Friday, July 18, 2025
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कला व साहित्य हाशिये पर क्यों ?

Ravivani 32


प्रकाश चंद्रायन |

धर्मयुग से सेवानिवृत्ति के बाद उसके संपादक डॉ. धर्मवीर भारती ने कहा था कि पत्रिकाओं के बंद होने के बाद अखबारों के ‘चौपनिया’ परिशिष्ट कला-साहित्य की गति को मंद नहीं होने देंगे, लेकिन मुख्यधारा का पाठक-दर्शक उस गति को बढ़ाना तो दूर बचा भी नही सका। जाहिर है कि न राजेंद्र माथुर का पाठकीय जनतंत्र बचा, न धर्मवीर भारती का चौपनिया। सोशल मीडिया भी कितना बचेगा? इलेक्ट्रनिक मीडिया तो पहले ही मसाला बना हुआ है।

अपनी हिन्दी के एक प्रतिष्ठित संपादक हुआ करते थे-राजेंद्र माथुर। उनका कहना था कि अखबार ‘पाठकीय जनतंत्र’ हुआ करते हैं। लेकिन इस जनतंत्र को अब किस हाल में पहंचा दिया गया है, इसे इस बात से समझ सकते हैं कि आज मुख्य धारा के प्रसार माध्यमों के पाठकों-दर्शकों से पूछा जाए कि विगत चार-पांच दशकों में पठनीयता और दर्शनीयता के तौर पर उनसे क्या-क्या छीना और क्या-क्या थोपा गया है, तो उपयुक्त जवाब तो नहीं ही मिलता, जबकि एकाधिकारवादी प्रसार माध्यमों द्वारा व्यावसायिक दबावों और सत्ता-साहचर्य के कारण पाठक-दर्शक को मानसिक बौनेपन में धकेलने की मूल वजह यह है कि विखंडित पाठकीय और दर्शकीय समाज ने अपनी इच्छाशक्ति खो दी है और महज उत्तेजक धार्मिक उपभोक्ता बनता गया है। इसको प्रसार माध्यमों में कला-साहित्य सम्बन्धी विषयवस्तु के विलोप में सहज ही देख सकते हैं।

1947 के बाद करीब तीन दशकों तक प्रसार-माध्यमों में कला-साहित्य को सम्मानजनक स्थान मिला करता था। तब भारतीय समाज का पहला शिक्षित उच्चवर्ग-वर्ण हिस्सा अपना कला-सांस्कृतिक दखल बनाए रखता था। प्रसार-माध्यमों का स्वामित्व भी इसी तबके के घरानों के हाथ में था। इसलिए वह अपनी सांस्कृतिक-संस्कारिक पहचान और वर्चस्व बनाए रखने के लिए प्रस्तुत रहता था। तमाम सत्ताओं पर भी इसी प्रभुत्वकारी तबके की हैसियत थी, इसीलिए उन्हें अपना वैविध्य प्रकट करने, सुरक्षित और संरक्षित करने की खुली छूट हासिल थी। साहित्य, कला, संगीत, नाटक, सिनेमा, नृत्य आदि सभी विधाओं में निवेश और प्रचार की सुविधा भी। यही वर्ग लिखता था और यही वर्ग पढ़ता था, यही वर्ग प्रस्तुति देता था और समीक्षा भी करता था। जनमाध्यम होने के बावजूद यहां शास्त्रीय और अभिजनरुचियों को ही आरक्षण था। इस एकछत्रता को प्रसार माध्यमों का स्वर्णयुग कहा गया, जबकि दूसरा पक्ष इसे सवर्ण युग मानता है।

लेकिन स्वतंत्रोत्तर भारत की दूसरी बेचैन पीढ़ी 1967 में हर सुरक्षित दुर्ग पर दस्तक देने और सवाल उठाने लगी। इसकी धमक कला-साहित्य की विधाओं और प्रकाशनों पर भी पड़ी। तब नए मानदण्डों-विचारों-आशयों ने खुद को अभिव्यक्त करना शुरू किया। मोहभंग से उत्पन्न कला-साहित्य यह मांग करने लगे कि नई आवाजों/सूचनाओं को जगह मिले। बड़े घरानों की पत्र-पत्रिकाओं ने तब भी उन्हें हाशिये पर ही जगह दी, क्योंकि मुकम्मल जगह देने से उनके बहुआयामी हित टकराते थे। प्रतिरोध में लघुपत्रिकाओं का आंदोलन आया, लेकिन उसके संसाधन और पहुंच सीमित थे। फिर भी समांतर कोशिशें जारी रहीं। समांतर धाराओं को भी प्रस्थापित मंचों ने आंशिक समायोजित किया, ताकि नए पाठक-दर्शक वर्ग में अपनी पैठ बनाकर उन्हें अनुकूलित किया जा सके। लेकिन बाद में उन्होंने वर्गीय-वर्णीय हित में रणनीति बदल ली और अपसंस्कृति को बढ़ाना शुरू किया। उनके तर्इं जनरुचियों पर यह बमबारी जरूरी थी अन्यथा सत्ताप्रतिष्ठानों और अधिरचना (सुपरस्ट्रक्चर) में उनके पेंच खुल सकते थे। इससे बचाव के लिए ऐसे कला-साहित्य की जरूरत प्रसार-माध्यमों को पड़ी, जो मनोविकृतियों को बढ़ाएं। इसे बढ़ाते हुए तर्क गढ़ा गया कि यही लोकप्रिय आस्वाद है। इस अभियान में पश्चिमी कला-साहित्य के बाजार का भी सहारा लिया गया।

टीवी पत्रकारिता का विस्फोट होते ही व्यावसायिक घरानों द्वारा अपनी पत्रिकाएं बंद और दैनिकों के रविवासरीय परिशिष्ट खत्म किए जाने लगे। संपादकीय पृष्ठ भी खानापूरी भर रह गये। यह खेल इसलिए सफल हुआ क्योंकि विखंडित समाज और साहित्य-कला का स्वाभाविक रिश्ता टूटा और इसे खंडित करने में बाजार ने निर्णायक भूमिका निभाई। बाजार को एक शून्य चाहिए था, जिसे वह मनमाफिक उपभोक्तावाद से भर सके। व्यक्ति इसका शिकार हुआ और पठनीयता व दर्शनीयता बाजारू हो गई। अंग्रेजी पत्रों में भी यही घटित हुआ। वहां तो पहले से ही उपभोक्तावर्ग मौजूद था। उस तबके की कलात्मक रसिकता और साहित्य को टिकाने के लिए इंडो इंगलिश लेखकों की फौज खड़ी की गई जो भारतीय आख्यानों को अंग्रेजी मुहावरे में पढ़ा-दिखा सके। इस वर्ग को इससे छद्मपश्चिमी स्वाद मिला ताकि ये अपने को विशिष्ट मान सके। इन्हें कल्पनालोक मिल गया। उनकी उपनिवेशित मानसिकता को खुराक मिल गई।

इस परिघटना के बावजूद देश के भाषाई इलाकों में एक बड़ा तबका शिक्षित हुआ जो अपना आख्यान, विमर्श, कला, कविता, नाटक, सिनेमा, आदि जानना-पढ़ना-देखना चाहता था, लेकिन उसके पास बड़ा मंच नहीं था। यह निम्नवर्गीय नवागत पाठक-दर्शक-संसार बना। जब यह वृहत्तर हाशिया उपस्थित हुआ तो इनके बीच से साहित्यकार-कलाकार आए। उन्होंने अपने दायरे में खुद को अभिव्यक्त किया। एक ऐसा संसार बनाया, जिसमें आक्रोश, बेचैनी और गर्जना तीनों है। अपने अंतर्विरोधों को इसने पहचाना और उपलब्ध माध्यमों से अभिव्यक्त किया। हालांकि मुख्यधारा ने इन्हें उपेक्षित किए रखा क्योंकि इससे अभिजन सांस्कृतिक अत्याचारों पर सवाल उठता था। इसलिए कुलीन कला-साहित्य के संरक्षकों ने इन्हें खांचे में डालना जारी रखा। दलित साहित्य, आदिवासी साहित्य, स्त्री साहित्य, तृतीयपंथी साहित्य, बहुजन साहित्य आदि वर्गीकरण किए गए। ऐसा ही वर्गीकरण कलाओं का भी हुआ। इस वर्गीकरण से भी बाजार ने लाभ लिया। उन्हें उत्पाद के बतौर पेश किया गया, लेकिन वृहत्तर मुख्यधारा समाज से वह अलग-थलग ही रखा गया। यानी कला-साहित्य का भी वर्णाश्रम बन गया।

अधिरचना/सुपर स्ट्रक्चर में इस परिवर्तन के पीछे मूलाधार का बड़ा परिवर्तन घट चुका है। आर्थिक शक्तियों ने राजनीतिक शक्तियों पर कब्जा कर लिया है। राजनीतिक शक्तियां धर्म के समक्ष घुटने टेक चुकी हैं। धर्म लुटेरे पूंजीवाद का वाहक हो रहा है। संस्कृति विभिन्न धर्मयुद्धों का स्थल बन रही है। भाषा का हनन चरमविंदु पर है। वंचित सामाजिक घटक अपना-अपना हिस्सा मांग रहे हैं। नैतिक नियंताओं ने नैतिकता के जो मानदंड बनाए थे, वही अब उसे छिन्न-भिन्न कर चुके हैं। अन्याय ही न्याय की जगह लेता जा रहा है। वर्चस्ववाद हर क्षेत्र में आक्रामक रूप से काबिज हो चुका है। उसने पाठक-दर्शक वर्ग को मानसिक तौर पर दिवालिया और आक्रामक बनाने का अभियान चला रखा है। इसके प्रतिरोध में जो पाठक दर्शकवर्ग खड़ा हो रहा है वह मंचविहीन होकर सोशल मीडिया में जा रहा है, लेकिन उसमें स्थायित्व नहीं है और क्षण भंगुरता अंतत: यथास्थितिवाद के लिए लाभप्रद है।

इसमें शक नहीं कि एकाधिकारवादी मुख्यधारा से वंचित हाशिया और अस्मितावादियों को सोशल मीडिया में मुखरता मिली और वे कहने लगे कि सोशल मीडिया ही जनतांत्रिक मीडिया है, लेकिन वे सामाजिक-सांस्कृतिक विषमता पर केंन्द्रित रहे और आर्थिक सांस्थानिक विषमता को अपेक्षाकृत स्वर नहीं दिया। उनके इस तर्क का आधार यही है कि जब जीवन ही उत्पीड़ित है तो कला और साहित्य की अभिव्यक्ति भी संकटग्रस्त ही रहती है। बावजूद इसके वे कला और साहित्य को स्थान दे रहे है। चूंकि उनके स्वर भिन्न हैं, आम दर्शक और पाठक को सहज नहीं लगते क्योंकि शक्तिशाली मीडिया द्वारा निर्मित रुचियों को मोड़ना कठिन होता है। महत्वपूर्ण यह भी है कि सोशल मीडिया संचालक मंच वैश्विक पंूजीवाद ने उपलब्ध कराया है। इसलिए यह याराना पूंजीवाद का विरोधी मंच नहीं है और जिन पुराने पूंजीवादी मंचों ने अस्मितावादी कला-साहित्य की उपेक्षा की है, वे वैश्विक पूंजीवादी मंचों की असीमित सक्रियता को भी बाधित और विपथ करते रहेंगे।
धर्मयुग से सेवानिवृत्ति के बाद उसके संपादक डॉ. धर्मवीर भारती ने कहा था कि पत्रिकाओं के बंद होने के बाद अखबारों के ‘चौपनिया’ परिशिष्ट कला-साहित्य की गति को मंद नहीं होने देंगे, लेकिन मुख्यधारा का पाठक-दर्शक उस गति को बढ़ाना तो दूर बचा भी नही सका। जाहिर है कि न राजेन्द्र माथुर का पाठकीय जनतंत्र बचा, न धर्मवीर भारती का चौपनिया। सोशल मीडिया भी कितना बचेगा? इलेक्ट्रनिक मीडिया तो पहले ही मसाला बना हुआ है।


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