तरंग प्रकाशन द्वारा प्रकाशित मुक्तिनाथ झा का कल्याणी कथा संग्रह में बारह कहानियां संकलित हैं। मुक्तिनाथ झा की अधिकांश कहानियां गांव की पारंपरिक परम्परा के बीच धार्मिक आख्यानों और चरित्रों को सहकार कर मानव जीवन को उत्कर्ष बनाने की आकांक्षाओं को रेखांकित करनेवाला एक अनुपम कथा संग्रह है। इस कथा संग्रह में लेखक हमेशा की तरह उड़ान भरता सा एक नए युवक के रूप में पुराने क्लासिकल धार्मिक संदर्भों की गंध में लिपटा, लेकिन उसका नवीनीकरण करता अपने लक्ष्य को साधने के लिए किस्सागोई प्रवृत्ति से परिपूर्ण दिखाई देता है। भाव चाहे जितने गहाराई लिए हों, तीव्र उत्कट हों, मर्म को भेदने वाले हों, किन्तु यदि उनका प्रकटीकरण सम्यक दृष्टिकोण से न हो तो सब व्यर्थ है। वस्तुत: भावों का प्रकटीकरण जिन उपादानों के माध्यम से होता है, वे सब शिल्प-विधान के अन्तर्गत आते हैं। जैसा कि पूर्व में उल्लेख किया जा चुका है। काव्यात्मक शिल्प-विधान कहानियों में घुसपैठ कर चुके हैं। इस संर्द्भ में नामवर सिंह की चिंता उचित प्रतीत होती है। उनकी मूल चिंता कहानी के ‘किस्सागोई शैली’ की रक्षा को लेकर है। जहां तक कहानीकार मुक्तिनाथ झां का सवाल है तो उन्होंने शिल्प विधान में विशेष मौलिकता दिखाने के बजाय उत्कृष्टता पर विशेष बल दिया है। वस्तुत: लेखक ने ‘किस्सागोई’ शैली को पूर्णता निर्वहन करने की कोशिश की है। मुक्तिनाथ झा ने अपनी स्वाभाविक शैली में शिल्प रचा है। भाषा बिल्कुल सहज, सरल, एवं भावमय है। शैली में वातावरण के अनुसार काफी विविधता आती गयी है। लेखक के लिए त्रुटिहीन व सरल तथा सहज शिल्प ही अभीष्ट है। अपनी इन्हीं मान्यताओं के आधार पर लेखक मुक्तिनाथ झा ने भाषा का अत्यंत सहज स्वरूप चुना। अमृत संवाद में कथोपकथन भी कहानी में बेजोड़ हैं। छोटे-छोटे वाक्यों में पात्रों द्वारा आपसी वातार्लाप बिल्कुल जींवत प्रतीत होता है। भाषा का प्रयोग एकदम अपने चिर-परिचित अंदाज में हुआ है। यह अलग बात है कि आंचलिक परिवेश में प्रचलित कुछ शब्द अपने देशज स्वरूप में प्रयोग किए गए हैं।
पुस्तक : कल्याणी कथा संग्रह, लेखक: मुक्तिनाथ झा, प्रकाशक : शतरंग प्रकाशन, लखनऊ, मूल्य: 400 रुपये