Monday, July 8, 2024
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बंपर फसल के भी हैं नुकसान

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Samvad 45


PANKAJ CHATURVEDIझारखंड का लातेहार जिला के बालूमाथ व बारियातू के इलाके में दो किस्म के टमाटर की खेती के लिए मशहूर हैं-एक है मोटे छिलके वाला गुलशन, जिसका इस्तेमाल सब्जी और विशेष तौर पर सलाद के रूप में किया जाता है। वहीं सलेक्शन नामक किस्म के टमाटर के छिलके की परत नरम होती है इसका इस्तेमाल सिर्फ सब्जी, चटनी और टोमैटो कैचअप के लिए किया जाता है। कुछ साल पहले तक टमाटर की लाली यहां के किसानों के गालों पर भी लाली लाती थी, लेकिन इस साल हालत यह है कि फसल तो बंपर हुई, लेकिन लागत तो दूर, तोड़ कर मंडी तक ले जाने की कीमत नहीं निकल रही। टमाटर की खेती के लिए एक एकड़ में लगभग 2 लाख रुपये खर्च आता है। बाजार में एक रुपए किलो के भी खरीदार हैं नहीं सो कई खेतों में खड़ी फसल सड़ रही है। दिल्ली और उसके आसपास भले ही बाजार में टमाटर के दम 20 रुपये किलो हों, लेकिन टमाटर उगाने के लिए मशहूर देश के विभिन्न जिलों में टमाटर कूड़े में पड़ा है।

मध्य प्रदेश के बैतूल और नीमच जिले में भी टमाटर किसान निराश हैं। बंपर आवक के बाद मंडी में अधिकतम दाम छ: से आठ रुपए मिल रहे हैं, जबकि लागत 14 रुपये से कम नहीं है। राजस्थान की झुंझनु मंडी में भी टमाटर किसान बगैर बेचे फसल फेंक कर जा रहा है। सबसे बुरे हालात तो आंध्र प्रदेश के रायलसीमा और चित्तूर जिलों के किसानों के हैं, जहां बड़ा कर्ज ले कर शानदार फसल उगाई गई।

जहां बाजार में खुदरा भाव 10 रुपये प्रति किलो है, वहीं थोक बाजार में यह 5 रुपये प्रति किलो है। लेकिन किसान इसे 3 और 4 रुपये प्रति किलोग्राम के हिसाब से बेच रहे हैं। पहले यहां से टमाटर निर्यात हुआ करता था लेकिन इस बार कोई खरीदार है नहीं। एक पेटी में कोई तीस किलो टमाटर आते हैं, यहां प्रति एकड़ 150 बक्सों का उत्पादन किया। किसान को एक पेटी के 100 रुपये से ज्यादा मिले नहीं और यह कीमत विनाशकारी साबित हुई। निवेश किया डेढ़ लाख रुपये और बदले में उन्हें केवल 60,000 रुपये मिले।

सत्य सार्इं और अनंतपुर दोनों जिलों में लगभग 45,000 एकड़ में टमाटर की खेती की जाती है। हालांकि दोनों जिलों में कुल अनुमानित निवेश लगभग 9.10 करोड़ रुपये है, लेकिन किसानों को लगभग 5 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है, जिनमें से कई ने अपनी फसल को खेत में छोड़ना पसंद किया है। यहां कोई ऐसा किसान नहीं है जो टमाटर के कारण कर्ज में न फंस गया हो।

असम के मंगलदे जिले के खरुपेतिया में एक किसान ने तीन बीघा में लगे छह क्विंटल टमाटर उगाए और मंडी में उसे दाम मिले महज दो रुपये किलो-सीधे साथ हजार का घाटा हुआ। चूंकि पहले मंगलदे और दरंग जिले के टमाटर की बंगाल, दिल्ली से ले कर पंजाब तक मांग रहती थी लेकिन इस बार सभी राज्यों में किसानों ने टमाटर इफरात में उगाया, सो यहां का माल दाम नहीं पा सका।

हालांकि न तो यह पहली बार हो रहा है और न ही केवल टमाटर के साथ हो रहा है। उम्मीद से अधिक हुई फसल सुनहरे कल की उम्मीदों पर पानी फेर देती है-घर की नई छप्पर, बहन की शादी, माता-पिता की तीर्थ-यात्रा; न जाने ऐसे कितने ही सपने वे किसान सड़क पर ‘केश क्रॉप’ कहलाने वाली फसल के साथ फेंक आते हैं। साथ होती है तो केवल एक चिंता-खेती के लिए बीज, खाद के लिए लिए गए कर्जे को कैसे उतारा जाए? पूरे देश की खेती-किसानी अनियोजित, शोषण की शिकार व किसान विरोधी है।

तभी हर साल देश के कई हिस्सों में इफरात फसल को सड़क पर फेंकने और कुछ ही महीनों बाद उसी फसल की त्राहि-त्राहि होने की घटनाएं होती रहती हैं। किसान मेहनत कर सकता है, अच्छी फसल दे सकता है, लेकिन सरकार में बैठे लोगों को भी उसके परिश्रम के माकूल दाम, अधिक माल के सुरक्षित भंडारण के बारे में सोचना चाहिए।
हर दूसरे-तीसरे साल कर्नाटक के कई जिलों के किसान अपने तीखे स्वाद के लिए मशहूर हरी मिर्चों को सड़क पर लावारिस फेंक कर अपनी हताशा का प्रदर्शन करते हैं।

देश के अलग-अलग हिस्सों में कभी टमाटर तो कभी अंगूर, कभी मूंगफली तो कभी गोभी किसानों को ऐसे ही हताश करती है। दिल्ली से सटे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई जिलों में अक्सर आलू की टनों फसल बगैर उखाड़े, मवेशियों को चराने की घटनाएं सुनाई देती हैं। आश्चर्य इस बात का होता है कि जब हताश किसान अपने ही हाथों अपनी मेहनत को चौपट करता होता है, ऐसे में गाजियाबाद, नोएडा या दिल्ली में आलू के दाम पहले की ही तरह तने दिखते हैं।

राजस्थान के सिरोही जिले में जब टमाटर मारा-मारा घूमता है तभी वहां से कुछ किलोमीटर दूर गुजरात में लाल टमाटर के दाम ग्राहकों को लाल किए रहते हैं। सरकारी और निजी कंपनियां सपने दिखा कर ज्यादा फसल देने वाले बीजों को बेचती हैं, जब फसल बेहतरीन होती है तो दाम इतने कम मिलते हैं कि लागत भी ना निकले।

दुर्भाग्य है कि कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था वाले देश में कृषि उत्पाद के न्यूनतम मूल्य, उत्पाद खरीदी, बिचौलियों की भूमिका, किसान को भंडारण का हक, फसल-प्रबंधन जैसे मुद्दे, गौण दिखते हैं और यह हमारे लोकतंत्र की आम आदमी के प्रति संवेदनहीनता की प्रमाण है। सब्जी, फल और दूसरी कैश-क्राप को बगैर सोचे-समझे प्रोत्साहित करने के दुष्परिणाम दाल, तेल-बीजों (तिलहनों) और अन्य खाद्य पदार्थों के उत्पादन में संकट की सीमा तक कमी के रूप में सामने आ रहे हैं।

किसानों के सपनों की फसल को बचाने के दो तरीके हैं-एक तो जिला स्तर पर अधिक से अधिक कोल्ड स्टोरेज हों और दूसरा स्थानीय उत्पाद के अनुसार खाद्य प्रसंस्करण खोले जाएं। यदि हर जिले में टमाटर केचप और सॉस के कारखाने हों तो किसान को फसल फेंकना नहीं पड़ेगा।

हमारे देश में इस समय अंदाजन आठ हजार कोल्ड स्टोरेज हैं, जिनमे सबसे ज्यादा उत्तर प्रदेश में 1817, गुजरात में 827, पंजाब में 430 हैं, लेकिन इनमे से अधिकांश पर आलू और प्याज का कब्जा होता है। आज जरूरत है कि खेतों में कौन सी फसल और कितनी उगाई जाए, उसकी स्थानीय मांग कितनी है और कितने का परिवहन संभव है-इसकी नीतियां यदि तालुका या जनपद स्तर पर ही बनें तो पैदा फसल के एक-एक कतरे के श्रम का सही मूल्यांकन होगा। एक बात और कोल्ड स्टोरेज या वेयर हाउस पर किसान का नियंत्रण हो, न कि व्यापारी का कब्जा।


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