Monday, May 12, 2025
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हवाई अड्डा जरूरी या यूनिवर्सिटी

Samvad 1


krishna pratap singhकिसी शहर या समाज को विश्वविद्यालय की ज्यादा जरूरत होती है या हवाई अड्डे की? अयोध्या में यह सवाल कोई दो साल पहले उठा था-सितम्बर, 2021 में। उठता भी क्यों नहीं, विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए छात्रों-युवाओं द्वारा किए गए जुझारू संघर्ष के फलस्वरूप तत्कालीन प्रदेश सरकार द्वारा वहां 1975 में जिस अवध विश्वविद्यालय की स्थापना की गई थी और जिससे बाद में समाजवादी विचारक डॉ. राममनोहर लोहिया का नाम भी जोड़ दिया गया था, उसकी कार्यपरिषद ने कुलपति प्रोफेसर रविशंकर सिंह की अध्यक्षता में किंचित भी ना-नुकर किए बिना उसकी एक चौथाई भूमि मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे के निर्माण के लिए नि:शुल्क ‘समर्पित’ करना स्वीकार कर लिया था। सिर्फ यह ‘निवेदन’ करके कि उक्त भूमि पर विश्वविद्यालय के कुलपति, प्रोफेसरों व कर्मचारियों वगैरह के रहने व दूसरे प्रयोजनों के लिए जो 30 भवन बने हुए हैं, उनके निर्माण व्यय के रूप में उसे 21.02 करोड़ रुपये दे दिये जाएं!

यहां जान लेना चाहिए कि अयोध्या के इस एकमात्र सार्वजनिक विश्वविद्यालय की स्थापना के वक्त उसके पास 112 एकड़ भूमि थी और कार्यपरिषद के ‘समर्पण’ के सितम्बर, 2021 के फैसले से पहले उसके कुलसचिव उमानाथ ने स्थानीय प्रशासन को पत्र लिखा था कि संबन्धित भूमि व भवन विश्वविद्यालय के हाथ से निकल गए तो न सिर्फ छात्रों की पढ़ाई-लिखाई व शोधकार्य बल्कि विश्वविद्यालय की भविष्य की सारी गतिविधियां प्रभावित होंगी।

उनका मतलब साफ था कि अगर विश्वविद्यालय की हवाई अड्डे से ज्यादा जरूरत है तो भूमि का यह समर्पण नहीं ही किया जाना चाहिए। लेकिन सत्ताधीशों ने ‘विश्वविद्यालय या हवाई अड्डा?’ वाले सवाल का बिना एक भी शब्द बोले कुछ इस रूप में जवाब दिया कि आज की तारीख में अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे का निर्माण जहां लगभग पूरा हो चुका है, विश्वविद्यालय सिकुड़कर उससे सम्बद्ध कई महाविद्यालयों से भी छोटा हो गया है।

इससे उसके कामकाज पर तो असर पड़ा ही है, उसकी बेघर कुलपति प्रोफेसर प्रतिभा गोयल को विश्वविद्यालय के एपीजे अब्दुलकलाम तकनीकी एवं प्रौद्योगिकी संस्थान के परिसर में निर्मित गेंदालाल दीक्षित विशिष्ट अतिथिगृह में रहना पड़ रहा है। बात को ठीक से समझने के लिए छह साल पीछे जाना होगा।

2017 में, जब लखनऊ विश्वविद्यालय के प्रोफेसर मनोज दीक्षित को इस विश्वविद्यालय का कुलपति बनाया गया और उन्होंने सत्ताधीशों के इस प्रिय जुमले की आड़ में कि ‘शैक्षिक परिसरों में शिक्षा-दीक्षा होनी चाहिए, न कि राजनीति’ विश्वविद्यालय को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवार की ‘सांस्कृतिक’ कवायदों का केंद्र बना दिया। कहने की जरूरत नहीं कि यह एक अलग तरह की राजनीति थी, जिसमें सारे अवसर इसी परिवार के नाम थे।

दीक्षित संघ परिवार से अपनी निकटता छिपाते भी नहीं थे। कह सकते हैं कि उन्हें इसकी जरूरत ही नहीं थी, क्योंकि स्थिति बदलकर ‘सैयां भये कोतवाल अब डर काहे का’ वाली हो गई थी और अभी भी बनी हुई है। अपनी नियुक्ति के अगले ही साल 2018 में उन्होंने विश्वविद्यालय को ‘एक राष्ट्र, एक संस्कृति, एक समाज और एक रक्त’ जैसे संघ के उद्देश्यों को समर्पित समरसता कुंभ का आयोजक बना डाला था।

एक दिन उन्हें विश्वविद्यालय के विभिन्न भवनों के विभिन्न विभूतियों के नाम पर नामकरण की सूझी तो उन्होंने इसके लिए सुझाव आमंत्रित किए। फिर जैसा कि बहुत स्वाभाविक था, उन्हें अयोध्या को अपनी कर्मभूमि बनाने वाले 1857 के महानायक मौलवी अहमदउल्लाह शाह और काकोरी कांड के फैजाबाद जेल में शहीद नायक अशफाकउल्लाह खां के नाम सुझाये गए, लेकिन वे उनके गले नहीं उतरे।

इसके बाद 2018 में 14 दिसंबर को यानी अशफाक के शहादत दिवस से महज पांच दिन पहले उन्होंने विश्वविद्यालय के विशिष्ट अतिथिगृह को चंबल के बीहड़ों में अपने क्रांतिकर्म से आजादी की अलख जगाने वाले गेंदालाल दीक्षित का नाम देकर उसका समारोहपूर्वक लोकार्पण कर दिया तो कई लोगों को इसका कोई तुक समझ में नहीं आया, क्योंकि गेंदालाल के क्रांतिकर्म का क्षेत्र अवध नहीं था।

उन्होंने इसे लेकर आवाज भी उठाई, लेकिन इससे अप्रभावित दीक्षित ने अगले शिक्षक दिवस पर विश्वविद्यालय में ‘क्रांतिकारियों के द्रोणाचार्य पं. गेंदालाल दीक्षित’ की आवक्ष प्रतिमा भी स्थापित करा दी।

इस बीच स्थानीय शहीद अशफाकउल्ला खां मेमोरियल शहीद शोध संस्थान के कर्ताधर्ता सूर्यकांत पांडेय, शहीद-ए-आजम भगत सिंह के भांजे प्रोफेसर जगमोहन सिंह, हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के प्रधान सेनापति चंद्रशेखर आजाद के एक साथी के पुत्र क्रांतिकुमार कटियार, क्रांतिकारी जयदेव कपूर के पौत्र मयूर कपूर और शहीद मणीन्द्र बनर्जी के पौत्र उत्तम बनर्जी आदि ने इसे कुलपति द्वारा एक महान क्रांतिकारी का जानबूझकर किया गया अपमान करार देते हुए उनके कृत्य की निंदा की है और प्रदेश की राज्यपाल आनंदीबेन पटेल से हस्तक्षेप की मांग की है।

अब लोगों की निगाह कुलपति के अगले कदम पर है, लेकिन विश्वविद्यालय के गलत कारणों से चर्चा में रहने की तफसील पूरी करने के लिए उनकी नियुक्ति से छ: महीने पहले तक कुलपति रहे प्रोफसर रविशंकर सिंह की कारगुजारियां जानना भी जरूरी हैं।

मनोज दीक्षित के वारिस बनकर आने के बाद प्रो. सिंह ने दीक्षित द्वारा विश्वविद्यालय में स्थापित की गई कोई ‘परंपरा’ नहीं तोडी थी और तत्कालीन राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द की बहुप्रचारित अयोध्या यात्रा से पहले अगस्त, 2021 में राष्ट्रपति भवन जाकर उनको राममंदिर का ‘भव्य’ मॉडल भेंट करके भरपूर चर्चाएं बटोरी थीं।

राज्यपाल आनन्दीबेन पटेल ने गत वर्ष एक जून को अचानक प्रो. सिंह से इस्तीफा मांगकर उन्हें कुलपति पद से हटा दिया। सिंह द्वारा हवाई अड्डे के लिए विश्वविद्यालय की भूमि के समर्पण के रास्ते ऊपर के फरमान के प्रति अपनी वफादारी सिद्ध करना भी उनके काम नहीं आया।

शायद इसलिए कि उनके खिलाफ विश्वविद्यालय में नियुक्तियों में भ्रष्टाचार की शिकायतें तो थीं ही (जिनके अनुसार उन्होंने विश्वविद्यालय में मनमाने तरीके से मेरिट आदि को नजरअन्दाज कर सौ से ज्यादा नियुक्तियां और पदोन्नतियां कर डाली थीं) अयोध्या के दीपोत्सव में घपले की भी शिकायतें थीं, जिन्हें क्षम्य नहीं माना गया।

जानकारों के अनुसार शिकायतों को लेकर विश्वविद्यालय के कुछ शिक्षक भी उनके खिलाफ मुखर थे और गोपनीय जांच में शिकायतों की पुष्टि होने के बाद राज्यपाल ने उनसे इस्तीफा ले लेना ही बेहतर समझा।

यह विश्वविद्यालय अपने दुर्दिन में भी इन उद्देश्यों की प्राप्ति के प्रति गंभीरता नहीं प्रदर्शित कर पा रहा। उसके नाम के साथ डॉ. राममनोहर लोहिया का नाम जरूर जुड़ा है लेकिन वह उनके इस सूत्रवाक्य से बहुत दूर जा चुका है कि व्यक्ति को हमेशा सर्वश्रेष्ठ तरीके से कार्य करने की कोशिश करनी चाहिए-मामला शिक्षा के लेने-देन का हो तब तो और भी।


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