एक लौकिक कहानी है। सैला, सांप और सियार—तीनों मित्र थे। जहां मित्रता होती है, वहां हर प्रकार की चर्चा चल पड़ती है। एक बार तीनों के मन में प्रश्न उभरा—हम तीनों में बुद्धिमान कौन है? जहां बुद्धिमत्ता का प्रश्न आता है, वहां प्रत्येक व्यक्ति अपने आपको बुद्धिमान बताने की कोशिश करता है। प्रत्येक व्यक्ति सोचता है कि मैं पूरी तरह सही हूं। सामने वाला व्यक्ति ठीक नहीं है। बेवकूफ आदमी तो समझता ही है अपने आप को सबसे ज्यादा बुद्धिमान। भोला आदमी भी दूसरे की त्रुटि निकालने में होशियार होता है। सांप ने कहा, ‘मैं सौ तरह की बुद्धियां जानता हूं।’ सैला बोला, ‘मैं पचास तरह की बुद्धियां जानता हूं।’ सियार ने कहा, ‘मैं तो न सौ बुद्धियां जानता हूं और न पचास। मुझमें तो एक ही बुद्धि है। जब समस्या आती है, तब उस बुद्धि को काम में ले लेता हूं।’ बात समाप्त हो गई। कुछ दिन बाद अचानक जंगल में आग लग गई। आग सारे जंगल में फैलने लगी। सांप आग से बचकर निकल नहीं सका। सैले का चलना तो और भी कठिन था। कांटों का भार लिए दौड़ना कब संभव था? दोनों आग में जलकर भस्म हो गए। सियार बहुत तेजी से दौड़ा और दौड़ता ही चला गया। उसने पीछे मुड़कर भी नहीं देखा। जंगल के समाप्त होने पर खुले मैदान में पहुंचकर उसने राहत की सांस ली। वह जंगल की भभकती आग को देखकर बोल उठा, ‘जिसमें सौ बुद्धियां हैं, वह रस्सी जैसा पड़ा है। जिसमें पचास बुद्धियां हैं, वह गेंद जैसा गोल बन गया है। मेरी अकेली बुद्धि ही अच्छी है, जिससे मैं सकुशल जीवित खड़ा हूं।’ कहने का अर्थ यह है कि बुद्धि ही एक ऐसी है, जिसके सामने सारी सारी चीजें धरी रह जाती हैं। बस जरूरत इसकी है कि बुद्धि का सही और सकारात्मक रूप से प्रयोग किया जाए।
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