अर्थशास्त्र की दृष्टि से बजट केवल सरकार की एक वर्ष की आय और व्यय का ब्यौरा ही नहीं प्रस्तुत करता है, बल्कि देश के विकास के लिए सरकार की आर्थिक नीतियों और उसके विजन को भी परिलक्षित करता है। बजट के माध्यम से अर्थव्यवस्था की प्राथमिकताएं और दिशा तय होती हैं। सरकार के बजट के द्वारा जो प्राथमिकताएं और निवेश निर्धारित होता है, वह संपूर्ण देश की अर्थव्यवस्था, जनसंख्या और उनके जीवन स्तर को प्रभावित करता है। लेकिन वर्ष 2022 के बजट में इन बुनियादी तत्वों का अभाव दिखायी पड़ता है।
बजट में की गर्इं कुछ प्रमुख घोषणाएं इस प्रकार हैं-
आरबीआई द्वारा डिजिटल करेंसी जारी की जाएगी, वर्चूअल करेंसी से आय पर 30 फीसदी की दर से कर लगाया जाएगा, न्यू पेंशन स्कीम में राज्य कर्मचारियों की कर छूट 10 प्रतिशत से बढ़ाकर 14 प्रतिशत कर दिया, पूंजीगत व्यय में लगभग 4.5 प्रतिशत की वृद्धि की घोषणा, 19,500 करोड़ सोलर मोडयूल के निर्माण को आवंटित, ओर्गेनिक खेती को बढ़ावा, गंगा किनारे किसानों को लाभ, 2023 मोटा अनाज वर्ष घोषित, नॉन- केमिकल खेती पर जोर, अगले 3 वर्ष में नई वंदे भारत ट्रेन का संचालन, मेक-इन इण्डिया के तहत 70 लाख लोगों को रोजगार आदि।
बजट में जो घोषणाएं की जाती हैं, उनमें कुछ न कुछ घोषणाएं ऐसी होती ही हैं, जो अर्थव्यवस्था के कुछ हिस्सों को अवश्य लाभ पहुंचाती हैं। लेकिन बजट का मूल्यांकन केवल इस आधार पर नहीं किया जाना चाहिए। बजट के मूल्यांकन के लिए सरकार की पिछले वर्षों में अपनायी गर्इं नीतियों के परिणाम, प्राप्त लक्ष्यों के साथ वर्तमान वर्ष की उपलब्धियों एवं आने वाले वर्ष में उसी के तत्क्रम में घोषित योजनाओँ के साथ सरकार के दीर्घकालिक आर्थिक दृष्टिकोण में सततता पर जोर देना जरूरी है।
इस बजट को देखने से ऐसा लगता है कि पिछले वर्ष के बजट में जो घोषणाएं की गर्इं थीं, जो लक्ष्य निर्धारित किए गए थे, उनकी उपलब्धि या अनुपलब्धि के कारणों पर कहीं कोई चर्चा दिखाई नहीं देती है। यह किसी भी बजट की सबसे गम्भीर बात होती थी।
कहां सरकार द्वारा दो करोड़ रोजगार प्रतिवर्ष देने की बात होती थी, लेकिन इस बजट में उस पर कोई बात नहीं हुई। अब 70 लाख रोजगार की बात कर रहे हैं, वो भी कब तक इसकी कोई चर्चा नहीं है। अधिकतर बातें या तो 5-7 वर्षों के लिए हैं या 25 वर्ष के लिए की जा रही हैं। वर्तमान में अर्थव्यवस्था के सम्मुख चुनौतियों पर बजट मौन है। बजट में आंकड़े गायब हैं। आंकड़ों के साथ जादूगरी का खेल होता दिखाई दे रहा है।
क्रिप्टो करेंसी को कर के दायरे लाने से इसकी स्वीकार्यता पर मुहर लग गई है। लेकिन क्रिप्टो करेंसी का नियमन और नियंत्रण बहुत बड़ी चुनौती है। बजट को बारीकी से देखने से पता चलता है कि सरकार का फिस्कल मैथ्स ही गड़बड़ा गया है। बजट में 11.1 प्रतिशत की नॉमिनल ग्रोथ और 8 से 8.5 प्रतिशत की रियल ग्रोथ के अनुमान लगाए गए हैं। इसका अर्थ हुआ कि मुद्रा-स्फीति मात्र 2.5 से 3 प्रतिशत के बीच ही रहेगी, जोकि आरबीआई के मुद्रा-स्फीति बैंड (4.5 प्रतिशत से 5.5 प्रतिशत) से मैच नहीं करता।
कृषि क्षेत्र, जो कोरोना काल में संकट मोचक रहा, को बजट में पूरी तरह दरकिनार कर दिया गया। मनरेगा ओर बजट आवंटन पिछले बजट के स्तर तक सीमित कर दिया। मुद्रास्फीति को भी यदि समायोजित किया गया होता तो भी 5-6 प्रतिशत की वृद्धि हो सकती थी। उर्वरक सब्सिडी के साथ खाद्य सब्सिडी भी कम कर दी गई। ग्रामीण विकास पर भी बजट में कोई विशेष आवंटन नहीं किया गया। बजट में जो घोषणाएं की गर्इं हैं, उनके विवरण गायब हैं।
बजट में मानव केंद्रित विकास और अर्थव्यवस्था के सामाजिक ताने-बाने में बुनियादी सुधार पर जोर होना चाहिए। सरकार को बजट के माध्यम से समावेशी विकास पर जोर दिया जाना चाहिए था। समाज में डिजिटल डिवाइड बहुत गहराता जा रहा है, उसे दूर करने के लिए कुछ सार्थक प्रयास बजट में नहीं दिखाई पड़ते। महंगाई और बेरोजगारी अपने चरम की ओर अग्रसर है। अनब्लेंडेड आॅयल पर 2 प्रतिशत की अतिरिक्त उत्पाद शुल्क में वृद्धि से महंगाई और बढ़ेगी। कृषि क्षेत्र में भारी निवेश के माध्यम से न केवल बेरोजगारी को कम करने में सहायता मिलती, बल्कि अर्थव्यवस्था में सतत विकास को भी बढ़ावा मिलता। राजस्व के लिए सरकार की उधारी पर निर्भरता से सार्वजनिक ऋण का सकल घरेलू उत्पाद के साथ अनुपात 90 प्रतिशत से ऊपर चला गया है। इससे दीर्घकाल में अर्थव्यवस्था नया आर्थिक संकट उत्पन्न होगा।
जीएसटी के साथ अन्य कर संग्रह में वृद्धि के बावजूद सरकार राजकोषीय प्रबंधन में भी असफल रही है। इससे भविष्य में मुद्रा स्फीति के और ज्यादा होने के आसार हैं। पिछले बजट में विभिन्न मदों पर हुए आवंटन का एक बड़ा हिस्सा सरकार द्वारा व्यय ही नहीं किया गया।
निजी निवेश अर्थव्यवस्था में आर्थिक वृद्धि के लिए महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करता है। लेकिन बजट में निजी निवेश को बढ़ावा देने के लिए प्रोत्साहन का अभाव है। सार्वजनिक उपभोग के सहारे हम अर्थव्यवस्था को आर्थिक प्रगति के पथ पर बहुत दूर तक नहीं ले जा सकते। शिक्षा पर सार्वजनिक व्यय में पिछले बजट में कोविड संकट के कारण की गई कमी को भी इस बजट में आवंटन में वृद्धि कर ठीक करने का कोई सार्थक प्रयास नहीं हुआ। कोविड काल में अधिक सरकारी व्यय के कारण दुनिया के दूसरे देशों में ब्याज दर बढ़ने लगी हैं।अन्तर्राष्ट्रीय परिदृश्य में ब्याज दरों में वृद्धि का असर भारतीय अर्थव्यवस्था पर भी पड़ेगा। इससे भारत में भी महंगाई को नियंत्रित करने के लिए उच्च ब्याज दरों का दौर वापस आ सकता है। इसलिये सरकार को अभी से सचेत रहने की आवश्यकता है।