Wednesday, July 16, 2025
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2007 में चिंघाडा था हाथी, 2017 में खिला कमल

  • हर बार चुनाव में रंग बदलता रहा मेरठ का सियासी समीकरण
  • 2012 में साइकिल ने पकड़ी थी रफ्तार तो बनी सूबे में सरकार

जनवाणी संवाददाता |

मेरठ: जनपद मेरठ का सियासी समीकरण हर बार चुनाव में अपना रंग बदलता रहा है। पिछले तीन विधानसभा चुनाव की बात करें, तो जहां राज्य में हर बार सरकार बदली, वहीं यहां के राजनीतिक हालात भी सरकारों के साथ ही बदलते रहे हैं। 2007 के चुनाव में मेरठ में बसपा का हाथी खूब चिंघाडा तो प्रदेश में मायावती के नेतृत्व में सरकार बनी थी। यहां बसपा ने सात में से चार सीटों पर पहली बार कब्जा जमाया था।

इसके बाद विधानसभा के अगले चुनाव 2012 में मेरठ की सात में से तीन सीटों पर साइकिल ने रफ्तार पकड़ी थी। जिसके बाद सूबे में सपा ने अपनी सरकार बनाई थी। पिछले विधानसभा 2017 के चुनाव में भाजपा की बड़ी लहर मेरठ में रही और सात में से छह सीटों पर शहर से देहात तक कमल खिल गया।

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इस बार भाजपा के हाथ मेरठ समेत सूबे में बड़ी जीत लगी थी। इस बार के चुनाव में फिर से मेरठ की सियासत के हालत बदलते नजर आ रहे हैं। अबकी बार बसपा और कांग्रेस पिछले चुनाव की तरह ही अभी तक कमजोर दिख रही है, मगर भाजपा और सपा-रालोद गठबंधन के बीच इक्का-दुक्का सीट को छोड़ बाकी पर सीधा लड़ाई होती दिखाई दे रही है। हालांकि जिले की सीटों पर चुनाव के परिणाम क्या होंगे, यह तो मतदान के बाद मतगणना में ही तय होगा। फिलहाल गठबंधन और भाजपा प्रत्याशियों के बीच चुनाव में सीधी टक्कर होने की स्थिति बनी है।

एक दशक से फीकी पड़ी हाथी की चिंघाड

विधानसभा चुनाव 2007 के नतीजों में मेरठ समेत सूबे में बसपा सबसे बड़ा दल बनी थी। इस चुनाव में जिले की सात में चार सीट पर विजयी पताका फहराने वाले हाथी की चिंघाड पिछले एक दशक से मेरठ में फीकी है। दस साल में हुए दो चुनाव में बसपा को एक भी सीट पर जीत नसीब नहीं हुई। जबकि भाजपा का सियासी ग्राफ इस चुनाव के बाद से मेरठ में लगातार बढ़ा है। इस बार भी मेरठ में बसपा के सामने खाता खोलने की बड़ी चुनौती है। 2012 व 2017 के विधानसभा चुनाव में एक भी सीट पर हाथी मस्त चाल नहीं चला पाया।

2007 में यहां मिली थी बसपा को जीत

इस चुनाव में बसपा ने मेरठ जिले की सरधना, सिवालखास, हस्तिनापुर और खरखौदा सीट जीती थी। उस समय सिवालखास भी सुरक्षित सीट थी और मेरठ दक्षिण खरखौदा विधानसभा थी। सूबे में बसपा की सरकार बनने के बाद यूडीएफ से शहर सीट पर जीते याकूब कुरैशी भी बाद में बसपा मे ही शामिल हो गए थे। इस चुनाव में भाजपा को कैंट और सपा को किठौर में जीत नसीब हुई थी। अगले ही चुनाव 2012 में भाजपा जिले में चार सीट जीतकर बसपा के स्थान पर आ गई थी और सरकार में होने के बावजूद भी बसपा का खाता मेरठ में नहीं खुला था। सपा ने देहात की किठौर, सिवालखास और हस्तिनापुर सीट जीती थी।

2007 के नतीजे

बसपा                      चार
भाजपा                     एक
यूडीएफ                    एक
सपा                         एक

2012 के नतीजे

सपा                     तीन
भाजपा                  चार

2017 के नतीजे

भाजपा                     छह
सपा                        एक

पश्चिमी यूपी में मायावती कितनी मजबूत?

प्रथम चरण का मतदान 10 फरवरी को हैं। चुनाव प्रचार पूरे यौवन पर हैं। सपा के राष्टÑीय अध्यक्ष अखिलेश यादव, रालोद अध्यक्ष जयंत चौधरी और भाजपा के शीर्ष नेतृत्व एवं गृहमंत्री अमित शाह और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पश्चिमी यूपी में कई राउंड लगा चुके हैं, लेकिन मायावती ने अभी पश्चिमी यूपी में सिर्फ आगरा में पहली सभा की हैं, जिसमें एक हजार लोग ही आये हैं।

कुछ दिन बचे है मतदान में, लेकिन अभी आगरा को छोड़ दे तो बाकी जनपदों में बसपा सुप्रीमो मायावती ने कोई कार्यक्रम नहीं रखा हैं, ऐसे में विधानसभा चुनाव में मायावती का जो जनाधार रहा है, वह खिसक रहा है।

2017 के विधानसभा चुनाव में बसपा ने उन्नीस सीटें जीती थी, जबकि पश्चिम में यह प्रदर्शन 2007 के मुकाबले अच्छा नहीं रहा। दरअसल, पश्चिम में कभी दलित और मुस्लिम मतदाता निर्णायक हुआ करते थे। जिधर मुस्लिम और दलितों का रुख हो जाता था, वहीं पर जीत की संभावनाएं बन जाती थी।

वर्तमान में स्थितियां बदली हैं। मुस्लिम का रूझान इस बार बसपा से हटकर सपा-रालोद गठबंधन की तरफ दिखाई दे रहा है। मायावती सबसे पहले बिजनौर से चुनाव लड़ी थी। 1989 में पहली बार संसद में पहुंची थी। सहारनपुर से 1996 में हरौड़ा सीट से चुनाव लड़कर सीएम की कुर्सी का सफर तय किया था। इसके बाद तो बसपा सुप्रीमो मायावती का राजनीति में कद बढ़ता चला गया।

महत्वपूर्ण बात यह है कि पश्चिमी यूपी को लेकर बसपा सुप्रीमो मायावती ज्यादा सक्रिय नहीं हैं, जबकि पश्चिमी यूपी में पीएम नरेन्द्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ समेत कई दिग्गज चुनावी सभा कर चुके हैं। पश्चिमी यूपी में में मायावती का कदम लगातार घट रहा हैं।

अब देखना यह है कि बसपा का जो केडर वोट था, वो कहां जाता हैं? यह भी विचारनीय होगा। बसपा के कैडर वोटरों पर भी बहुत कुछ निर्भर करने वाला हैं। दलित जनाधार पर कौन कब्जा करता है यह तो अभी भविष्य के गर्भ में हैं, लेकिन इतना अवश्य है कि बसपा का जानाधार घटा हैं। यही वजह है कि पश्चिमी यूपी में मायावती भी कम सक्रिय दिख रही हैं।

चन्द्रशेखर भी बड़ी चुनौती

बसपा का कैडर वोट पर यदि किसी की निगाहें है तो उसमें चन्द्रशेखर भी शामिल हैं। दलितों की राजनीति चन्द्रशेखर कर रहे हैं। यूथ उनके साथ जुड़ा हुआ हैं। लंबे समय से चन्द्रशेखर ग्राउंड स्तर पर दलितों के लिए लड़ाई भी लड़ रहे हैं। ऐसे में दलित वोट चन्द्रशेखर के साथ भी जा सकता हैं। इस तरह से देखा जाए तो इस बार दलित वोटरों में बिखराव देखा जा सकता हैं। सभी दलों की निगाहें दलितों पर लगी हुई हैं। द

लितों का रुख इस चुनाव में निर्णायक भी साबित हो सकता हैं। क्योंकि पश्चिमी यूपी में जाट और मुस्लिमों का गठजोड़ होने के कारण भाजपा को सर्वाधिक परेशानी हो रही हैं। ऐसे में सपा-रालोद गठबंधन के साथ दलित वर्ग जुड़ जाता है तो भाजपा का भारी नुकसान संभव हो सकता हैं। इस बात को भाजपा के बड़े लीडर भी मानते हैं। इसीलिए ऐसी रणनीति भाजपा के दिग्गज बना रहे है कि जाट-मुस्लिम गठजोड़ का मुकाबला करने के लिए दलित वर्ग को अपने साथ जोड़ा जाये।

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