अमरनाथ की पवित्र यात्रा में बादल फटने की घटना एक गंभीर चेतावनी है। ये चेतावनी प्रकृति बार-बार हमें दे रही है। वास्तव में प्रकृति की शांति लगातार मानव द्वारा भंग की जा रही है। प्रकृति भी एक सीमा तक मानव हस्तक्षेप और दोहन को बर्दाशत करती है। और सीमा उल्लंघन होने पर वो अमरनाथ घटना की भांति मानव समाज को संदेश देती है कि प्रकृति से अनावश्यक छेड़छाड़ मत करो। किसी हादसे या घटना के बाद ऐसे कई बयान और संदेश सामने आते हैं कि आगे से ऐसा नहीं होगा। प्रकृति से अनावश्यक छेड़छाड़, हस्तक्षेप और दोहन को रोका जाएगा। लेकिन चंद दिनों बाद ही प्रकृति की चेतावनी और हादसे को भुला दिया जाता है और जिंदगी फिर पुरानी पटरी पर सरपट भागने लगती है। आम आदमी, सरकार, प्रशासन और जिम्मेदारों को कुछ याद नहीं रहता। और हम सब फिर किसी नए हादसे के घटित होने तक चुप्पी ओढ़कर सो जाते हैं। यह पहली बार नहीं है जब अमरनाथ यात्रा पर प्राकृतिक आपदा की मार पड़ी हो। पहले भी कई बार श्रद्धालु प्रकृति के प्रकोप का शिकार हो चुके हैं। हर साल औसतन करीब 100 श्रद्धालु अमरनाथ यात्रा के दौरान प्राकृतिक हादसों में मौत होती है। अमरनाथ यात्रा के दौरान सबसे पहला बड़ा हादसा साल 1969 में हुआ था। इस साल जुलाई महीने में भी बादल फटने से करीब 100 श्रद्धालुओं की मौत हो गई थी।
यह घटना अमरनाथ यात्रा के इतिहास की पहली बड़ी घटना भी मानी जाती है। अमरनाथ यात्रा के दौरान श्रद्धालुओं से भरी एक बस जम्मू-श्रीनगर नेशनल हाइवे पर रामबन जिले के पास एक गहरी खाई में गिर गई थी। इस हादसे में 17 श्रद्धालुओं की मौत हो गई और 19 से ज्यादा घायल हो गए। बाबा बर्फानी के दर्शन के लिए जा रहे तीर्थयात्रियों का वाहन जम्मू-श्रीनगर राष्ट्रीय राजमार्ग पर खड़े एक ट्रक से जा टकराया। इस दौरान 13 तीर्थयात्री गंभीर रूप से घायल हो गए थे। अमरनाथ यात्रा के दौरान 1 से 26 जुलाई के बीच 30 श्रद्धालुओं की जान गई थी। इन मौतों की वजह श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड द्वारा यात्रा शुरू करने से दो महीने पहले तक श्रद्धालुओं को इस कठिन यात्रा के बारे में जागरूक न करना बताया गया।
देशवासी 16 जून 2013 की रात को शायद भूले नहीं होंगे। इस रात को उत्तराखंड के चार धामों में से एक केदारनाथ में आए जल सैलाब में हजारों तीर्थयात्रियों बह गए थे। मंदिर को छोड़कर वहां कुछ भी नहीं बचा। आज भी अनेक लोग ऐसे हैं जिनका पता नहीं चला। दरअसल एक दिन पहले से हुई भारी वर्षा के कारण केदारनाथ धाम से और ऊपर स्थित पहाड़ी झीलें लबालब हो जाने के बाद उनसे बहा पानी मौत लेकर नीचे आया। समूचे उत्तराखंड में वैसी प्राकृतिक आपदा उसके पहले नहीं देखी गई थी। उसका कारण भी बादल का फटना रहा। 16 जून की घटना के बाद केदारनाथ सहित उत्तराखंड के बाकी तीनों धामों में मूलभूत सुविधाओं का काफी विस्तार हुआ।
तीर्थयात्रियों की बढ़ती संख्या को दृष्टिगत रखते हुए सड़कों का निर्माण बड़े पैमाने पर किया गया ताकि आवागमन सुलभ होने के साथ ही दुर्घटनाओं को कम किया जा सके। लेकिन इस कारण हिमालय के सुख-चैन में भी बेवजह दखलअंदाजी बढ़ी है। प्रकृति इंसानी जुबान नहीं बोलती लेकिन अपनी बात संकेतों के जरिये समय-समय पर बताती रहती है जिसे मनुष्य या तो बिलकुल नहीं समझ पाता या समझने के बाद भी उसकी अनदेखी करने का अपराध करता है।
यही वजह है कि कभी-कभी आने वाली प्राकृतिक आपदाएं जल्दी-जल्दी आने लगी हैं। लेकिन बजाय डरने के इंसान प्रकृति को चुनौती देते हुए उससे लड़ने पर आमादा तो हो जाता है परंतु वह ये भूल जाता है कि उसकी तमाम वैज्ञानिक और तकनीकी उपलब्धियां उसकी अदृश्य शक्ति के सामने बौनी हैं। पिछले दिनों उत्तराखंड की प्रसिद्ध फूलों की घाटी के निकट हैलीपैड के निर्माण की बात सामने आई थी। जिसे लेकर विरोध शुरू हो गया है। मानवीय गतिविधियां प्रकृति के इको सिस्टम को बुरी तरह प्रभावित करती हैं, जिनका नतीजा दर्दनाक हादसों के रूप में सामने आता है। हैरानी इस बात की है कि तमाम दर्दनाक घटनाओं के बाद कोई सुधरने और सुनने को तैयार नहीं है।
उत्तराखंड स्थित चारों प्रमुख तीर्थों की यात्रा भी सदियों से होती रही है जिसके लिए पहले यात्री गण पैदल जाया करते थे। 1962 में चीन के हमले के बाद इन इलाकों में सीमा सड़क संगठन (बीआरओ) द्वारा बड़े पैमाने पर सड़कों का जाल बिछाये जाने के बाद वाहनों द्वारा होने से तीर्थयात्रा, पर्यटन में बदलने लगी। दूसरी तरफ यात्री सुविधाओं का विस्तार करने के लिए प्रकृति के साथ अत्याचार किए जाने का परिणाम पर्यावरण असंतुलन के तौर पर सामने आने लगा। जो इलाके निर्जन हुआ करते थे वहां लाखों लोगों की आवाजाही और वाहनों की वजह से ध्वनि और वायु प्रदूषण में वृद्धि दिखने लगी। शहरों की तरह कचरा भी फैलने लगा। जिसका दुष्प्रभाव ऊंचाई पर स्थित ग्लेशियरों के पिघलने के रूप में सामने आ
रहा है।
वास्तव में कोरोना के कारण दो वर्ष के विराम के बाद तीर्थ स्थानों को खोले जाने से इस वर्ष उत्तराखंड के चारों धामों में तीर्थयात्रियों का सैलाब आ गया है। उसी तरह की स्थिति कश्मीर घाटी में भी है जो इन दिनों पर्यटकों से लबालब रहती है। लगभग हर पर्यटक स्थल पर इस साल अपेक्षा से ज्यादा सैलानी आये हैं। यही बात अमरनाथ यात्रा पर भी लागू हो रही है। अमरनाथ की पवित्र गुफा के निकट का खुला एरिया भी इतना बड़ा नहीं है कि वहां बड़ी संख्या में लोगों के ठहरने का स्थायी प्रबंध हो सके।
कालान्तर में जो हालात बने वे प्रकृति के क्रोध को बढ़ाने में सहायक हुए और जिन आपदाओं के बारे में बुजुर्गों से सुना करते थे वे हर साल दो साल बाद लौटकर आने लगीं। केदारनाथ के बाद अमरनाथ की ताजा घटना को प्रकृति की चेतावनी मानकर यदि हम उसके प्रति अपना व्यवहार नहीं सुधारते तब इस तरह के हादसे बढ़ते जायेंगे और हम लाचार खड़े देखने के सिवाय और कुछ करने में असमर्थ रहेंगे। प्रकृति हमें जीने के लिए बहुत कुछ देते हैं लेकिन अभार स्वरूप यदि हम उनकी शांति में बाधा डालेंगे तब उनका रौद्र रूप दिखाना नितान्त स्वाभाविक ही माना जाएगा। विभिन्न आपदाओं के रूप में प्रकृति रह-रह कर मानव जाति को चेतावनी दे रही है कि ‘अभी भी मुझसे छेड़छाड़ करना बंद कर दो’ और संभल जाओ वर्ना मेरा इंतकाम पहले से भी अधिक भयानक और विनाशकारी होगा।