Monday, May 12, 2025
- Advertisement -

भुलाई जा रही ‘भारत-माता’

 

Ravivani 32


Menakshi Natrajan 2आजकल चहुंदिस फैले राष्ट्रवाद में भारत माता को देखें तो क्या दिखाई देगा? क्या अपने आसपास का संसार वैसा ही खाता-अघाता, चमकदार है जैसा एक जमाने की फिल्मों में यदा-कदा दिखाया जाता था? या फिर हमारी भारत-माता के ऐसे भी असंख्य बच्चे हैं जिन्हें ज्ञात कारणों से दो जून की रोटी भी नसीब नहीं होती? हाल में हुई सामाजिक कार्यकर्ताओं की 600 किलोमीटर की एक यात्रा ने देश के एक हिस्से की ऐसी ही बानगी उजागर की है।
सर्वोदय के संस्थापन के पचहत्तरवें वर्ष की शुरुआत में हम लोगों ने 14 मार्च से 18 अप्रैल तक पदयात्रा का संकल्प किया था। पोचमपल्ली (तेलंगाना) से शुरू होकर सेवाग्राम (वर्धा, महाराष्ट्र) तक, 600 किलोमीटर की इस यात्रा के तीसवें दिन अनेक ख्याल मानस पटल पर उमड़ते रहे। इस लेख में मैं उन्हीं को साझा करने का प्रयास कर रही हूं।

यात्रा के ठीक चार दिन पहले पांच राज्यों के चुनावी नतीजे सामने आए। सबसे अधिक सीटों वाले प्रदेश के पुनर्निवाचित मुख्यमंत्री ने चुनावी बिगुल बजाते हुए जिस अस्सी-बीस की लड़ाई का जिक्र किया था, वे उस वैमनस्य पर मुहर लगवाने में सफल हो गए। वही नहीं, हर राज्य में परिणाम बहुसंख्य समाज के प्रभुत्व संपन्न वर्ग द्वारा बुने कथानक के अनुसार ही रहा। पंजाब अपवाद रहा।

मगर यह भी याद रखा जाना चाहिए कि पंजाब के सत्तारुढ़ दल ने इसके पहले दिल्ली चुनाव के मद्देनजर ‘नागरिकता कानून’ के खिलाफ हुए नागरिक प्रतिरोध पर सुविधाजनक चुप्पी साध ली थी, दिल्ली में हुए दंगों पर कोई बड़ी प्रतिक्रिया नहीं दी थी और कश्मीर में धारा-370 की समाप्ति के खिलाफ लोकसभा में मतदान नहीं करके सुविधाजनक बर्हिगमन को चुना था।

अस्तु, यात्रा विनोबा को मिले पहले भू-दान के स्थान से शुरू हुई थी। विनोबा ने बाद में तेरह साल घूमकर सैंतालिस लाख एकड़ जमीन प्राप्त की जो भूमिहीनों में बांटी गई। विनोबा ‘जय जगत’ का नारा देते थे, सीमामुक्त भूगोल का स्वप्न देखते थे। विभाजन के बाद मल्हम लगाने के लिए पूर्वी-पाकिस्तान (बांग्लादेश) भी पैदल गये थे।

यात्रा शुरू होने के तकरीबन महीने भर पहले रुस-यूक्रेन युद्ध के स्वर नेपथ्य में गूंजने लगे थे। रूस के वर्तमान शासक की निरंकुशता, अधिनायकत्व इस युद्ध के लिए जितना जिम्मेदार है, उतनी ही ‘नाटो’ की विस्तारवादी नीति, अमेरिका की प्रधानता स्थापित करने की जिद भी है। वो रूस की नाक के नीचे ‘नाटोई क्यूबा’ बनाना चाहते हैं। अमेरिका ने अपने प्राधान्य के लिए दक्षिण-अमेरिका को तहस-नहस किया है।

लोकतंत्र का ढिंढोरा पीटते हुए, तेल के कुओं से भरपूर मध्य-एशियाई देशों पर कठपुतली राजशाही स्थापित की है। रूस की ऊर्जा आत्मनिर्भरता और बेल्जियम, जर्मनी तक से ऊर्जा स्रोत के जरिये बढ़ती नजदीकी को कुचले बगैर वे नहीं मानेंगे।

आखिर अफगानिस्तान में दो दशक पहले अमरीका की अगुआई में कट्टरपंथी तालिबानियों को हथियारों से लैस किया ही गया था, ताकि रूसी दबदबा नष्ट हो सके। भारत के पास गुट-निरपेक्षता को फिर खड़ा करने का विकल्प मौजूद है, लेकिन वर्तमान शासन में आत्मबल नहीं है। रूस को थामने के उद्देश्य से ‘नाटो’ अब चीनी प्राधान्य को दक्षिण तथा दक्षिण-पूर्वी एशिया में मान्यता देगा। ऐसे में भारत की मुश्किलें और बढ़ेंगी।

इस जागतिक माहौल में हमारी यात्रा आगे बढती गई। उधर, देश में नफरत की अंधड़ चलती रही। हिजाब, हलाल, नवरात्रि में मांसाहार प्रतिबंध, हिंदू देवस्थानों के पास मुस्लिम दुकानदारों पर प्रतिबंध आदि के रूप में नफरत, हिकारत, भय की आंधी, प्रतिरोध की परवाह किए बगैर फैलती गई। प्रतिरोध भी कोई खास कड़ा नहीं था। प्रतिरोधकों को टुकड़े-टुकडे गैंग कहती मीडिया ने कुछ दिखाया भी नहीं। अलबत्ता ‘कश्मीर फाईल्स’ खूब देखी जा रही है।

ऐसे में सर्वोदयी क्या करें? पाश्चात्य चिंतक मानते थे कि ‘राष्ट्र-राज्य’ के मूल में शत्रु-भाव होता ही है। हर राष्ट्र का निर्माण किसी-न-किसी सीमावर्ती शत्रु से भिड़ने के लिए ही होता है। राष्ट्रवाद के लिए बैरी होना अवश्यंभावी है। इसीलिए रबीन्द्रनाथ टैगोर ‘विश्ववादी’ थे और गांधी से उनका मतभेद भी था, मगर उस समय मनभेद नहीं हुआ करता था। गांधी मानते थे कि वैश्विकता तक पहुंचने के लिए दासत्व मुक्ति जरुरी है। विश्वपटल पर आत्मगौरव से समत्व का रिश्ता बनाने के लिए अधिनायकत्व से आजादी जरुरी है।

सुखद बात यह है कि ‘भारतीय राष्ट्रवाद’ के फलसफे को पहले-पहल आधार देते हुए गोपाल कृष्ण गोखले ने भय, नफरत, शत्रुभाव से न सिर्फ पूर्णत: मुक्त रखा, बल्कि ‘सामूहिक चेतना’ को राष्ट्र के रूप में परिभाषित किया। ‘भारत माता’ को नेहरू बडी ही रुमानियत के साथ गहनता से समझते हैं। ‘भारत-माता’ माने केवल नदी, पहाड़, झरने, भूगोल, पर्यावरण, पयार्वास ही नहीं, बल्कि भारत के लोग भी हैं। ‘भारत-माता’ कोई देवी नहीं, बल्कि हरेक भारतीय है।

इस मान से ‘राष्ट्र’ के मायने स्पष्ट हैं। ‘राष्ट्र’ माने लोग, प्रकृति और परस्पर सौहार्द्रमयी अर्न्तनिर्भरता। ‘राष्ट्र-राज्य’ में राज्य वो अवधारणा है; जो राष्ट्र माने जाने वाले लोगों की आकांक्षाओं, सपनों को मौका एवं मंच प्रदान करे। हर एक की गरिमा, न्याय, समता, बंधुत्व को सुनिश्चित करे। ‘राज्य’ जब हावी होने लगे, तो ‘राष्ट्र’ की अभिव्यक्ति मूक हो जाती है।

‘राज्य’ बड़ी ही चतुराई से शत्रु का किरदार गढ़ता है, ताकि ‘राष्ट्र’ को दिग्भ्रमित किया जा सके, ताकि पर्यावरणीय दोहन, गहरी आर्थिक, सामाजिक विषमता को भुलाकर ‘राष्ट्र’ शत्रुता में खोया रहे। हमारा पड़ोसी मुल्क यही करता रहा। मगर जनाकांक्षाओं की अनदेखी को विप्लव में परिणत होने से रोक नहीं सका। एक और विभाजन हो ही गया।

खुद हमारे मुल्क में उसी पड़ोसी को शत्रु ठहराकर कई लक्ष्य साध लिए गए। उस मुल्क के सहधर्मी भारतीय अब निशाने पर हैं। वे इस राज्य के द्वारा गढ़े गए काल्पनिक शत्रु हैं। ‘राष्ट्र’ माने लोग इस पर अभिभूत हैं कि वर्तमान व्यवस्था ही उस शत्रु को औकात में रख सकती है। ‘राज्य’ निश्चिंत है कि सांप्रदायिकता की अफीम गंगा में बहती लाशों, बढ़ती बेरोजगारी, महंगाई, अलगाव को नजरअंदाज कर ही देगी। चुनाव परिणाम यही साबित करते हैं।

हमारी यात्रा में इन सबसे इतर ‘भारत माता’ माने लोगों के चैतन्य के कई-कई बार दर्शन हुए। कई सौ गांवों, आदिवासी बसाहटों, दलित बस्तियों में रहना, संवाद करना होता रहा। मीडिया के अधिकांश चैनल वहां बताई गई जनसमस्याओं पर एक लाइन भी नहीं कहते। भू-दान के इतने सालों बाद शासन भूमि का दोहन करती है|

शोषण करती है। तेलंगाना में भू-अभिलेखों को डिजीटाईस करने के नाम पर काश्त की जमीनें, वनाधिकार के पट्टे, काबिज जमीनों पर नियमानुसार हक छीने जा रहे हैं। वो सब विवादित जमीन मानी जा रही है। अपनी ही जमीन से हजारों लोग हाथ धो बैठे हैं।

आजादी के पचहत्तरवें साल में संसाधनों के बंटवारों में गहन विषमता है। देश के 142 अति अमीर चाहे जितनी जमीन, जल, जंगल, समुद्री तट ले सकते हैं, मगर किसी परियोजना में उनकी एक इंच जमीन नहीं जाती। हवाई-अड्डे, नेशनल पार्क, रोड के लिए वो वर्ग बेदखल होता है; जिस तक इस तथाकथित विकास के सूर्य की एक किरण भी नहीं पहुंचती।

भू-दान के बाद भू-स्वामित्व की व्यक्तिगत सीमा तय की गई। अब परियोजनाओं की भी सीमा तय होनी चाहिए। अधिग्रहण इतना होता है कि कई सौ एकड़ जमीन औने-पौने दाम में लेकर फिर भूमाफिया को बेची जाती है। 2013-14 का ‘भू-अधिग्रहण कानून’ ‘ईज आॅफ डुइंग बिजनेस’ की भेंट चढ़ गया। भू-माफिया से संचालित राजनीतिक पार्टी अब भूमिहीनों के पक्ष में खड़ी नहीं हो सकती।

सर्वोदय की मान्यता रही है कि झुग्गी बस्ती धारावी के पड़ोस में सत्ताईस मंजिला मकान में रहते चार प्राणियों को भी नैतिक उदय की जरूरत है, मगर अब उनके उदय की प्रतीक्षा करना घोर हिंसा होगी। अहिंसा का मतलब निष्क्रियता नहीं है। सांप्रदायिक पूंजीवादी ताकतों को कड़ी चुनौती देकर वैकल्पिक सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, गुट-निरपेक्ष विश्व-व्यवस्था की ओर अग्रसर होना ही सर्वोदय की सार्थकता है। पुरानी रूमानियत में खोये रहकर विरासत के दोहराव से यह मात्र कर्मकांड होकर रह जाएगा। संगठन को अभ्यास या साधना करनी चाहिए।

राष्ट्र यदि लोग एवं प्रकृति की सौहार्द्रमय अर्न्तनिर्भरता और सामूहिक चेतना है; तो उसमें किसी बैरी की जरूरत नहीं होगी। नित्य अन्वेषण और न्याय के पक्ष में खड़े रहना जरूरी है। अन्याय के विरुध निष्पक्षता का मतलब उसका समर्थन है। मान्यताओं को नये तौर-तरीकों से बदले हालात में नवीन पीढी के लिए सुग्राहय बनाना जरूरी है।

मार्ग का दोहराव नहीं, नव-अन्वेषण जरूरी है। पैदल यात्राएं ‘भारत-माता’ के दर्शन कराती हैं। रघुनाथपुर के लम्बाडों, श्रीनापल्ली के मनरेगा मजदूरों, बस्वापुर की दलित बस्तियों, पांड़रकवड़वा की आदिवासी महिलाएं, पिपरवाड़ा और गाड़गे महाराज आश्रमशाला में किलकारी मारते बच्चे, भू-दान के दाताओं में भारत माता की विराटता के दर्शन होते हैं।

मीनाक्षी नटराजन


janwani address 189

spot_imgspot_img

Subscribe

Related articles

Amitabh Bachchan: बिग बी की टूटी चुप्पी, युद्ध विराम पर बोले अमिताभ, रामचरितमानस का किया जिक्र

नमस्कार, दैनिक जनवाणी डॉटकॉम वेबसाइट पर आपका हार्दिक स्वागत...

Meerut News: नमो भारत स्टेशन पर खुला को-वर्किंग स्पेस

जनवाणी संवाददाता|मेरठ: गाजियाबाद नमो भारत स्टेशन पर एक अत्याधुनिक...

Meerut News: भाजपा नेताओं ने कहा-सीजफायर राष्ट्र हित में लिया गया निर्णय

जनवाणी संवाददाता |मेरठ: सीमा पर सीज फायर को भाजपाइयों...
spot_imgspot_img