Friday, May 30, 2025
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शिक्षकों में जातिगत भावना क्यों?

Samvad


PANKAJ YADAVजहां एक ओर पूरा देश स्वतंत्रता प्राप्ति की 75वीं वर्षगांठ के अवसर पर आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है, वहीं बीते सप्ताह राजस्थान के जालौर में घटित हुई एक घटना ने पूरे देश के सामने एक यक्ष प्रश्न खड़ा कर दिया है कि क्या 75 वर्ष बीत जाने के बाद भी हमारे समाज की अंतिम पंक्ति में खड़ा व्यक्ति भी आजादी का अनुभव कर पा रहा है? जालौर (राजस्थान) की घटना की बात की जाए तो सायला क्षेत्र के सुराणा स्थित सरस्वती विद्यालय के शिक्षक अभियुक्त छैल सिंह पर आरोप है कि उसने 20 जुलाई को तीसरी कक्षा में पढ़ने वाले दलित छात्र इंद्र कुमार मेघवाल द्वारा शिक्षक की मटकी से पानी पी लेने के कारण इतना पीटा कि 23 दिन इलाज चलने के बाद इस 8 वर्षीय दलित छात्र ने दम तोड़ दिया। दलित बच्चे की मौत के बाद आरोप यह भी लगाए जा रहे हैं कि शिक्षक छैल सिंह द्वारा बच्चे के परिजनों से डेढ़ लाख रुपये के बदले समझौता करने के प्रयास भी किया। हालांकि इन आरोपों के इतर सम्बन्धित विद्यालय प्रशासन द्वारा यह धारणा विकसित करने के भी प्रयास किए जा रहे हैं कि सम्बन्धित विद्यालय में मटकी जैसी कोई चीज थी ही नहीं और बच्चे की मृत्यु का कारण उसकी कोई पुरानी चोट भी रही है। लेकिन बाबजूद इन सब आरोप-प्रत्यारोपों के यदि यह आरोप सत्य है तो निश्चित ही यह घटना किसी भी सभ्य लोकतांत्रिक, समावेशी और विभिन्नताओं से भरे समाज के लिए शर्म का विषय होनी ही चाहिए।

यह घटना पूरे के पूरे मानव समाज के लिए इसलिये भी शर्म का विषय होनी ही चाहिए कि इस घटना का आरोपी स्वयं शिक्षक है और उसने सिर्फ जातिवादी मानसिकता के कारण एक मासूम को पानी पीने के बदले ऐसी सजा दी कि बच्चे ने अपनी जान गवां दी। जबकि शिक्षकों को स्वयं सामाजिक परिवर्तन के अभिकर्ता के रूप में देखा जाता है।
गौरतलब यह भी है कि भले ही हम सामान्य तौर पर दलितों को ही जातिगत भेदभाव का शिकार होते हुए देखते हों लेकिन तमाम ऐसे मामले भी हैं, जहां अन्य जातियों के लोगों को भी जातिगत भेदभाव और जातिसूचक अपशब्दों का इस्तेमाल करते हुए आसानी से देखा जा सकता है, हाल ही में जब कथित तौर पर भाजपा नेता श्रीकान्त त्यागी का एक महिला के साथ अभद्रता करते हुए वीडियो वायरल हुआ तब भी देखा गया कि एक सवर्ण जाति के व्यक्ति द्वारा भी दूसरे सवर्ण को जातिसूचक शब्दों को इस्तेमाल करते हुए गालियां दी जा रहीं हैं। दरअसल भारतीय समाज में जातिवाद इस स्तर तक अपनी जड़ें जमाए हुए है कि आमतौर पर सभी जातियों से जुड़े लोगों को लगता है कि उनकी जाति ही सर्वश्रेष्ठ है।

हालांकि यह जांच का विषय है कि इंद्र कुमार मेघवाल के परिजनों द्वारा लगाए गए आरोप सत्य हैं भी या नहीं और यह मान भी लिया जाए कि इस घटना में जातिगत भेदभाव जैसा कोई पुट नहीं है, तब भी हम सब मिलकर इस बात से इंकार नहीं कर सकते कि हमारे समाज के बीच ही तमाम आमजन और तमाम शिक्षक आजादी मिलने के 75 वर्ष बाद भी जातिगत-सांप्रदायिक पूर्वाग्रहों से पूर्ण रूप से अभी तक मुक्त नहीं हो सके हैं। ऐसी स्थिति में बड़ा सवाल ये है कि तमाम संप्रदायों, जातियों और वर्गों में बंटे समाज को विभिन्न पूर्वाग्रहों से मुक्त कराने का जिम्मा किसका है? क्यों आखिर आजादी के 75 वर्ष गुजर जाने के बाद भी समाज से सांप्रदायिक और जातिगत भेदभाव जैसी स्थितियां समाप्त नहीं हो पा रही हैं और समाज के लोगों के व्यवहार का स्थाई हिस्सा बन चुकी इस सांप्रदायिक व जातिगत असमानता और दम्भ को खत्म करके विभिन्नताओं से भरे एक समावेशी समाज का गठन करने का उत्तरदायित्व है किसका?

शिक्षा को किसी भी समाज की सामाजिक कुरीतियों-कुप्रथाओं और बुराइयों को दूर करने वाले एक प्रभावी कारक के तौर पर देखा जाता है और सामान्यत: यही अपेक्षा की जाती है कि विभिन्नताओं से भरे एक समावेशी समाज और सामाजिक समरसता के प्रति जनमानस की स्वीकृति और चेतना को विकसित करने का कार्य शिक्षा कर सकती है। महत्वपूर्ण यह भी है कि समाज के भावी नागरिकों तक प्रत्यक्ष रूप से शिक्षा को पहुंचाने का कार्य किसी भी समाज के शिक्षकों का ही होता है, ऐसे में यह बेहद जरूरी हो जाता है कि शिक्षक स्वयं भी सामाजिक समरसता और विभिन्नताओं के महत्व को समझते हों और सांप्रदायिक-जातिगत पूर्वाग्रहों से मुक्त हों। लेकिन क्या आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे देश में हम इस बात को लेकर आश्वस्त होने की स्थिति में हैं कि हमारे समाज के सभी शिक्षक सांप्रदायिक और जातिगत पूर्वाग्रहों से मुक्त हो चुके हैं?

मैं व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर पूरी जिम्मेदारी के साथ कह सकता हूं नहीं, आज भी हम एक ऐसा समाज तैयार करने में सफल नहीं हो सके हैं, जहां के शिक्षकों को हम सांप्रदायिक-जातिगत पूर्वाग्रहों से मुक्त होते हुए देख सकें। जालौर की घटना कोई पहली घटना नहीं है, जहां किसी शिक्षक ने जातिवादी मानसिकता का परिचय दिया हो, बल्कि शिक्षकों के सांप्रदायिक-जातिवादी व्यवहार से जुड़े तमाम उदाहरण आए दिन सुर्खियां बनते हुए हम सब इसी समाज में देखते हैं। जब तक हम, हमारा समाज, हमारी व्यवस्था और हमारी सरकारें मिलकर यह सुनिश्चित नहीं कर लेते कि सभी शिक्षण संस्थान और उनमें पढ़ाने वाले शिक्षक सांप्रदायिक और जातिगत भेदभावों से परे अपनी कक्षाओं के विद्यार्थियों की विविधताओं को पूरे सम्मान के साथ स्वीकार करने हेतु तैयार हैं, तब तक जालौर जैसी तमाम घटनायें घटित होती रहेंगी और विद्यालय में शिक्षा प्राप्त करने के उद्देश्य से गए हुए विद्यार्थी सांप्रदायिक-जातिगत भेदभाव का शिकार बनते रहेंगे।

ऐसे में शिक्षकों का सेवापूर्व और सेवाकालीन प्रशिक्षण बेहद महत्वपूर्ण हो जाता है, जहां शिक्षक प्रशिक्षकों (टीचर एजूकेटर्स) को अपने कक्षा-कक्ष के अलावा भी विभिन्न माध्यमों से शिक्षक बनने हेतु प्रशिक्षण ले रहे भावी शिक्षकों को सांप्रदायिक सद्भाव और सामाजिक समरसता हेतु संवेदनशील करने के प्रयास करने ही होंगे। इसके अलावा सत्ता और विपक्ष में बैठे हुए तमाम जनप्रतिनिधियों और नीति निर्धारकों को भी यह सुनिश्चित करना ही होगा कि हमारी शिक्षा का स्वरूप और प्रक्रिया किसी भी प्रकार से सांप्रदायिक और जातिगत भेदभावों को पोषित करने का कार्य न करे, साथ ही शिक्षक, शिक्षक-प्रशिक्षक और शैक्षिक प्रशासक इतने संवेदनशील हों कि वह किसी भी विद्यार्थी का बहिष्करण उसकी जाति या धर्म के आधार पर न कर सकें।


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