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समाज में दो धाराएं हमेशा रही हैं। एक राजसत्ता की दूसरी लोकसत्ता की। लोकसत्ता का मूलधार लोक है, जन है, नागरिक है। राज सत्ता का लक्ष्य और आधार ही सत्ता है। राजतंत्र हो या प्रजातंत्र, तंत्र की लोक पर हावी होने की हमेशा कोशिश रही है। अधिनायकवादी ताकतों ने ही नहींं प्रजातात्रिंक व निर्वाचित सरकारों ने भी नए तरीके ईजाद कर नागरिक स्वतंत्रता व आधिकारों के हनन के प्रयास किए हैं। आधुनिक तकनीक तो और भी नए-नए हथियार उपलब्ध करा देती है। लोकतंत्र, न्याय और बंधुता की दिशा में नागरिक समाज भी तरतीब और तकनीक से लैस हो समय के साथ काफी आगे आ गया है। पर राज हमेशा ज्यादा संगठित सुसज्जित होता है। नागरिक विभाजित भी हो जाते हैं।
कभी राज के दमन के विरुद्ध प्रतिकार को लेकर कभी प्रतिकार के तरीके को लेकर। नागरिक समाज सामाजिक-आर्थिक पक्षों से बना है, जिसमें भिन्नता ही नहींं, सहज विभाजन भी है। इस सब के बावजूद कोई भी राजनेता या राजा बिना प्रजा जनता के हो ही नहींं सकता।
यह कुदरत का जनता को वरदान है, रहम है। यह जनता को एक नैतिक और रणनीतिक ऊंचाई देता है कि जनता होने के लिए उसे किसी फकीर या राजा की जरूरत नहींं। यह तथ्य ही नागरिकों की या लोकसत्ता की ताकत का स्रोत है।
चुनावी प्रजांतत्र में ही नहीं, राजतंत्र में भी। नागरिक इस पर गर्व कर सकते हैं और लोकसत्ता इस अनुकूल समीकरण का इस्तेमाल। राष्ट्र और राज्य को एक मानने की गलती लोग अक्सर करते हैं। राज्य एक व्यवस्था के लिए गठित सस्ंथा है, वहां रहने वाली जनता के लिए।
राज या राज्य जनता नहीं है, राष्ट्र जनता है। जनता इस व्यवस्था को लोकतंत्र में चुन-बदल सकती है। या यूं कहें, जनता की इच्छा से ही किसी को सत्ता मिलती है। राजसत्ता की लगाम लोकसत्ता के पास है, अगर वो उसे भूल न जाए, छोड़ न दें। प्रजांतत्र में सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों, जनपक्ष नहीं, सत्ता आसक्त हो तो यह अजूबा नहीं।
एक पक्ष सत्ता हाथ में लेने को हमेशा आतुर रहेगा दूसरा सत्ता हाथ से न जाने देने को व्याकुल! अपने पक्ष की चिंता नागरिकों को खुद भी करनी चाहिए और यही लोकसत्ता की महत्ता है। जायज या जरूरी राज का विरोध राष्ट्र विरोध नहीं है। यह विरोध राष्ट्र प्रेम ओर राष्ट्रीय कर्तव्य है।
यह एक सहज लोकतांत्रिक प्रक्रिया है, जो प्रजातंत्र को सेहतमंद बनाती है। नागरिक स्वाधीनता का सिद्धांत ही जनता के राज्य से लंबे संधर्ष से जन्मा है। राज की स्वाभाविक प्रवृति दरबार ओर भक्त प्रिय होना है। अच्छा नागरिक होने की आवश्यक आहर्यता किसी भी पक्ष का अंधभक्त होना नहीं जागरूक, सामाजिक ओर देशभक्त होना है।
देश कानून से चलता है। राज्य को कानून बनाने का अधिकार है। पर कानून राज के नहीं, जनता के हितों की अभिव्यक्ति होने चाहिए। सत्ता में काबिज लोगों की इस अधिकार के दुरुपयोग की लालसा स्वाभाविक अवगुण है। इस अवगुण पर जवाबदेही और पारदर्शिता का अकुंश लगाना नागरिकों का कर्तत्य है।
बहुत बार नागरिकों को राज्य के विरु़़द्व भी शिक्षा स्वास्थय, रोजगार, आजादी, बराबरी, अभिव्यक्ति के अलावा शोषण, दमन, अत्याचार के प्रतिकार के अधिकार की सुरक्षा भी खुद ही करनी पड़ती है। जूरी या पंच-पंचायत, हुक्का पानी बंदी लोक सत्ता की पारदर्शी व सहभागी न्याय व्यवस्था का ही रूप है।
दुनिया के इतिहास में कई जगह गण राज्यों का भी उल्लेख है। इन परंपरागत सस्थाओं का पोषण लोकसत्ता का खाद पानी है। लोकसत्ता या नागरिक समाज में रूढिवादी, उदारवादी से लेकर उग्रवादी तक सब तत्व होते हैं। कुछ लोक संघर्ष को गैर जरूरी मानते हैं और समयबद्व चुनावों को उलट-पुलट को निदान।
ये लोग शासकीय व्यवस्था में ही नागरिक अधिकारों की सुरक्षा देख पाते हैं, जबकि लोकसत्ता के मजबूत होने पर चाहे राज किसी का भी हो, शासन लोक अहितकारी कदमों से हिचकता है, सत्ता निरंकुश नहीं हो पाती। लोहिया जी ने कहा भी था, जिंदा कौमें पांच साल इंतजार नहीं करतीं, और सड़कें खामोश हो जाए तो संसद अवारा हो जाएगी।
संसद के आवारा होने के खतरे के अलावा लोकतांत्रिक विरोध के कुचले जाने या बेअसर हो जाने की स्थिति में जनाक्रोश उग्रवाद का रास्ता पकड़ सकता है। सामाजिक बुराइयों का पर्दाफाश करने वाले प्रकाशनों और मीडिया से अलग अहिंसक जलसे, जूलूस और सभाएं, लोकमत व जनाक्रोश की अभिव्यक्ति करते हैं।
यह उग्रवाद के खिलाफ सेफ्टी वाल्व भी है। नागरिक समाज की भूमिका, क्षमता और समझ एक दिन में नहीं बनी। लंबे समय तक किसी दबाव या उदासीनता के कारण नागरिकों के इसका अभ्यास न करने के कारण समाज इसकी महत्ता ओर उपयोग का तरीका भूल भी सकता है। क्या बात, कब, कैसे कहनी है, इसका निरंतर अभ्यास जरूरी है।
समूह में तो और भी ज्यादा जरूरी है। भारत जैसे विविधता व बहुलतावादी समाज में पंथ व आस्था की स्वतंत्रता आवश्यक संतुलन प्रदान करती है। राजसत्ता के पास ‘बांटों और राज करो’ का हथियार हमेशा है। ऐसे में लोक मर्यादा, सामाजिकता और नागरिक विवेक ही सुरक्षा कवच है।
बहुत बार तो कानून से ज्यादा सामाजिक लोकलाज से व्यक्तिगत या सामुदायिक सुरक्षा होती है। नागरिक समाज को कानूनची नहीं, मानवीय सामाजिक और सामुदायिक विवेक अनुकूल होना चाहिए। अस्पष्ट कानून और कानून की जानकारी का अभाव नागरिक आधिकारों के हनन व दमन का कारण बनते हैं।
अर्थिक शोषण का भी समर्थन शातिरों के हाथों कानून के दुरुपयोग से संगठित जागृत समाज ही बचाव है। नागरिका समाज के दबाव और सक्रियता से कई कानून बदले हैं, बने भी हैं। तीन कृषि कानून और भूमि अधिग्रहण कानून में सशोधनों की वापसी हाल ही के उदाहरण हैं।
अनैतिक जबरन गिरफ्तारी और नजरबंदी के खिलाफ दुनियाभर में आदोलन और क्रांतियां हुर्इं हैं। सविनय अवज्ञा आंदोलन और सत्याग्रह लोकसत्ता के अभिनव प्रयोग हैं, जिन्होंने गांधी को ‘महात्मा’ बना दिया। मजबूत राजनेता एक भ्रम है, जोअंधभक्तों को पीछे खड़ा कर अपनी राज सत्ता मजूबत करता है। समाज को जाग्रत कर साथ लेकर चलने वाला गांधी लोकसत्ता को मजबूत करता है।
लोकतंत्र में विरोध और असहमति नहीं, अंधभक्त होना अपराध है। नागरिकों का विवेकहीन हो किसी भी राजनीतिक पक्ष का अनुयायी होना प्रजांतत्र के विनाश का शर्तिया नुस्खा है। यह नागरिक होने की मौत है और नागरिक समाज के अंत की शुरुआत।
दुर्भाग्यपूर्ण विडंबना यह है कि जहां विज्ञान कंपयूटर और रोबोट जैसी मशीनों में कृत्रिम बुद्धिमता डाल रहा है, वहीं राजनीतिक लोग नागरिकों में कृत्रिम मूढ़ता डाल उन्हें मशीनी, विवेहीन, व संवेदनहीन अनुयायी बना रहे हैं।
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