा प्रत्याशी विरोध को तवोज्जो दी और मतदान ही नहीं किया या फिर प्रत्याशी के खिलाफ मतदान कर दिया, परिणाम यह हुआ कि वह अपनी पत्नी को विधायक नहीं बना पाये और उनकी पत्नी चुनाव हार गयी। चर्चाएं हैं कि विक्रम सैनी का राजनीतिक सफर भी थम सा ही गया है।