Friday, July 5, 2024
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साझी विरासत तोड़ने का प्रयास

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munesh tygiदेश में ऐसा गठजोड़ पैदा हो गया है, जो सिर्फ देश के चंद पूंजीपति घरानों की धन-दौलत बढ़ाने का ही काम कर रहा है। देश और समाज बहुत बडे संकट के दौर से गुजर रहा है। हिंदुस्तान की संस्कृति विविधतापूर्ण, साझी और मिली जुली रही है। हमारे यहां बाहर से कई जातियां-जैसे हूण, शक, कुषाण, मंगोल, पठान, तुर्क, यूनानी आदि जातियों के लोग आए और यहां की संस्कृति, आचार विचार और चिंतन से प्रभावित हुए, यहां की संस्कृति और चिंतन को प्रभावित किया और कालांतर में वे सब यहां की संस्कृति में रच बस गए। दोनों ने एक-दूसरे से काफी कुछ सीखा, लेकिन पिछले काफी अरसे से सांप्रदायिक ताकतें इस साझी संस्कृति और साझी विरासत पर सबसे ज्यादा हमले कर रही हैं।

ये ताकतें प्रदर्शित करना चाहती हैं कि यहां हिंदू और मुसलमान सदा से परस्पर युद्धरत रहे हैं, इनके हित और मिजाज अलग अलग रहे हैं, ये एक साथ नहीं रह सकते। मगर हकीकत और सच्चाई व ऐतिहासिक तथ्य इसके बिल्कुल खिलाफ हैं।

हमारा इतिहास हिंदू-मुस्लिम हीरे-मोतियों और नायक-नायिकाओं से भरा पडा है, जिनके बारे में वर्तमान पीढ़ी को बताना और अवगत कराना निहायत ही जरूरी हो गया है, ताकि सांप्रदायिक ताकतों के झूठे अभियान का मुकाबला किया जा सके। भारत की जनता को हिंदू-मुस्लिम एकता की और शादी संस्कृति की असलियत से अवगत कराया जा सके।

भारत की साझी विरासत पर गौर करें तो पता चलेगा कि मुगल सरदार बाबर, दौलत खां लोदी और राणा सांगा के साथ, दिल्ली के बादशाह इब्राहीम खां लोदी और गवालियर के हिंदू राजा मान सिंह तौमर के गठजोड़ के साथ पानीपत के मैदान में लड़ रहा था, जिसने इब्राहीम खां लोदी को हराया था।

यहां हमें याद रखना चाहिए कि बाबर को यहां राणा सांगा और दौलत खां लोदी काबुल से बुलाकर लाए थे, ताकि दिल्ली के बादशाह इब्राहीम लोदी को हराकर, दिल्ली की गद्दी पर काबिज हुआ जा सके। क्या यह हिंदू मुसलमान की लडाई थी?
मुस्लिम शासक आपस में लड़ते रहे हैं।

रजिया सुल्तान को भी मुसलमानों ने गद्दी से हटाया था, शेरशाह सूरी ने भी हुमांयु को परास्त किया था, क्या ये सब धर्मयुद्ध थे? बिल्कुल भी नहीं। यह सिर्फ और सिर्फ राजनैतिक और सत्ता प्राप्ति का संघर्ष था। इसमें मजहब का कोई रोल नही था। इससे पहले भी मुस्लिम शासक गुलाम वंश, खिलजी वंश, तुगलक वंश और लोदी वंश के बादशाह सत्ता संघर्ष के लिए आपस में लड़ते-मरते और खपते रहे हैं। एक-दूसरे का तख्ता पलट करते रहे हैं।

हल्दीघाटी के युद्ध में अकबर महान के साथ राजा मानसिंह थे, तो महाराणा प्रताप के साथ मुस्लिम सरदार हाकिम सूर खां थे। यहीं पर एक आश्चर्य चकित करने वाला एक तथ्य और काबिले गौर है, वह यह कि महाराणा प्रताप के बाद जब उनका बेटा राजा अमरसिंह सत्तानशीं हुआ तो उसने अकबर के बेटे बादशाह जहांगीर से संधि कर ली और उसके साथ मिल गया।

अब इसे क्या कहिएगा? क्या यह भी धर्म युद्ध था? क्या यह भी एक राजनैतिक और सत्ता का गठजोड़ न था? औरंगजेब के मुख्य सेनापति जय सिंह थे और उनकी सेना में जाधव राव, कान्होजी सिर्के, नागोजी माने, आवाजी ढल, रामचंद्र और बहीर जी पंढेर शामिल थे।

वहीं महाराजा शिवाजी के निजी सचिव मौलवी हैदर खान थे, तोपची इब्राहीम गर्दी खान और सेनापति दौलत खां व सिद्दीकी मिसरी थे। क्या यह कोई धार्मिक लड़ाई थी? यह सिर्फ राजनैतिक संघर्ष था यानी यह मात्र सत्ता की लड़ाई थी। इसका तथाकथित धर्म युद्ध से कोई लेना-देना नहीं था, यह कोई धर्म युद्ध नहीं था। सिराजुदौला के सबसे विश्वसनीय दोस्त राजा मोहन लाल थे।

मीर मदन उनके सबसे वफादार सेनापति थे। सिराजुदौला परम देशभक्त थे, जिन्होंने अपने देश भारत को कभी धोखा नहीं दिया। हैदर अली आजाद जिए और अपनी और हिंदुस्तान की आजादी की रक्षा करते हुए अंग्रेजों से लड़ते हुए मैदानेजंग में वीर गति को प्राप्त हुए।

टीपू सुल्तान हमारे इतिहास के सबसे तेज चमकते हुए सितारे हैं। टीपू सुल्तान ने भारत के इतिहास में अपनी राजधानी में सबसे पहले ‘आजादी का पौधा’ लगाया था। पूर्णिया उनके प्रधानमंत्री थे और कृष्ण राव उनके मुख्यमंत्री थे। टीपू सुल्तान भी अंग्रेजों से युद्ध करते हुए मैदाने जंग में ही मारे गए थे।

भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857 के महासंग्राम के सर्वोच्च सेनापति बहादुर शाह जफर और उनके निजी सचिव मुकुंद थे। इस महायुद्ध की संचालन समिति में आधे हिंदू और आधे मुसलमान थे। इस महा संग्राम को एकता के सूत्र में पिरोने वाले नाना साहेब थे और उनके सचिव और दाहिने हाथ अजीमुल्ला खान थे। इन्हीं अजीमुल्ला खान ने कई देशों में जाकर क्रांति का अध्ययन किया था। उन्होंने ही उस 1857 की क्रांति की पूर्ण रूपरेखा तैयार की थी।

इस महासंग्राम की एक बहुत ही मजबूत कडी महारानी लक्ष्मीबाई थीं, उनके तोपची गौस खान थे और जमाखां, खुदाबख्श उनके कर्नल थे। 1857 की महाक्रांति का आगाज मेरठ से हुआ था जिसमें मेरठ के 85 सैनिकों को लंबी लंबी सजाऐं दी गयी थीं। इनमें 53 मुसलमान थे और 32 हिदू स्वतंत्रता सेनानी थे।

यह भारत के इतिहास में कौमी एकता की सर्वश्रेष्ठ और अदभुत मिसाल है। हिंदुस्तान की सबसे पहली अस्थायी सरकार 1915 में काबुुल, अफगानिस्तान में बनी थी, जिसके राष्ट्रपति राजा महेंद्र प्रताप सिंह और प्रधानमंत्री बरकतुल्ला खान और गृहमंत्री ओबेदुल्ला खान बनाए गए थे।

भारत के इतिहास में संपूर्ण स्वतंत्रता और ‘इंकलाब जिंदाबाद’ का नारा सबसे पहले मौलाना हसरत मोहनी ने 1921 में दिया था, जिसे बाद में शहीदों के शहीद, शहीद ए आजम भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव और उनके साथियों ने आजादी की लड़ाई में इस्तेमाल किया था और इस नारे को भारत के स्वतंत्रता संग्राम का सबसे बड़ा नारा बना दिया था जो भारत की संघर्षशील जनता का, आज भी सबसे मुख्य नारा बना हुआ है।

भारतीय आजादी के संग्राम के सबसे बडे दीवाने नेताजी सुभाष चंद्र बोस के वरिष्ठ और सबसे करीबी साथी आबिद हसन, एसी चटर्जी, एमजेड कयानी और हबीबुर्रहमान थे। उनकी अस्थायी सरकार में चार हिंदू और चार मुसलमान थे।

इस प्रकार, हम संक्षेप में देखते हैं कि हमारे यहां भूतकाल में जो संघर्ष रहे हैं, वे कोई धर्म युद्ध नही थे, बल्कि वे राजनैतिक और सत्ता के लिए संघर्ष थे, जिनमें हिंदू और मुसलमान साथ-साथ और एक-दूसरे के खिलाफ भी लड़ते रहे हैं।

वर्तमान में सांप्रदायिक ताकतें हमारे मिले-जुले और एकजुट समाज की एकता को झूठी बताकर, अफवाहें फैलाकर, तोड़ना और खंडित करना चाहती हैं कि हम लोग हिंदू मुस्लिम के नाम पर लड़कर मर खिर जाएं। प्रबुद्ध जनता ही सांप्रदायिक, फासीवादी, जातिवादी और जनविरोधी मुहिम और नीतियों का मुकाबला कर सकती है और उसे परास्त कर सकती है।


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