नफस-नफस कदम-कदम बस एक फिक्र दम-ब-दम, घिरे हैं हम सवाल से हमें जवाब चाहिए। जवाब दर सवाल है कि इन्कलाब चाहिए।
हिंदी में ‘नई कविता’ आन्दोलन के बाद युयुत्सावाद का प्रवर्तन करने वाले प्रेम, प्रकृति, स्त्री और बगावत के बोहमियन कवि शलभ श्रीराम सिंह की यह बदलावधर्मी नज्म जनान्दोलनों का प्रयाण गीत बन गई तो अभिभूत आलोचकों ने यहां तक कह डाला था कि शलभ इसके बाद कुछ न रचें, तो भी लम्बे वक्त तक याद किये जाते रहेंगे। नागार्जुन तो यहां तक मानने लगे थे कि शलभ से हिन्दी कविता का नया गोत्र आरंभ होता है। अब जब शलभ के निधन के 23 साल बाद भी इस नज्म की चमक फीकी नहीं पड़ी है, कह सकते हैं कि वे आलोचक गलत नहीं थे। बहरहाल, 1938 में पांच अक्टूबर को यानी आज के ही दिन उत्तर प्रदेश के फैजाबाद (अब अम्बेडकरनगर) जिले के मसोढ़ा गांव में जन्मे शलभ को मा-बाप ने श्रीराम नाम दे रखा था। बाद में कवि बनने की प्रक्रिया में उन्हें लगा कि शत्रुघ्न, लक्ष्मण और भरत त्रयानी श ल भत्न के बगैर श्रीराम कुछ हैं ही नहीं, तो उन्होंने अपने नाम में श्रीराम से पहले शलभ जोड़ लिया था। लेकिन उनके इससे पूर्व के जीवन के जानकार बताते हैं कि वे एक दारुण वाकये से गुजरकर कवि बने थे।
दरअसल, ुिआ यह कि उनके 16-17 साल के होते-होते पिता रामखेलावन ने एक गोरी-चिट्टी रूपगर्विता कन्या से उनका विवाह तय कर दिया। उन दिनों के रिवाज के अनुसार इस विवाह के लिए न शलभ की सहमति ली गई, न ही उक्त कन्या की। इसका अनर्थ इस रूप में सामने आया कि विवाह के दिन बरात कन्या के दरवाजे पर पहुंची और वह ‘बीड़ा’ मारने निकली तो यह देखकर उसपर बिजली सी गिर पड़ी कि दूल्हे का रंग ‘काले भुजैटा’ जैसा है। पिता की पगड़ी की लाज रखने के लिए उस वक्त तो उसने अपने कलेजे पर पत्थर रख लिया और मांग में सिन्दूर भरवाकर डोली में बैठ ससुराल चली गई, लेकिन सुहागरात को शलभ के लिए तिरस्कार की रात बना दिया। उनके काले रंग को लेकर इतना अपमानित किया कि उन्हें घर छोड़कर कल्कत्ता भाग जाने में ही निस्तार दिखा।
कल्कत्ता में उन्हें उन दिनों के प्रसिद्ध मूनलाइट थियेटर में चाय पिलाने वाले टी-ब्वाय का काम मिला तो उन्होंने उसे अपनी नियति मानकर स्वीकार कर लिया। यह स्वीकारना उन्हें इस अर्थ में बहुत रास आया कि वहां कवियों व कलाकारों की संगति में रहते-रहते उनके भीतर भी काव्य-प्रतिभा जाग उठी और उन्होंने ‘शलभ फैजाबादी’ नाम से शायरी शुरू कर दी। हां, इस बीच उनका बोहेमियन जीवन का अभ्यास भी लगातार लम्बा होता गया। हालांकि उन्होंने वहां दूसरा विवाह कर घर भी बसाया।
उन्हीं की मानें तो उन्होंने 1962 से कविकर्म को गम्भीरतापूर्वक स्वीकारा और मसिजीवी कहलाने में गर्व का अनुभव करने लगे। 1963 में कल्कत्ता के चैरंगी होटल में एक गोष्ठी में वरिष्ठ आलोचक विजयबहादुर सिंह से हुई उनकी भेंट जल्दी ही दांत काटी दोस्ती में बदल गई। विजयबहादुर सिंह बताते हैं कि हिन्दी के कई दूसरे साहित्यकारों की तरह शलभ के सृजन की शुरूआत भी उर्दू से हुई और उन्होंने क्लासिक के साथ फैज, फिराक व मजाज के टेम्परामेंट वाली अनेक गजलें रचीं। हालांकि गजल के फार्म को लेकर वे जिगर मुरादाबादी से बहुत प्रभावित थे-भले ही जिगर रोमांटिक गजलकार थे और वे क्रांतिकारी।
आगे चलकर शलभ ने भाषा और छंद की कोई भी बंदिश या कैद अस्वीकार कर दी और खुद को हिन्दी-उर्दू की पूरी परम्परा का वारिस और उनकी कविता-परम्परा का नया अध्याय मानकर दोनों के बीच पूरी शक्ति व सामर्थ्य से संचरण करने लगे। वे उन आलोचकों से बहुत चिढ़ते थे, जो कवियों को दशकों में बांटकर किसी को इस तो किसी को उस दशक का कवि बताते थे। निजी जीवन में ‘अराजक’ होेने के बावजूद शलभ अपनी कविताओं की भाषा, छंद और कल्पनाओं को बेहद सधी हुई, सटीक व व्यवस्थित रखते थे। वे आम लोगों पर होने वाले हर तरह के अन्याय व अत्याचार के प्रति असहिष्णु थे और उनकी स्वाधीन काव्यदृष्टि निर्मम सत्ताओं या व्यवस्थाओं से लोहा लेने में किंचित भी आगा-पीछा नहीं करती थी।
उनका कवि तमाम तरह की यातनाओं से आंख मिलाने के हौसले व आत्मविश्वास से इतना भरा हुआ था कि उन्हें अपने समकालीनों में सबसे अलग और विशिष्ट बनाये बगैर रह नहीं पाता था। न उन्हें दुष्यंत जैसा बनने देता था, न अदम गोंडवी जैसा। इसीलिए गीत हो, नवगीत हो, नई कविता, पारंपरिक गजल, बदलावधर्मी नज्म या फिल्मी गीत-सबकी रचना में शलभ एक जैसी विशिष्टता के साथ बेलौस होकर सामने आते थे। अलबत्ता, विजय बहादुर सिंह बताते हैं कि उन्होंने अपना पहला गीत ‘मेघदूत’ से प्रभावित होकर लिखा था और अपनी गजलों के संस्कार के लिए अपने पैतृक जनपद के शायर अनवर जलालपुरी के कृतज्ञ थे।
उनकी पहली रचना उनके मूनलाइट थियेटर वाले दिनों में कल्कता के दैनिक ‘सन्मार्ग’ में शलभ फैजाबादी नाम से छपी थी। उसके बाद युयुत्सावाद के प्रवर्तक बनने तक उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा था। जल्दी ही धर्मयुग, कल्पना, कादम्बिनी और साप्ताहिक हिन्दुस्तान समेत उन दिनों की प्राय: सारी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में उनकी धूम मच गई थी। कादम्बिनी ने अपनी 1963 की गीत प्रतियोगिता में उनके ‘गीत और बांसुरी’ शीर्षक गीत को पुरस्कृत किया तो धर्मयुग ने अपनी ‘नये गीत हस्ताक्षर’ श्रृंखला में पांचवें हस्ताक्षर के तौर पर छापा था और नरेश सक्सेना को उनके बाद जगह दी थी।
1979 में वे फिल्मों में अपनी किस्मत आजमाने बम्बई चले गये, जहां कुलभूषण खरबंदा के साथ भी कुछ वक्त गुजारा था। लेकिन फिल्मों की दुनिया उन्हें कुछ रास नहीं आई। उन्होंने कुछ फिल्मों के गीत लिखे भी तो वे उन नामी गीतकारों के नाम से लिये गये, जिनकी मार्फत उन्हें उनको लिखने का आफर मिला था। यह बात उनके अहं को गवारा नहीं हुई। वैसे, नेपथ्य तो उन्हें जीवन में कभी स्वीकार नहीं रहा। जैसे निराला ने ‘मैं ही बसंत का अग्रदूत’ का उद्घोष किया था, वे खुद को प्रोजेक्ट करने में यकीन रखते थे।
बम्बई से लौटकर वे पहले कल्कत्ता, फिर विदिशा और अंत में अपने गांव मसोढा चले गये। मसोढ़ा में ही 22 अप्रैल, 2000 को उन्होंने रहस्यमय परिस्थितियों में इस संसार को अलविदा कहा। उस वक्त वे ‘अवांतर’ नाम से एक मासिक के प्रकाशन की योजना बना रहे थे, जबकि उनके सम्पादन में निकली ‘अनागता’, ‘परम्परा’ और ‘रूपाम्बरा’ जैसी पत्रिकाएं खूब चर्चा बटोर चुकी थीं।