महान सम्राट पृथ्वीराज चौहान और उनका विशेष अंगरक्षक रणक्षेत्र में शत्रुओं के शस्त्रों से आहत होकर भूमि पर गिर पड़े थे। तन में प्राण तो थे, पर उठने की तनिक मात्र भी शक्ति नहीं थी। युद्ध बंद हो चुका था। अत: गिद्धों के झुंड आकाश में मंडराने लगे और वे अर्धमूर्छित स्थिति में पड़े हुए सैनिकों को नोच-नोच कर खाने लगे। कुछ गिद्ध पृथ्वीराज की ओर बढ़ने लगे। संयमराय ने देखा तो उसके रौंगटे खड़े हो गए। वह सोचने लगा, मेरे नेत्रों के सामने गिद्ध स्वामी के तन को नोच-नोच कर खाएं और मैं देखता रहूं यह अनुचित है। मेरे शरीर में सामर्थ्य नहीं कि मैं सम्राट को बचा सकूं। उसे अपनी असमर्थता पर आंसू आ गए।
वह सोच में पड़ गया कि उसे इस वक्त क्या करना चाहिए। वह सोचता रहा, सोचता रहा। खूब सोचने पर उसे एक उपाय सूझ गया। उसने कमर में लगा छुरा निकाला और अपने शरीर का मांस काट-काट कर फेंकने लगा, जिससे मांस-लोलुप गिद्ध उन बोटियों को लेने लगे। वे मानवों के तन को नोचना भूलकर सीधे प्राप्त मांस खाने लगे।
संयमराय ने अपने तन को अपने स्वामी के लिए समर्पित कर दिया और अपने मालिक को बचा लिया। ये उसका अपने मालिके प्रति समर्पण था। यदि हमारी प्रभु के प्रति भक्ति भी इतनी समर्पण भाव आ जाए तो भक्त से भगवान बनने में देरी नहीं लगे। हमारी प्रभु भक्ति, मात्र प्रभु से कुछ मांगने के लिए होती है, जिसके लिए हम ईश्वर को अर्पण करने का भाव रखते है, समर्पण का उसमें अभाव रहता है।
प्रस्तुति : राजेंद्र कुमार शर्मा