Wednesday, June 11, 2025
- Advertisement -

अंबेडकर नहीं चाहते थे हिंदू राष्ट्र

भारतीय संविधान सभा द्वारा पारित किए गए संविधान को 74 वर्ष पूरे हो गए हैं और अगले वर्ष (26 जनवरी 2025) इसके 75 बरस पूरे हो जाएंगे। मैग्नाकार्टा या ‘ग्रेट चार्टर’ पर बितार्नी सम्राट द्वारा किए गए हस्ताक्षर के 735 वर्ष बाद भारतीय संविधान मानवाधिकारों की रक्षा के लिए बनाया गया एक ऐसा कानून है जिसकी कोई दूसरी मिसाल नहीं मिलती। मैग्ना-कार्टा ने कानून का शासन स्थापित किया और अंग्रेजी नागरिकों के अधिकारों की गारंटी दी थी। इसी तरह डॉ. भीमराव आंबेडकर द्वारा बनाए गए भारतीय संविधान ने पांच हजार साल से ज्यादा पुरानी प्रथाओं और कानूनों को खत्म कर गुलामी और अस्पृश्यता को अपराध घोषित किया। सभी नागरिकों को बराबरी का दर्जा दिया। जो लोग 1950 में इस संविधान का विरोध कर रहे थे, इसी संविधान का सहारा लेकर देश और कई राज्यों की सत्ता पर काबिज हैं, पर अभी तक दिल से इस दस्तावेज को स्वीकार नहीं कर पाए हैं और आज भी यदा-कदा इसका विरोध कर रहे हैं, अगले वर्ष वे अपने उस संगठन की सौवीं वर्षगांठ मनाने जा रहे हैं जो मनुस्मृति में विश्वास रखते हुए जाति प्रथा का समर्थन करता है और लोकतंत्र विरोधी है।

यह सर्वविदित है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और ‘हिंदुत्ववादी संगठनों’ ने 1857 में शुरू हुई आजादी की पहली लड़ाई से लेकर 1947 तक 90 सालों तक चले राष्ट्रीय आंदोलन को, उसके नेतृत्व को, उसकी विचारधारा को और उस आधार पर बने देश के संविधान को कभी स्वीकार नहीं किया और लोकतांत्रिक व्यवस्था की हमेशा मुखालिफत की। खुद को सांस्कृतिक संगठन कहने और मुखौटा लगाकर पहले हिंदू महासभा, रामराज्य परिषद फिर भारतीय जनसंघ और 1980 से भारतीय जनता पार्टी के रूप में राजनीति करने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की क्या विचारधारा रही है, इस पर गौर किया जाना जरूरी है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जिन्हें अपना पुरखा मानता है और स्वयंसेवक जिनके मानस पुत्र हैं, वे हैं विनायक दामोदर सावरकर और संघ के दूसरे सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर उर्फ गुरुजी। गोलवलकर हिटलर की विचारधारा से बहुत प्रभावित थे और उसे भारत में लागू करना चाहते थे। गोलवलकर की एक किताब है ‘वी आॅर आवर नेशनहुड डिफाइंड।’ 1946 में प्रकाशित इस किताब के चतुर्थ संस्करण में गोलवलकर लिखते हैं, ‘हिंदुस्तान के सभी गैर-हिंदुओं को हिंदू संस्कृति और भाषा अपनानी होगी, हिंदू धर्म का आदर करना होगा और हिंदू जाति अथवा संस्कृति के गौरव गान के अलावा कोई विचार अपने मन में नहीं रखना होगा।’ इसी किताब के पृष्ठ 42 पर वे लिखते हैं कि ‘जर्मनी ने जाति और संस्कृति की शुद्धता बनाए रखने के लिए सेमेटिक यहूदी जाति का सफाया कर पूरी दुनिया को अचंभित कर दिया था। इससे जातीय गौरव के चरम रूप की झांकी मिलती है।’ गोलवलकर की एक और किताब है ‘बंच आॅफ थॉट्स’। इस किताब के नवंबर 1966 संस्करण में गोलवलकर देश के तीन आंतरिक खतरों की चर्चा करते हैं: मुसलमान, ईसाई और कम्युनिस्ट।

वे वर्ण व्यवस्था यानी जाति व्यवस्था के भी प्रबल समर्थक हैं। वे लिखते हैं, ‘हमारे समाज की विशिष्टता थी वर्ण व्यवस्था, जिसे आज जाति व्यवस्था बताकर उसका उपहास किया जाता है। समाज की कल्पना सर्वशक्तिमान ईश्वर की चतुरंग अभिव्यक्ति के रूप में की गई थी जिसकी पूजा सभी को अपनी योग्यता और अपने ढंग से करनी चाहिए। ब्राह्मण को इसलिए महान माना जाता था क्योंकि वह ज्ञान दान करता था। क्षत्रिय भी उतना ही महान माना जाता था क्योंकि वह शत्रुओं का संहार करता था। वैश्य भी कम महत्वपूर्ण नहीं था क्योंकि वह कृषि और वाणिज्य के द्वारा समाज की आवश्यकताएं पूरी करता था और शूद्र भी जो अपनी कला कौशल से समाज की सेवा करता था।’ इसमें बड़ी चालाकी से गोलवलकर ने जोड़ दिया कि शूद्र अपने हुनर और कारीगरी से समाज की सेवा करते हैं लेकिन इस किताब में गोलवलकर ने चाणक्य के जिस अर्थशास्त्र की तारीफ की है, उसमें लिखा गया है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों की सेवा करना शूद्रो का सहज धर्म है। सहज धर्म की जगह गोलवलकर ने जोड़ दिया समाज की सेवा।

समाजवाद और कम्युनिज्म को वे पराई चीज मानते हैं। वह लिखते हैं कि ‘यह जितने इज्म है यानी सेक्युलरिज्म, सोशलिज्म, कम्युनिज्म और डेमोक्रेसी यह सब विदेशी धारणाएं हैं और इनका त्याग करके हमको भारतीय संस्कृति के आधार पर समाज की रचना करनी चाहिए।’ राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान संघ-राज्य की कल्पना को स्वीकार किया गया था यानी केंद्र के जिÞम्मे कुछ निश्चित विषय होंगे। बाकी राज्यों के अंतर्गत होगें। लेकिन उन्होंने भारतीय संविधान के इस आधारभूत तत्व का भी विरोध किया।

देश आजाद होने के समय और विभाजन के बाद भी राष्ट्रीय नेताओं ने महात्मा गांधी के नेतृत्व में इस देश को एक ‘लोकतांत्रिक गणराज्य’ के रूप में स्थापित किया। ये नेता चाहते तो 15 अगस्त 1947 को इस देश को हिंदू राष्ट्र घोषित कर सकते थे क्योंकि मुस्लिम लीग और उसके नेता मोहम्मद अली जिन्ना मुसलमानों के लिए अलग राष्ट्र पाकिस्तान हासिल कर चुके थे और भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने में कोई दिक़्कत नहीं होती। लेकिन इन नेताओं ने सामूहिक रूप से प्रण लिया कि वह इस महान देश हिंदुस्तान को पाकिस्तान नहीं बनने देंगे।

राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान उन्होंने देश की जनता से तमाम वायदे किए थे- स्वतंत्र भारत को सार्वभौम, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य बनाया जाएगा जिसमें देश के नागरिकों को बराबरी और आजादी, अपने धर्म को मानने तथा पूजा अर्चना करने और प्रचार करने की इजाजत मिलेगी, तथा न्याय सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक तथा भाईचारा और व्यक्ति की प्रतिष्ठा सुनिश्चित की जाएगी। इन नेताओं ने ऐसा संविधान अंगीकृत किया जिसमें हर नागरिक को बराबरी का अधिकार दिया गया। लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इस देश में जिस तरह की विचारधारा थोपना चाहता है और यदि उसके मनमुताबिक होता रहा जैसा नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में पिछले दस वर्षों से हो रहा है तो देश का संवैधानिक ढांचा क्या होगा? क्या उसका मूल स्वरूप यही रहेगा या उसे बदलकर देश को लोकतांत्रिक समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष गणराज्य के बजाय कानूनी रूप से ‘हिंदू राष्ट्र’ बनाया जाएगा, जिसमें केवल हिंदू धर्म के मानने वालों की श्रेष्ठता होगी और दूसरे धर्मों के लोग दूसरे दर्जे के नागरिक बनकर इस देश में रहने को बाध्य होंगे। जहां जाति आधारित समाज की रचना होगी और मनुस्मृति के तहत देश का शासन चलाया जाएगा।

संविधान निर्माता डॉ. भीमराव आंबेडकर का कहना था कि ‘अगर इस देश में हिंदू राज एक वास्तविकता बन जाता है, तो यह निस्संदेह इस देश के लिए सबसे बड़ी आपदा होगी और एक खौफनाक मुसीबत होगी क्योंकि हिंदू राष्ट्र का सपना आजादी, बराबरी और भाईचारे के खिलाफ है, और यह लोकतंत्र के बुनियादी सिद्धांतों से मेल नहीं खाता…हिंदू राज को किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए।’
(द वायर से साभार)

 

spot_imgspot_img

Subscribe

Related articles

Muzaffarnagar News: टीबी मरीजों को पोषण पोटली, शीघ्र स्वास्थ्य लाभ की कामना

जनवाणी संवाददाता | मुजफ्फरनगर: ए.डी. मेडिकल कॉलेज ने टीबी (तपेदिक)...
spot_imgspot_img