किसी गांव के किनारे एक मंदिर था, जिसमें एक साधु रहता था। चोर अपने ही गांव में हाथ मारता था। वह छोटी छोटी चोरी ही करता था। चोर को लाभ कुछ नहीं था पर परेशानी दुनिया भर की। चोर ने सोचा मंदिर के चढ़ावों से साधु की थैली भरी पड़ी है। अब उसने साधु की कुटिया पर आना जाना शुरू कर दिया। बगुला भगत की श्रद्धा भक्ति से साधु महाराज तो खुश हो उठे। वैसे साधु भी जानता था कि यह चोर खड़ग सिंह तो है नहीं, कबाड़ी चोर है। दिन में इसे हाथ नहीं डालना है, रात में मुझे इसको घास नहीं डालनी है, इसलिए मेरी थैली का बाल बांका होने से रहा। थैली के आकार को देखकर कबाड़ी चोर की तबीयत हरी होती रहती थी। उस दिन चोर रात होने पर कुटिया से उठाए नहीं उठा। दांव में कबाड़ी चोर और बचाव में साधु महाराज रात भर करवट पर करवट बदलते रहे। सुबह हुई तो साधु महाराज की जान में जान आई। अगले दिन से साधु महाराज रात को थैली बाहर रख देता और सुबह भीतर। चोर रात भर थैली को ढूंढता थक जाता। घनघोर अंधेरी रात में साधु की आत्मा ने कहा, तू पापी महात्मा है। उस थैली से तेरा क्या लगाव? बेचारे चोर का भला कर। उसी रात चोर की आत्मा ने भी कहा, दो आंख, दो हाथ, दो पैर, छ: संपत्ति भगवान ने तुझे दे रखी हैं। तू उनका दुरुपयोग मत कर। जब तक नीयत में फितूर रहेगा तब तक भाग्य भी तुझ पर मेहरबान नहीं होगा। उस रात साधु ने वह थैली बाहर नहीं रखी। सुबह साधु महाराज ने देखा थैली तो वहीं पर है पर आज कबाड़ी चोर नहीं था। कबाड़ी चोर होता भी कैसे? उसकी अंतरात्मा जाग गई थी। अंतरात्मा की आवाज भला करने को ही कहती है।
प्रस्तुति : सुभाष बुडावन वाला