एक सम्भ्रांत महिला बहुत व्यथित रहती थी। सब कुछ होते हुए भी उसका मन अशांत रहता था। एक संत प्रतिदिन उससे भिक्षा लेने आते थे। एक दिन उस महिला ने उस सन्त से कहा, ’महाराज! सच्चा सुख कैसे मिलता है? आप मन की शांति के लिए मुझे कोई उपदेश दें।’ संत ने अगले दिन उपदेश देने की बात कहकर अनुमति ली। नित्य की भांति संत प्रात: ही महिला से भिक्षा लेने उसके द्वार पर पहुंचे। महिला ने भिक्षा के रूप में संत को खीर प्रस्तुत की। जैसे ही महिला सन्त के कमंडल में खीर डालने लगी तो उसने देखा कि कमंडल गंदा है और वह कचरे से सना हुआ है। महिला ने कहा, ‘महाराज! कमंडल तो गंदा है, इसमें खीर डालने से तो खीर भी गंदी हो जाएगी और वह उपभोग के योग्य नहीं रहेगी!’ महिला ने पुन: कहा, ‘महाराज! लाइये, पहले मैं इस कमंडल को धो देती हूं, तदुपरांत मैं इसमें खीर डाल दूंगी।’ साधु ने कहा कि वह खीर इसी कमंडल में डाल दे। महिला ने कहा कि वह कमंडल धोए बिना इसमें खीर नहीं डाल सकती। साधु ने कहा, ‘देवी! तुम्हारा मन इस मैले कमंडल जैसा हो गया है। इसमें काम, क्रोध, मोह, मद, लोभ और अन्य बुराइयां व्याप्त हो चुकी हैं। जब तब इन बुराइयों को साफ नहीं किया जाएगा, मन की शांति के लिए उपदेश अपना प्रभाव नहीं दिखा पाएंगे। मन की शांति के लिए सर्वप्रथम अपने मन को स्वच्छ और निर्मल बनाना आवश्यक है। यही मेरा प्रथम उपदेश है।’
-सतप्रकाश सनोठिया