Sunday, June 1, 2025
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भाजपा का क्या है प्लान?

Samvad 1


ashok bhatiyaराजनीतिक समीकरण तेजी से बदल रहे हैं। विपक्ष की पटना और बेंगलुरु में हुई बैठक ने भाजपा में हलचल बढ़ा दी है। राजनीतिक जानकार मानते हैं कि भाजपा के लिए चुनाव जीतना अब तक तो बहुत मुश्किल नजर नहीं आ रहा, लेकिन उसके लिए चैलेंज है कि कैसे वो अपनी सीटों को कम होने से रोके। जानकारों का कहना है कि अगर भाजपा की 40-50 सीटें कम हो जाती हैं तो इससे देश की तमाम संस्थाओं में ये संदेश चला जाएगा कि भाजपा को लेकर अब वो माहौल नहीं रहा जो 2014 से 2019 के चुनावों में था। भाजपा ऐसा होने के रिस्क को कम करने के लिए पुरजोर कोशिश कर रही है। उधर विपक्ष के लिए ये लोकसभा चुनाव करो या मरो वाले स्थिति है क्योंकि अगर तीसरी बार भाजपा सत्ता में आई तो ये पार्टियां खत्म होने की कगार पर आ जाएंगी।

साल 1998 में जब एनडीए बना था तो इसमें 24 पार्टियां शामिल हुर्इं थीं, लेकिन उस समय के एनडीए और आज के एनडीए में काफी बदलाव आ चुका है। आज भाजपा के साथ शिवसेना (अविभाजित), जनता दल यूनाइटेड, अकाली दल जैसे उसके सहयोगी रहे दल साथ नहीं हैं। ऐसे में अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा एनडीए को एक बार फिर बनाने और इसका विस्तार करने में जुट चुकी है।

भाजपा की हालिया कोशिश उत्तर प्रदेश में रंग लाई है जहां पूर्वांचल की राजनीति में बड़ा नाम ओम प्रकाश राजभर ने लोकसभा चुनाव से पहले एक बार फिर पाला बदल लिया है और अब फिर एनडीए में शामिल हो चुके हैं। ओमप्रकाश राजभर की एनडीए में एंट्री ना सिर्फ ये बताती है कि जातीय समीकरण की राजनीति में वो कितना दम रखते हैं, बल्कि ये पता चलता है कि कैसे भाजपा छोटे-छोटे दलों को अपने करीब लाने में जुटी हुई है।

कर्नाटक में हुई हार के बाद भाजपा ये समझ चुकी है कि उसे पार्टियों के साथ की जरूरत है। खासकर दक्षिण में जहां भाजपा उत्तर भारत के मुकाबले कमजोर है और क्षेत्रीय दल काफी दक्षिण में 130 लोकसभा सीटें हैं। यहां भाजपा की मुख्य सहयोगी पार्टी एआईएडीएमके है जिसने 2019 के लोकसभा चुनाव में तमिलनाडु में 39 सीटें जीती थीं।

तेलंगना में भाजपा टीडीपी के बीच गठबंधन को लेकर बातचीत चल रही है। भाजपा ने बीते लोकसभा चुनाव में खुद के दम पर 303 सीटें जीती थीं, भाजपा का वोट शेयर 37 फीसदी था। ऐसे में उसे आखिर गठबंधन की जरूरत क्यों है? जानकारों का कहना है कि भले ही भाजपा आज भी इस स्थिति में नजर आती है कि वो सरकार बना सकती है, लेकिन सबसे अहम ये है कि विपक्ष जिस तरह से एकजुट हो रहा है उसे देखते हुए भाजपा एनडीए का वर्चुअल पुर्नगठन कर रही है।

भाजपा कोई रिस्क नहीं लेना चाहती, उसे पता है कि नरेंद्र मोदी जितनी लोकप्रियता वाला नेता देश में कोई और नहीं है लेकिन फिर भी वो तमाम छोटे दलों को दिल्ली की बैठक में बुलाया था। इनमें से कई पार्टियों के पास लोकसभा में एक-दो सीटें हैं कुछ के पास तो एक भी सीट नहीं है। भाजपा का कहना है कि विपक्ष के 26 के सामने 38 पार्टियां उसके डिनर मीटिंग में शामिल हुई हैं।

पटना में बैठक के बाद भाजपा ने ये हलचल तेज की है। राजनीति नजरिए का खेल है। ये संदेश देना ज्यादा अहम माना जाता है कि किसके पास कितने पार्टियों का समर्थन है। हालांकि कुछ ऐसे भी राज्य हैं जहां भाजपा ने अकेले चुनाव लड़ने के संकेत दिए हैं। मसलन हरियाणा जहां अमित शाह ने अपनी हालिया रैली में कहा कि-सभी दस सीटें भाजपा को दें।

यहां मनोहर लाल खट्टर की सरकार जननायक जनता पार्टी के साथ गठबंधन में है, लेकिन अटकलें हैं कि लोकसभा चुनाव दोनों पार्टियां अलग-अलग लड़ सकती हैं। वहीं अटकलों का बाजार गरम है कि कर्नाटक में जेडीएस लोकसभा चुनाव भाजपा के साथ लड़ सकती है।

यूपी और बिहार में कई पार्टियां ऐसी हैं जिसने लोकसभा चुनाव एनडीए का हिस्सा बन कर लड़ा, लेकिन राज्य के विधानसभा चुनाव में या तो वो विपक्षी खेमे में चली गर्इं या चुनाव के बाद पाला बदल लिया। जेडीयू, एलजेपी इसके उदाहरण हैं। जो पार्टियां भाजपा से दूर गर्इं थीं, उनका कोई बहुत बड़ा विचारधारा का मतभेद नहीं था।

अगर ओमप्रकाश राजभर की ही बात करें तो उन्होंने उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव से पहले एनडीए ये सोचकर छोड़ा होगा कि अखिलेश यादव के चुनाव जीतने पर उनको कोई अहम पद मिल जाएगा।

विधानसभा चुनावों में क्षेत्रीय पार्टियों का अलग हो जाना आम बात है, क्योंकि विधानसभा में सीटें अधिक होती हैं इस सीटों पर जाति और पहचान की राजनीति करने वाली पार्टियों के लिए जीतने के मौके अधिक होते हैं। 30 साल का इतिहास देख लें तो पता चलता है कि विधानसभा चुनावों में क्षेत्रीय पार्टियों का वोट शेयर बढ़ता है और लोकसभा चुनावों में इन्हीं पार्टियों का वोटशेयर घटता है।

राजनीतिक विश्लेषक ये भी कहते हैं कि बीते दो आम चुनाव में देखा गया है कि जनता नरेंद्र मोदी के नाम पर वोट देती है और उनकी लोकप्रियता में कोई बड़ा बदलाव नहीं आया है ऐसे में क्षेत्रीय पार्टियां भी इस बात को समझते हुए एनडीए में जाती हैं।

इस साल मई में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ बैठक की थी, इस बैठक में एक खास संदेश दिया गया कि क्षेत्रीय दलों के बीच भाजपा को लेकर एक धारणा बन रही है कि वह इन पार्टियों को ‘सहयोगी दल बनाने के लिए बहुत इच्छुक नहीं है।’

इस धारणा को तोड़ना था। दरअसल भाजपा के संदर्भ में छोटी पार्टियों को एक डर ये है कि अगर वो अपने दम पर अधिक सीटें ले आईं तो उसे इन दलों की जरूरत नहीं होगी पर अतीत में सबने देखा है कि भाजपा ने अपने पुराने और घनिष्ठ सहयोगियों को भी बांध कर रखने की कोशिश की।

अब भाजपा के पास छोटी पार्टियों को जोड़ने का एक बड़ा फायदा ये है कि छोटे दलों को कंट्रोल करना बड़े दलों की तुलना में अधिक आसान है। बदले में इन पार्टियों को राष्ट्रीय प्लेटफॉर्म मिलता है। ये गठबंधन जो हो रहे हैं या जो हुआ हैं, वो विचारधारा के गठबंधन नहीं हैं वो मौके को ध्यान में रख कर किए जाते हैं। इसलिए हम देखते हैं कि रातों-रात कैसे दल पाले बदलते हैं। ये 90 का दशक नहीं है जब वैचारिक तौर पर गठबंधन किए जाते थे।

दिलचस्प बात यह है कि यह पहली बार नहीं है कि एनडीए के पुराने साथी जरूरत की घड़ी में भाजपा की मदद के लिए एक साथ आए हैं, भले ही दोनों पक्षों के बीच कोई औपचारिक गठबंधन नहीं है। नए संसद भवन का उद्घाटन एक और घटना थी जब सत्तारूढ़ भाजपा के साथ गठबंधन में या उसके मित्रवत राजनीतिक दल आधिकारिक समारोह के लिए उपस्थित थे।

भाजपा नेता ने एक बार कहा था कि अगर भाजपा को टीडीपी और वाईएसआरसीपी के बीच चयन करना है तो अधिकांश नेता टीडीपी के साथ गठबंधन करने के इच्छुक होंगे। इसका सीधा सा कारण यह है कि हम अतीत में गठबंधन में रहे हैं और यह एक अच्छा कामकाजी रिश्ता था।


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