सुशील यादव |
घोषणा-पत्र जारी करने का दबाव मुझ पर भी कम नहीं था। लोग मुझे पार्टी से धकियाये हुए समझते हैं, मगर ऐसा नहीं है। आत्मसम्मान भी कोई चीज होती है ऐसा मेरा मानना है। आप पूछेंगे आपका आत्मसम्मान तब क्या घास चरने गया था जब आपसे जूनियर धड़ाधड़ मंत्री बनाए जा रहे थे, निगम के मलाईदार विभागों की लाल बत्तियाँ पा रहे थे। ट्रांसफर पोस्टिंग्स में अपनी बातें मनवा रहे थे। अपने ठेकेदारों की उपेक्षा को बर्दाश्त न कर पाने की जिद पर अड़े थे?
बेशक, बेशुबहा आपका मुझ पर ये आरोप कदाचित गलत नहीं हैं। हम गांधीवादियों की वादी से आते हैं। हम में जियो और जीने दो जैसा कुछ है, जो हमें टुच्चेपन की राजनीति करने नहीं देता। हम लाख कोशिश करके भी देख लें हमारा नैतिक बल गैर नीतियों के भरोसे हमें ऊपर उठने नहीं देता।
रिपोर्टर ने मेरा इंटरव्यू लेना शुरू किया।
‘अब जबकि आप पार्टी से निकाल दिए गए हैं…’
‘नहीं, …मैडम! अपनी राजनीतिक समझ को जरा अपडेट कीजिए, हम निकाले नहीं गए हैं, हम स्वत: पार्टी छोड़ के बाहर आए हैं…। आगे कहिये…’
‘इसी से जुड़ा प्रश्न है कि वो कौन सी वजह थी जिससे आप पार्टी छोड़ने पर विवश हुए …आगे आपकी रणनीति क्या होगी…? सत्ताधारी पार्टी की तरफ रुख करेंगे, या किसी छोटी पार्टी से हाथ मिलाएंगे…?’
‘देखिये न हम सत्ताधारी पार्टी में समाने जा रहे हैं न दीगर पार्टी का दामन थाम रहे हैं, हम अपनी खुद की पार्टी, खुद का खेमा, खुद का संगठन तैयार करके अपनी छोड़ी हुई पार्टी को बता देना चाहते हैं कि उन्होंने हमें कमतर आंकने में जल्दबाजी की। जल्द हम अपनी सरकार बना लेंगे…’
‘आप एक नई पार्टी का गठन करने जा रहे हैं, जनता आपसे पूछेगी घोषणा-पत्र कहां है? जागरूक मतदाता तो बिना किसी घोषणा-पत्र के सदन में जाने नहीं देगा?’
‘अपने स्टेट में जहां एक ओर प्रबुद्ध शरीफ मतदाता हैं तो दूसरी तरफ उंगलियों में गिनने लायक ही सही, चिड़ीमार, बटेरबाज, उठाईगीर, कबाड़िये, सुपारी-किल्लर बहुतायत से भरे पड़े हैं। इन्हीं सब को मद्दे-नजर रखते हुए बहुत अनुसन्धान करके हमारी पार्टी ने इत्मीनान से घोषणा-पत्र तैयार किया है। एंटी हीरो टेक्नीक पर, मतदाताओं को धिक्कारने वाला, इस किस्म का घोषणापत्र अजूबा है मगर हमारे आईआईटी पास सलाहकार ने यही सुझाया है। प्वाइंट वाइज आप भी गौर फरमाएं
जनता को एक रुपये में मिलने वाला अनाज बंद
‘आप पूछेंगे… क्यों?’
‘भाई साहब, देखिये रुपये किलो अनाज पाकर लोग निकम्मे हो गए हैं। खेतों में काम के वास्ते मजदूरों का अकाल पड़ गया है। दूसरी जगह के मजदूर आ-आ कर झुग्गियाँ तानने लगे हैं। कल मतदाता बनेंगे। बेजा कब्जे की जमीन में हक जतायेंगे। रुपया किलो का खाना मिले तो मजदूरी से, कमाई गई रकम आमदनी, ‘पीने’ में खप जाती है।’
स्कूल में मध्यान-भोजन निरस्त
‘आप पूछेंगे ऐसा क्यों? ’
‘देखिये, हम मास्टर जी की छड़ी खा-खा के पढ़े हैं। न घर में, न स्कूल में, कहां मिलता था खाने को? फिर भी पढ़ लिए। अच्छे से पढ़ लिए। गिनती, पहाड़ा, अद्धा-पौना, इमला, ब्याज, महाजनी, लाभ-हानि सब कुछ पांचवी क्लास तक सीखा देते थे बिना मध्याह्न वाले स्कूलों के मास्टर जी। बिना केलकुलेटर-कंप्यूटर के, दिमाग चाचा चौधरी माफिक फास्ट चलता था।
आज, मध्याह्न भोजन खाने वालों को ‘पाव, अद्धा-पौना’ जैसे पहाड़े की पूछो तो नानी की नानी याद आ जाती है। हां ये जरूर है कि स्कूल से निकलते ही मास्टर जी सहित इन बच्चों को क्वाटर, पाव-अद्धा की फिकर सताने लगती है। सरकार ने सुविधा के लिए स्कूलों-मंदिरों के नजदीक बहुत से ‘रुग्णालय’ खोल रखे हैं।
पूंजी-पति मतदाताओ, आपसे कुछ कहना बेकार है। आप किसी की नहीं सुनते। अपना कैंडिडेट आप छुपे तौर पे खड़े किए रहते हो। पैसा फेंकते हो, तमाशा देखते हो। जीते तो वाह-वाह, नहीं तो जो जीता वही सिकंदर। चढ़ावा-चढ़ाने का नया सेंटर चालू हो जाता है। आपकी जिद के आड़े हमारी पार्टी आएगी, बता दिए रहता हूं? ताकत लगा देना हमें हारने में… नहीं तो…। खैर! अनाप-शनाप कहने पर, आयोग मुझे धर लेगा, खुल्लम-खुल्ला क्या बोलूं?
गरीब मतदाताओ। घबराने का नइ…? बिकने का नइ …डरने का नइ…पी के बहकने का नइ….। जब होश में रहने का टाइम आता है, तो तुम सब बे-होश होने का नाटक क्यों करते हो? किसी के खरीदे गुलाम क्यों हो जाते हो? कहाँ मर जाती है तुम्हारी अंतरात्मा? कहां बिक जाता है तुम्हारा ईमान ..?
एक दिन के पीने का इन्तिजाम, एक कंबल या एक साड़ी, हजार-पांच सौ के नोट …
बस यहीं तक है तुम्हारा प्रजातंत्र?
धिक्कार है तुम्हें और तुम्हारे ईमान को!’
मैं पसीने से लथ-पथ, अपने बिस्तर में, सोते से जाग जाता हूं!
आस-पास बिखरे कागजों में ढूंढता हूं, कहीं सचमुच मैंने कोई घोषणा पत्र जारी करने का ‘अपराध‘ तो नहीं किया?