आलूबुखारा एक महत्वपूर्ण समशीतोष्ण ड्रूप फल है, जो आड़ू के बाद आता है। यह प्रुनस प्रजाति से संबंधित होता है और आड़ू, नेक्टरीन व बादाम से घनिष्ठ रूप से जुड़ा होता है। इसके परिपक्व फलों पर कभी-कभी धूसर-सफेद परत पाई जाती है, जिसे ‘वैक्स ब्लूम’ कहा जाता है। सूखे आलूबुखारा को प्रून के नाम से जाना जाता है। यह मुख्य रूप से निम्न पहाड़ी और उप-पहाड़ी क्षेत्रों में अच्छी तरह उगाया जाता है। आलूबुखारा के फल विभिन्न खनिज, विटामिन, शर्करा और कार्बनिक अम्लों के उत्कृष्ट स्रोत होते हैं। इनमें प्रोटीन, वसा और काबोर्हाइड्रेट की उचित मात्रा भी होती है। उच्च शर्करा युक्त फलों से उच्च गुणवत्ता वाली शराब और ब्रांडी बनाई जा सकती है।
जलवायु
– आलूबुखारा सम-उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों से लेकर उच्च पहाड़ी क्षेत्रों तक उगाया जा सकता है।
– यूरोपीय किस्में 1300-2000 मीटर की ऊंचाई पर सबसे अच्छी उगती हैं और इन्हें 1000-1200 घंटे तक ठंड (7.2 डिग्री से कम) की आवश्यकता होती है।
– जापानी किस्मों को 1000-1600 मीटर ऊंचाई और 700-1000 घंटे ठंड की जरूरत होती है।
मिट्टी
-आलूबुखारा को विभिन्न प्रकार की मिट्टी में उगाया जा सकता है, लेकिन गहरी, उपजाऊ, और जल निकासी वाली दोमट मिट्टी सबसे उपयुक्त होती है।
– पीएच स्तर 5.5-6.5 के बीच होना चाहिए।
– अत्यधिक लवणीय और जलभराव वाली मिट्टी से बचना चाहिए।
– पोटेशियम युक्त मिट्टी प्रून के लिए अधिक उपयुक्त होती है।
प्रजातियां
– निचली ऊंचाई के लिए: सतलुज पर्पल, सत्सुमा, काला अमृतसरी
– मध्यम ऊंचाई के लिए: सैंटा रोसा, मैरीपोस, डोरिस
परागण की भूमिका
आलूबुखारा की अधिकतर प्रजातियां स्व-परागण योग्य नहीं होती हैं। इसलिए, हर तीसरे पेड़ के रूप में परागण करने वाली प्रजातियों को लगाना आवश्यक होता है। फूल आने के 10 दिन बाद जीए3 (50-100 मिलीग्राम/लीटर) का छिड़काव करने से फल बनने की प्रक्रिया बेहतर हो सकती है।
पौध तैयार करने की विधि
-रूटस्टॉक के रूप में आड़ू के बीज का उपयोग किया जाता है।
– ग्राफ्टिंग की विधि टंग ग्राफ्टिंग सर्वोत्तम होती है, जो सर्दियों (दिसंबर-जनवरी) में की जाती है।
– प्रत्येक गड्ढे में 15-20 किग्रा सड़ी हुई गोबर खाद, 100 ग्राम यूरिया, 100 ग्राम टडढ, 300 ग्राम ररढ, और 50 ग्राम क्लोरपाइरीफॉस मिलाया जाता है।
– ग्राफ्टिंग बिंदु को 15-20 सेमी ऊंचाई पर रखना चाहिए।
– रोपण का उचित समय सर्दियों का निष्क्रिय मौसम या मानसून का आरंभिक समय होता है।
प्रशिक्षण और छंटाई
– पहले वर्ष में 4-5 शाखाएं रखते हुए शीर्ष भाग को काटना चाहिए।
– आलूबुखारा के पेड़ों की छंटाई से 25-30 सेमी वार्षिक वृद्धि को बनाए रखा जा सकता है।
– पर्याप्त रोशनी के लिए ऊर्ध्व शाखाओं को हटाना आवश्यक होता है।
उर्वरक और पोषण प्रबंधन
– पहले 10 वर्षों तक प्रति वर्ष प्रत्येक पेड़ को 10 किग्रा गोबर खाद, 50 ग्राम ठ, 25 ग्राम ढ, और 60 ग्राम ङ देना चाहिए।
– मेघालय जैसे क्षेत्रों में 10-13 वर्ष के फलदार पेड़ों के लिए 100 ग्राम ठ, 200-250 ग्राम ढ और 80-100 ग्राम ङ आवश्यक होता है।
सिंचाई
– नए पौधों के लिए प्रारंभिक सिंचाई महत्वपूर्ण होती है।
– दिसंबर से मार्च के बीच, 15 दिन के अंतराल पर 2-3 बार सिंचाई आवश्यक होती है।
प्रमुख कीट और रोग
आड़ू एफिड कलियों का रस चूसता है, जिससे पत्तियां कमजोर हो जाती हैं और फल गिर जाते हैं।
डिमेथोएट (1.5 मिली/लीटर) या मोनोक्रोटोफोस (2.5 मिली/लीटर) का छिड़काव।
तना बोरर तने और जड़ में छेद करता है। कीट के छेदों में तार डालकर साफ करें और पेट्रोल/केरोसिन में डूबी रुई डालें।
बैक्टीरियल गम्मोसिस छाल पर गोंद जैसे पदार्थ का रिसाव।
मशोबरा पेस्ट का उपयोग करें।
पत्तियां सिकुड़कर विकृत हो जाती हैं।
ऊ्र३ँंल्ली-78 (200 ग्राम/100 लीटर पानी) का छिड़काव करें।
कटाई और उत्पादन
– बाजार में दूर भेजने के लिए फलों को अच्छी रंगत और कठोर त्वचा में काटा जाता है।
– स्थानीय खपत के लिए, पके फल काटे जाते हैं।
– कटाई का उपयुक्त समय मई-जून होता है।
– एक पेड़ से 30-50 किग्रा फल प्राप्त किए जा सकते हैं।