काश मै भगवान होता, तब किसानों पर किसी का यूं न अत्याचार होता। तब न ले हल बैल, तपती धूप में वो दीन चलता। तब न यूं मजदूर, पैसे के लिए मजबूर दिखता, काश मै भगवान होता……ऐसी कालजयी पंक्तियॉ जो पढ़कर ऐसा लगता है जैसे आज के हालातों पर आज ही किसी ने लिखी हैं। पर ये लिखी गयीं थी 20 वीं षताब्दी में, और लिखने वाले थे महाकवि दुष्यंत।
इस महान गजलकार का जन्म एक सितम्बर 1933 को जनपद बिजनौर के एक छोटे से गांव राजपुर नवादा में हुआ था। मात्र 42 साल की अल्पायु उन्होने इस धरा पर बितायी पर अपने छोटे से जीवन में इस दुनिया को इतना कुछ दे गये कि आज भी लोग उन्हे ही गुनगुनाते है वे अपने गीतो, कविताओं व उपन्यासों में वे हजारों हजार आवाजें बनकर आज भी जिन्दा हैं।
महाकवि दुष्यंत ने जिन्दगी के सभी आयामों रूढ़िवादियों, सामाजिक मुद्दों, प्रेम व राजनीति सभी पर लिखा और ऐसा लिखा जो आज तक आम आदमी हो या खास गाता फिरता है। उनका जन्म एक ऐसी जगह बिजनौर मे हुआ जो शकुंतला व राजा दुष्यंत की प्रणयस्थली है। पर उनके जीवन मे एक समय ऐसा भी आया जब अपनी मोहब्बत असफल होने पर उन्होने लिखा कि इस जीवन की और न आषा लौट रहा प्यासा का प्यासा, करा मुझे विशपान जो सकती, तू मेरा दुख जान न सकती।
वर्षों बाद जब उनका विवाह राजेष्वरी जी से हुआ तो उन्होने अपनी जिम्मेदारी का पूर्ण निर्वहन किया और अपनी अर्धांगिनी को पहली भेंट एक कविता के रूप मे दी जो कुछ इस प्रकार है कि एक चपल बालिका भोली थी, कर रही लाज का भार वहन, झीने घूंघट पट से चमके दो लाज भरे सुरमई नयन। अपनी किशोरावस्था उन्होने जनपद बिजनौर के विभिन्न शहरो नूरपुर, नहटौर, नजीबाबाद आदि शहरों मे गुजारी पर स्थायी बसेरा उन्होने भोपाल को बनाया। उनका जो संबंध भोपाल से बना तो फिर मरते दम तक नही टूटा। आज भी उनका परिवार भोपाल मे ही रहता है।
उनके दीवानों का आलम यह है कि जो उनसे कभी नही मिले उनमे से एक प्रशंसक भोपाल के राजुलकर राज ने दो कमरो के अपने घर के एक कमरे को दुष्यंत के यादगार मे संग्रहालय मे बदला। आज ये बडा आकार ले चुका है दूर दूर से उनके चाहने वाले यहॉ आते है उनके बारे मे पूछते है शोद्यार्थी समाज से जुडे कलाकार राजनेता सभी आते हैं।
दरअसल समाज के रह वर्ग ने उनसे प्रेरणा पायी है अगर क्रान्तिकारी विचारधारा हो तो लोगों ने उन्हे, ‘‘हो गयी है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए, इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए‘‘ सुना। अगर मजदूर किसान की बात करें तो उन्होने कहा कि ‘‘उठ जाग आज तू हे किसान, हीरे मोती रूपये पैसे, जिनके चरणों मे पडे हुए, तू सोच तनिक, सबके सब हैं, तेरे बल पे खडे हुए। तू निश्चल भोला भाला है, तूने जग से धोखा खाया है। तू जिनके भरता है पेट, उन्ही के अत्याचार का निशान। उठ जाग आज तू हे किसान।‘‘ जब देश को जगाने की बात आयी तो महात्मा गांधी की मृत्यु पर उन्होने जहॉ एक ओर दुख का गीत गाया तो उसी गीत मे देष की जनता को सहारा भी दिया। वे कहते हैें कि ‘‘ये दिवस रहेगा याद सदा, इस दिन सारा जग रोया था। वो शांतिदेव वो स्वर्गदूत, वो इसी दिवस तो खोया था। वो कोष लुटा था इसी दिवस, युगयुग से जिसे संजोया था। ये सोने का काल नही है, जागो देष पुकार रहा है। आज जवाहर सा सेनानी सारा बोझ संभाल रहा है, और पटेल सा वीर तीर से दुश्मन को संहार रहा है।‘‘ लेखनी से कभी आग तो कभी प्रेम की फुहार बरसाने वाला आम आदमी का कवि आखिर 30 दिसंबर 1975 को चला गया पर पीछे छोड़ गया अनगिनत न भूलने वाले अमर शब्द ‘‘ मै फिर जनम लूंगा, फिर मै इसी जगह आउंगा। उचटती निगाहों की भीड़ में अभावों के बीच लोगों की क्षत-विक्षत पीठ सहलाउंगा।
प्रस्तुतिः- गुलशन गुप्ता, बिजनौर।