पराक्रम दिवस आया और चला गया! चूंकि अभी कोई ऐसा चुनाव होने वाला नहीं है, जिसमें नेता जी (सुभाषचंद्र बोस) के नाम का रट्टा मारकर चुनावी लाभ की उम्मीद की जा सके, इसलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी भारतीय जनता पार्टी कहें या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवार ने इस अवसर पर कोई खास ‘पराक्रम’ नहीं दिखाया। हालांकि, चार साल पहले 2021 में उनकी मोदी सरकार ने नेता जी की जयंती को ‘पराक्रम दिवस’ के रूप में मनाने का ऐलान किया तो बहुत उत्साहित थी। क्या करती, तब पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव होने थे और उनमें नेता जी की मदद चाहिए थी। बहरहाल, इस बार पराक्रम दिवस की थीम थी : ‘नेता जी : साहस, दृढ़ संकल्प और देशभक्ति का सम्मान’ और मुख्य समारोह नेता जी की जन्मभूमि कटक (उड़ीसा) में आयोजित किया गया था। लेकिन प्रधानमंत्री उस समारोह में नहीं गए और उसे उड़ीसा के मुख्यमंत्री मोहनचरण मांझी के भरोसे छोड़ दिया। यह मानने के कारण हैं कि कोई चुनाव हो रहा होता तो वे स्वयं उस समारोह की अगुआई करते, न कि खुद को राजधानी में रहकर वीडियो संदेश देने तक सीमित रखते।
वैसे भी प्रधानमंत्री के बारे में कहा जाता है कि वे हमेशा चुनावी मोड में रहते और चुनाव मैदान में अपनी पार्टी की जीत के जतन, जैसे भी संभव हो, करते रहते हैं। यह जतन किसी राष्ट्रनायक की स्मृतियों से छल का भी हो सकता है और मतदाताओं पर इमोशनल अत्याचार का भी। इसी इमोशनल अत्याचार की कड़ी में कहा जाता है कि वे आगामी पांच फरवरी को, जब दिल्ली के मतदाता अपनी नई विधानसभा चुनने के लिए मतदान कर रहे होंगे, महाकुंभ स्नान के लिए प्रयागराज जा रहे हैं। बहरहाल, चुनाव के लिहाज से नेता जी इस बार ज्यादा काम के नहीं थे, इसलिए उन्होंने पराक्रम दिवस के अपने वीडियो संदेश में उसकी पूर्व संध्या पर नेता जी की पुत्री अनीता बोस फाफ द्वारा की गई इस इमोशनल मांग को भी कान देना जरूरी नहीं समझा कि नेता जी को लावारिस न छोड़ा जाए और उनकी अस्थियों को स्वदेश वापस लाया जाए।
चुनाव के दिन होते तो निस्संदेह प्रधानमंत्री इस मांग को लपक लेते। चुनाव नहीं थे तो महज यह विश्वास जताकर कि नेताजी की सारी विरासतें हमें निरंतर प्रेरित करती रहेंगी और युवा भारत को नई ऊर्जा देंगी, युवाओं से कंफर्ट जोन से बाहर निकलने को कहते और आजाद हिंद सरकार की 75वीं वर्षगांठ पर लाल किले पर तिरंगा फहराने पर गर्व जताते हुए सिर्फ यह बताकर रह गए कि उनकी सरकार ने 2019 में लाल किले में नेता जी को समर्पित संग्रहालय स्थापित दिया और सुभाषचंद्र बोस आपदा प्रबंधन पुरस्कारों की शुरूआत कर दी है। साथ ही इंडिया गेट के पास उनकी भव्य प्रतिमा लगवा दी और अंडमान में एक द्वीप का नाम उनके नाम पर रख दिया है। जैसे कि इतने से ही उनका नेता जी से प्रेरणा लेने का दायित्व पूरा हो जाता हो, उस प्रेरणा को अपनी सरकार की रीति-नीति में जगह देने की कोई आवश्यकता नहीं हो और उसके विलोम से भी काम चलाया जा सकता हो।
प्रधानमंत्री ने इस अवसर पर जो कुछ कहा, उससे लगा कि वे चाहते हैं कि उनके कहे अनुसार सारे देशवासी नेता जी से प्रेरित होकर ‘एक लक्ष्य, एक उद्देश्य’ के साथ देश के विकास के लिए निरंतर काम करें और वे स्वयं, जब उन्हें चुनाव जीतने के लिए जरूरत हो, कई गुने उत्साह से नेता जी की नाम वंदना कर लें अन्यथा उन्हें कर्मकांड के तौर पर याद करें। लेकिन वरिष्ठ पत्रकार और इतिहास के जानकार डॉ. पंकज श्रीवास्तव के अनुसार प्रधानमंत्री समेत समूचे संघ परिवार के नेता जी के प्रति निरुत्साह का एक बड़ा कारण यह भी है कि उन्हें इल्म हो चला है कि नेता जी को ‘कांग्रेस का बागी और सताया हुआ’ बताकर उनकी विरासत पर दावा जताने से परिवार को कुछ भी हासिल होने वाला नहीं है। क्योंकि नेता जी का व्यक्तित्व व कृतित्व किसी भी कोण से इस परिवार के नफरती, साम्प्रदायिक व कट्टर एजेंडे को आगे बढ़ाने में मददगार नहीं हो सकता।
इसी तरह वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक डॉ। रामबहादुर वर्मा का कहना है कि नेताजी के जीवन के दो ही लक्ष्य थे। पहला देश की स्वतंत्रता और दूसरा उसका समाजवादी पुनर्निर्माण। इनकी प्राप्ति के संघर्ष में वे न सिर्फ दस बार में कुल मिलाकर आठ साल गोरों की जेलों में रहे बल्कि आईसीएस अफसर बनकर सुख-सुविधाओं से भरा जीवन बिताने के लोभ व मोह छोड़कर कांग्रेस के अंदर-बाहर, देश व विदेश में ढेर सारे जोखिम उठाए। जब वे कांग्रेस के अध्यक्ष थे, उसके हरिपुरा अधिवेशन में उन्होंने कहा था : मुझे इसमें तनिक भी संदेह नहीं है कि हमारी दरिद्रता, निरक्षरता और बीमारियों के उन्मूलन तथा वैज्ञानिक उत्पादन व वितरण से संबंधित समस्याओं का प्रभावकारी समाधान समाजवादी मार्ग पर चलकर ही प्राप्त किया जा सकता है। इससे पहले 10 जून, 1933 को लंदन में तीसरे भारतीय राजनीतिक सम्मेलन में भी उन्होंने कहा था कि स्वतंत्र भारत पूंजीपतियों, जमींदारों और जातियों का देश नहीं, सामाजिक तथा राजनीतिक लोकतंत्र होगा।
आज की तारीख में समाजवाद व धर्मनिरपेक्षता दोनों को तहस-नहस करने पर आमादा संघ परिवार और उसकी सरकारें नेता जी के इन विचारों को कैसे स्वीकार या प्रोत्साहित कर सकती हैं? खासकर, जब नेता जी देश में रहे हों या देश के बाहर, वे निर्द्वंद्व भाव से जिस राष्ट्रवाद का समर्थन करते थे, उसमें किसी भी प्रकार की सांप्रदायिकता के लिए कोई गुंजाइश नहीं थी। वे हमेशा हिंदू मुस्लिम एकता व सद्भाव के हामी रहे और पनडुब्बी के रास्ते जर्मनी से जापान पहुंचे तो अपने एक मुस्लिम साथी को भी ले गए थे। उनकी आजिज हिंद सरकार व आजाद हिंद फौज में भी भरपूर हिंदू मुस्लिम सहकार था। राष्ट्रीय अभिलेखागार में रखी नेताजी से जुड़ी जिन सौ गोपनीय फाइलों को लेकर वह बहुत आशावादी था और उसे लगता था कि उसकी सरकार उन्हें सार्वजनिक कर देगी तो उसको ऐसा बहुत कुछ हासिल हो जाएगा, जिसकी बिना पर वह ‘हर कदम पर नेता जी की राह में कांटे बिछाने वाले’ पंडित जवाहरलाल नेहरू से द्रोह के अपने एजेंडे को तेजी से आगे बढ़ा सकेगा।
लेकिन 2016 में इन फाइलों को सार्वजनिक करने का सिलसिला शुरू हुआ तो उनकी बिना पर उलटे यह बात प्रमाणित होने लगी कि पंडित नेहरू, उनकी या कांग्रेस ने कभी बागी नेता जी को लेकर कोई मनोमालिन्य नहीं दिखाया। नेता जी नहीं रहे तो उनके परिवार का जितना खयाल रख सकते थे, अनिवार्यत: रखा। इतना ही नहीं, पंडित नेहरू की ही पहल पर बाकायदा ट्रस्ट बनाकर उसके माध्यम से विदेश में रह रही नेता जी की पुत्री अनीता बोस को अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की ओर से 1964 तक हर महीने पांच सौ रुपये भेजे जाते थे।
ऐसे में कौन जाने, संघ परिवार का पूरी तरह समाधान हो गया हो कि वह किसी भी स्थिति में नेता जी का वल्लभभाई पटेल जैसा इस्तेमाल नहीं कर सकता, क्योंकि कांग्रेस में पटेल दक्षिण तो नेता जी वाम का प्रतिनिधित्व करते थे और संघ परिवार उन्हें जिन नेहरू का सताया बताता है, वे भी वाम के ही थे।